*लैंगिक हिंसा पर जलेसं की कार्यशाला* : 

*लैंगिक हिंसा पर जलेसं की कार्यशाला* :

*’हर हिंसा स्त्री देह से होकर गुजरती है’*

*(विशेष रिपोर्ट : मज़कूर आलम)*/जे टी न्यूज़

दिल्ली। जनवादी लेखक संघ, दिल्ली ने 25 नवम्बर से 10 दिसम्बर तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ‘लैंगिक-आधारित हिंसा के विरुद्ध 16 दिवसीय सक्रियता अभियान के मौके पर को हरकिशन सिंह सुरजीत भवन, दिल्ली में ‘लैंगिक हिंसा : पहचान, प्रतिरोध, कानून’ विषय पर एक-दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया। कार्यक्रम की शुरुआत हाल ही में दिवंगत हुए हिंदी के लेखक और जलेसं के साथी गोविंद प्रसाद और सुप्रसिद्ध लेखक राजी सेठ को श्रद्धांजलि देकर हुई।

जनवादी लेखक संघ दिल्ली के सचिव प्रेम तिवारी ने कहा कि दिल्ली जलेस की कार्यशाला और विमर्श समिति ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा रखी है। यह बलवंत कौर की पहल है और कार्यशाला एवं विमर्श समिति के सदस्य बजरंग बिहारी और मज़्कूर आलम ने इसमें सहयोग किया है। पहले भी यह समिति ऐसे कार्यक्रम करती आई है। उसी की कड़ी में हम ‘जेंडर हिंसा : पहचान, प्रतिरोध, कानून’ विषय पर यह कार्यशाला आयोजित कर रहे हैं।

कार्यक्रम की संयोजक बलवंत कौर ने संचालन के दौरान कहा कि 25 नवंबर को महिलाओं के विरुद्ध हिंसा उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। इस पखवाड़े में पूरी दुनिया में इस पर बात हो रही है। यूएनओ की ताजा रिपोर्ट है कि हर 10वें मिनट में एक स्त्री की हत्या हो जाती है। महिलाओं पर होने वाले परम्परागत हिंसा को तो हम रोज अपने आसपास होते देखते रहते हैं, लेकिन स्थिति अब और भयावह हो गई है। हिंसा का डिजिटल रूप भी आ गया है। इन्हीं कारणों से हमने इस के विभिन्न पहलुओं को समझकर लिंग आधारित समतामूलक समाज बनाने के उद्देश्य से यह कार्यशाला आयोजित की है। इसमें हम ‘स्त्री हिंसा’ के हर पहलू के बारे में बातचीत करेंगे और उसके समाधान के प्रयासों पर भी बातचीत करेंगे।

 

उद्घाटन सत्र में बोलते हुए हिंदी की शीर्ष कवि अनामिका ने कहा कि भूख और अपमान दुनिया के दो सबसे बड़े दुख हैं। इसके साथ ही स्त्री हिंसा का कोई भी स्वरूप हो, गाली-गलौच, मारपीट, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी, यांत्रिक संभोग से लेकर हत्या-बलात्कार तक, वह स्त्री देह से होकर गुजरती है। हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अंग्रेजी शासन के जमाने से उनकी स्थिति में सुधार आना शुरू हुआ है और इसकी वजह शिक्षा है। उन्होंने सुधार पर बात करते हुए यह भी कहा कि स्थिति में बदलाव आसानी से नहीं होता। सिर्फ प्रतिरोध और आंदोलनों से चीजें नहीं बदलती। उसके लिए जागरूकता की ज़रूरत होती है। और इस मामले में उन्होंने स्त्री आंदोलन को अनोखा और इकलौता करार दिया कि यह बिना हिंसक हुए बदलाव लेकर आईं। कानून की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने एक शब्द में इसकी वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी- ‘अस्पताल और न्यायालय दो भूतही हवेलियां हैं।’ अदालत में न्याय प्रक्रिया चलती रहती है और न्याय मिलने में दशकों लग जाते हैं। जब मिलते हैं तो इसका कोई मतलब ही नहीं होता।

इसकी ताईद करते हुए अपने वक्तव्य में दलित चिंतक बजरंग बिहारी ने कुछ उदाहरणों से बताया कि कैसे ऊपरी अदालत तक मामला आते-आते दो-तीन दशक लग जाते हैं और कई मामलों में तो ऐसा होता है कि मुकदमा का पैरवीकार ही नहीं बचता और मुकदमे में पैरवी के अभाव में अपराधी बच निकलते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा अक्सर दलित, अल्पसंख्यक और निचली पृष्ठभूमि के खिलाफ किए गए अपराध के मामलों में होता है। मुख्य पैरवीकार की मौत (प्राकृतिक या अप्राकृतिक) हो जाने के बाद दूसरों को दबंग समुदाय (जाति, धर्म, वर्ग) के लोग वैसे लोगों को धमका आते हैं, जो उनके बाद पैरवी कर सकते हैं- “हश्र याद रखना। कहीं शिकार लोगों जैसा ही न हो जाए।”

 

पहले सत्र को संबोधित करते हुए स्त्री हिंसा पर काम कर रही स्निग्धा सिंह ने इसकी पहचान पर बात करते हुए कहा कि आप देखिए — रंग, नौकरी, खिलौने, इमोशन जैसे साधारण चीजों का भी वर्गीकरण कर दिया गया है। जैसे — लाल, गुलाबी रंग स्त्रियों के, तो नीला रंग पुरुष का। सेना, पुलिस, जिम्मेदारी वाली नौकरियां पुरुषों की, तो नर्सिंग, केयरिंग या टीचिंग के काम औरतों के जिम्मे। बच्चों के लिए गन, कार जैसे खिलौने, तो वहीं बच्चियों के लिए चूल्हा-चौका और गुड्डा-गुड़िया। रोना-धोना लड़कियों का काम है, तो गुस्सा करना लड़कों का आदि। उन्होंने यह भी कहा कि मैं इसे लिंग का नहीं, जेंडर का मसला कहना चाहूंगी, क्योंकि लिंग सिर्फ जैविक मामला है। सेक्स सिर्फ बायोलॉजिकल कॉल है, जबकि जेंडर की बात करते हैं तो इसका स्वरूप बहुत बड़ा होता है। इसका आधार सामाजिक, सांस्कृतिक होता है। यह लालन-पालन से लेकर पर्व-त्योहार तक में दिखता है। उन्होंने इसके पीछे पितृसत्ता का स्त्री शरीर पर नियंत्रण की लालसा बताया। उन्होंने विभाजन की त्रासदी का उदाहरण देते हुए बताया कि तब हिंसा के दौरान हिन्दू स्त्री के शरीर पर चांद और मुस्लिम स्त्री के शरीर पर त्रिशूल के निशान बना दिए गए थे। ऐसा इसीलिए किया गया था, क्योंकि पितृ सत्ता स्त्री को अपनी संपत्ति समझती है। उन्होंने इस मानसिकता को बदलने के उपायों पर चर्चा करते हुए कहा कि यह तभी सम्भव है, जब शिक्षा का प्रसार हो और इसमें इन विषयों का भी समावेश किया जाए। इसके अलावा लोगों को जवाबदेह बनाया जाए और साथ में हमारे पास एक स्पष्ट समावेशी नीति हो।

 

दूसरे सत्र में जाति का असर स्त्री हिंसा पर क्या पड़ता है, इस पर बात करते हुए प्रीति दीवान ने कहा कि निम्न जातियों की स्त्रियां घरेलू प्रताड़ना का शिकार कम होती हैं, मगर उन पर दबंग जातियों द्वारा निम्न जातियों को दबाने और बदला लेने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जैसे — बलात्कार, यौन उत्पीड़न, गाली-गुफ़्तार, जाति और स्त्री सूचक अपशब्द आदि। वहीं ऊंची जाति की औरतें भी हिंसा से निरापद नहीं हैं, उन्हें घरेलू प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है।

 

दूसरे सत्र में ही साहित्य में जातिगत आधार पर हिंसा पर पर्चा पढ़ते हुए दीबा ज़फ़ीर ने कई लेखकों ओम प्रकाश वाल्मीकि के जूठन, उर्मिला पवार, सुशील टाकभौरे, श्योराज सिंह बेचैन, महाश्वेता देवी आदि के उपन्यासों और आत्मकथ्य का ज़िक्र करते हुए बताया कि किस तरह दलित और निम्न वर्गीय स्त्रियों के उत्पीड़न में न सिर्फ दबंग जातियां, बल्कि प्रशासनिक अमला भी लगा रहता है।

 

कार्यशाला के अंतिम सत्र में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने इसके राजनीतिक निहितार्थ और पिछले एक दशक में महिला सशक्तीकरण की दिशा में आए उल्लेखनीय सुधार और महिलाओं को लेकर मीडिया द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार पर बात की। उन्होंने कहा कि एक दशक के भीतर दो बेहद कामयाब और बड़े आंदोलन शाहीन बाग़ और किसान आंदोलन हुए और इन दोनों का नेतृत्व महिलाओं ने किया। इसने यह भी साबित किया कि महिलाएं सिर्फ महिला विषयक मुद्दों पर ही आंदोलन या संघर्ष नहीं करती हैं, बल्कि वह अन्य विषयों पर भी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर आंदोलन कर सकती है और करती है। वह स्वतंत्र चेता हैं और वह न सिर्फ आंदोलन का नेतृत्व भी कर सकती हैं, बल्कि उन्हें दिशा भी दे सकती हैं।

 

उन्होंने यह भी कहा कि जैसे ही मुस्लिमों की बात होती है, मीडिया दाढ़ी-टोपी वाले व्यक्ति को बुलाकर उनसे बात करना शुरू कर देता था। मीडिया ने भारतीय मुसलमानों की ऐसी छवि बनाने के लिए इस तरह का दुष्प्रचार करने की पूरी कोशिश कि भारतीय मुस्लिम इन्हीं कठमुल्लाओं जैसा है। उसने मुस्लिमों की स्टीरियो टाइप छवि बना दी। प्रोग्रेसिव मुसलमानों को हमेशा मीडिया से बाहर रखने की साज़िश की। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक शाहीन बाग़ की पूरी बागडोर मुस्लिम महिलाओं ने अपने हाथ ही रखा, तो उसने यह दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि ये आंदोलनकारी महिलाएं कठपुतलियां हैं। इनके पीछे कोई और है। ऐसा ही मीडिया ने किसान आंदोलन के वक़्त भी किया। पितृसत्ता का वाहक मीडिया इस बात को स्वीकारने को तैयार ही नहीं था कि इन दो बड़े आंदोलनों की शिल्पकार से लेकर नेतृत्व तक महिलाओं द्वारा किया जा रहा है। इसके साथ ही उन्होंने स्त्रियों को इस बात के लिए भी सावधान किया कि स्त्रियों को स्त्रियों के खिलाफ ही टूल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे हमें सतर्क रहना होगा। उन्होंने कहा कि 2002 गुजरात दंगे के दौरान वह रिपोर्टिंग करने प्रभावित क्षेत्रों में गईं थीं। वहां उन्होंने देखा कि जिस समुदाय के पुरुष दूसरे समुदाय पर जुल्म कर रहे थे, हत्या-बलात्कार कर रहे थे, उन्हीं समुदाय-परिवार की स्त्रियां मौके पर घेरा बनाकर उनका प्रोटेक्शन कर रहीं थी। यह देखना मेरी अपनी ज़िंदगी के सबसे वीभत्स और भयावह अनुभवों में से एक था।

 

अंत में कार्यशाला का समापन करते हुए जलेसं अध्यक्ष चंचल चौहान ने कहा कि लैंगिक भेदभाव के सभी विषयों पर बात हो गई, लेकिन भाषा पर रह गई। तो आप देखेंगे — खासकर उर्दू और हिंदी भाषा की बात करें, तो यहां भी नाबराबरी है। बड़े के लिए पुल्लिंग और छोटे के लिए स्त्रीलिंग का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है। जैसे नाला-नाली, पहाड़-पहाड़ी आदि। मुझे तो नहीं लगता, मगर भाषा की यह नाबराबरी भी हमें दूर करनी होगी। कार्यशाला में भाग लेने आए प्रतिभागियों की तरफ उन्होंने यह प्रश्न उछालते हुए कहा कि यह आप देखिए। कैसे हम भाषा की नाबराबरी को ठीक कर सकते हैं? मुझे तो कोई उम्मीद नजर नहीं आती।

 

कार्यशाला का पूरा सत्र अंतर्संवादी था। हर सत्र के अंत में प्रतिभागियों ने आमंत्रित वक्ताओं से खुलकर प्रश्न पूछे, जिससे इस विषय के कई और आयाम खुलकर सामने आए। इस कार्यशाला में दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जेएनयू और अंबेडकर विश्वविद्यालय के बहुत से विद्यार्थी, शोधार्थी और शिक्षक उपस्थित थे।

Related Articles

Back to top button