बिहार में सियासी पलटवार नई पट कथा *बिहार में बड़ा राजनीतिक दाव -महागठबन्धन के लिए चाणक्य बने – अशोक गहलोत* ✍️ विनोद कुमार सिंह,स्वतंत्र पत्रकार व स्तम्भकार

बिहार में सियासी पलटवार नई पट कथा *बिहार में बड़ा राजनीतिक दाव -महागठबन्धन के लिए चाणक्य बने – अशोक गहलोत* ✍️ विनोद कुमार सिंह,स्वतंत्र पत्रकार व स्तम्भकार

बिहार की राजनीति एक बार फिर अपने निर्णायक मोड़ पर है।विधान सभा चुनाव 2025 से ठीक पहले कांग्रेसऔर आरजेडी ने ऐसा दांव चला है जिसने एनडीए की रणनीति को झकझोर दिया है।पटना में आयोजित संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घोषणा की कि यदि महागठबंधन को बहुमत मिला तो तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री और वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी उपमुख्यमंत्री होंगे।यह घोषणा केवल नाम तय करने की औपचारिकता नहीं थी -यह बिहार की सामाजिक और जातीय राजनीति की गहरी समझ और कांग्रेस की व्यावहारिक मजबूरी का प्रतीक है।बिहार चुनावों में “चाणक्य” शब्द हमेशा गूंजता रहा है – कूटनीति, बुद्धि और रणनीति के प्रतीक के रूप में।कभी अमित शाह को भाजपा का चाणक्य कहा गया, तो कभी प्रशांत किशोर को चुनावी रणनीति का मास्टरमाइंड बताया गया,लैकिन इस बार मैदान में उतरे हैं अशोक गहलोत,जिन्होंने कांग्रेस और आरजेडी के बीच महीनों से चल रहे मतभेद को सुलझाकर महा गठबंधन को एक सूत्र में बांधा। उन्होंने वह कर दिखाया जो बिहार कांग्रेस के स्थानीय नेता नहीं कर पा रहे थे – संचार की डोर को फिर से जोड़ना।गहलोत ने कांग्रेस हाईकमान को यह समझाया कि बिहार में आरजेडी के बिना कांग्रेस का अस्तित्व टिकना मुश्किल है।2020 के चुनाव में कांग्रेस ने अकेले मैदान में उतरकर जो राजनीतिक क्षति उठाई,वह अब दोहराई नहीं जा सकती। उन्होंने महागठबंधन को पुनर्जीवित कर,तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर सहमति दिलवाई।इस तरह गहलोत ने खुद को “कांग्रेस के चाणक्य” के रूप में स्थापित किया, जिन्होंने बिहार की उलझी हुई समीकरणों में नया जीवन फूंका।
जातीय गणित और सामाजिक इंजीनियरिंग का नया फॉर्मूला
बिहार की राजनीति का मूल डीएनए “जाति” है।यहां बिना सामाजिक समीकरण साधे कोई भी दल सत्ता की दहलीज नहीं छू सकता। महागठबंधन की नई रणनीति भी इसी यथार्थ पर आधारित है।
राजनीतिक गणना कहती है कि यहाँ यादव लगभग 14%,मुसलमान 18%, मल्लाह समुदाय लगभग 6%, और अति पिछड़ा वर्ग लगभग 20% हैं।महागठबंधन ने यादव-मुस्लिम समीकरण को तेजस्वी के माध्यम से और अति पिछड़ों–मल्लाहों को मुकेश सहनी के सहारे साधने का प्रयास किया है।यह वही सामाजिक फॉर्मूला है जिसने 2015 में महा गठबंधन को ऐतिहासिक विजय दिलाई थी।फर्क सिर्फ इतना है कि तब नीतीश कुमार चेहरे थे, और आज तेजस्वी यादव अपने युवा जोश और सामाजिक जुड़ाव के साथ इस भूमिका में हैं।कांग्रेस बिहार में अपने सियासी अस्तित्व की जंग लड़ रही है। राहुल गांधी की “वोटर अधिकार यात्रा” ने संगठन में नई ऊर्जा भरी थी,लेकिन प्रदेश नेतृत्व की अंतर्कलह ने समीकरण बिगाड़ दिए।कृष्णा अल्लावरू,राजेश राम और अन्य नेताओं ने यह तर्क दिया कि तेजस्वी के नाम पर गैर–यादव ओबीसी और सवर्ण वोटर दूर हो सकते हैं।परंतु गहलोत ने तर्कों के उलझे जाल को काटते हुए स्पष्ट किया >“तेजस्वी ही वह चेहरा हैं जिनके बिना महागठबंधन एकजुट नहीं हो सकता।”गहलोत की इस रणनीति ने कांग्रेस को दो लाभ दिए –

1. आरजेडी के साथ फिर से गठजोड़ मजबूत हुआ।
2. महागठबंधन के अन्य घटक दल -सीपीआई,सीपीएम, माले और वीआईपी -कांग्रेस के साथ खड़े हुए एनडीए पर राजनीतिक प्रभाव
अब सवाल यह है कि इस घोषणा का प्रभाव क्या होगा? सर्वविदित रहे किबिहार की राजनीति में एनडीए (भाजपा-जेडीयू गठबंधन)के लिए यह चुनौतीपूर्ण मोड़ है।एनडीए की नींव जातीय संतुलन, विकास व सुशासन के वादे पर टिकी है, .परंतु नीतीश कुमार के नेतृत्व में थकान और भाजपा के भीतर असंतोष की झलक दिख रही है।तेजस्वी को सीएम चेहरा घोषित करने के साथ ही महागठबंधन ने चुनावी विमर्श को “विकास बनाम सामाजिक न्याय” से हटाकर “युवा नेतृत्व बनाम थकी हुई सत्ता” के रूप में बदल दिया है।
युवाओं और अल्पसंख्यकों में तेजस्वी की पकड़,तथा अति पिछड़ों में मुकेश सहनी की पहचान यह एनडीए की “डबल इंजन” नीति पर भारी पड़ सकती है।भाजपा अब तक नीतीश कुमार की विश्वसनीयता पर सवार रही,परंतु इस बार गहलोत –तेजस्वी की जोड़ी ने सामाजिक समीकरणों को नई दिशा दे दी है।
बिहार का पूर्वी–दक्षिणी क्षेत्र (सीवान, सारण,गोपालगंज, दरभंगा,मधुबनी) यादव–मुस्लिम बहुल है, जहाँ महागठबंधन की मजबूत पकड़ रही है।वहीं कोशी– मिथिलांचल और सीमांचल में अल्पसंख्यक वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं।मुकेश सहनी का प्रभाव उत्तर बिहार के नदी–तटीय मल्लाह और निषाद समुदायों में गहराई तक है।गहलोत की नई रणनीति इन भौगोलिक और जातीय क्षेत्रों को जोड़ने का एक राजनीतिक मानचित्र तैयार करती है – जो बिहार की आर्थिक असमानता और ग्रामीण असंतोष को भी संबोधित करता है।
बदलती राजनीति का संकेत
अशोक गहलोत का यह कदम केवल चुनावी घोषणा नहीं,बल्कि कांग्रेस के “राष्ट्र स्तर पर गठबंधन पुनर्गठन” का संकेत भी है।
जहाँ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने बसपा से दूरी बनाकर अकेले चलने की राह पकड़ी,वहीं बिहार में उसने गठबंधन की ताकत को समझते हुए यथार्थ वादी दृष्टिकोण अपनाया है।
तेजस्वी को “युवा नेतृत्व” के रूप में पेश कर कांग्रेस ने बिहार की राजनीति को नया विमर्श दिया है —
अब यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि राजनीतिक सोच के पुनर्जागरण की लड़ाई बन गया है।
अशोक गहलोत के कुशल मध्यस्थता ने कांग्रेस और आरजेडी को एक मंच पर ला खड़ा किया।
तेजस्वी यादव अब महागठबंधन के सर्वमान्य नेता हैं,जबकि मुकेश सहनी सामाजिक समावेशन के प्रतीक बनकर उभरे हैं।बिहार की जातीय राजनीति में यह एक नया सामाजिक गठजोड़(Yadav– Muslim–EBC–Dalit formula)है जो एनडीए के पारंपरिक समीकरणों को चुनौती देता है।2025 का चुनाव अब केवल वोटों की लड़ाई नहीं,बल्कि रणनीति, जातीय समीकरण और नेतृत्व के करिश्मे की अग्निपरीक्षा बनेगा।


गहलोत ने महागठबंधन को नई दिशा देकर खुद को सचमुच “राजनीति का आधुनिक चाणक्य” सिद्ध कर दिया है।ऐसे में बिहार की सियासत एक बार फिर देश की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन गई है।

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