नागरिक परिक्रमा (संजय पराते की राजनैतिक टिप्पणियां)
नागरिक परिक्रमा
(संजय पराते की राजनैतिक टिप्पणियां)

जे टी न्यूज़
1. आरएसएस : देशभक्ति के नाम पर गुदा मर्दन
केरल के कोट्टयम में रहने वाले आनंदु अजी की रीयल लाइफ स्टोरी अब सबको पता है। यह वह प्रतिभावान शख्स था, जो पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर था और जिसने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली थी। 26 साल के इस नौजवान का शव तिरुवनंतपुरम के थंबानूर के एक लॉज में मिला था। उसने अपना सुसाइड नोट इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया है और अपनी मौत के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को जिम्मेदार ठहराया है।
अब सोशल मीडिया उजागर करने का सशक्त माध्यम बन गया है। कॉर्पोरेट मीडिया और गोदी मीडिया चाहकर भी उन चीजों और तथ्यों को छुपा नहीं पाते, जो उनके लिए असुविधाजनक है या जिसे वे बड़ी कुटिलता से दबा देना चाहते हैं। अब किसी खबर पर कुछ अखबारों के संपादक प्रतिक्रिया नहीं करते, उनकी प्रतिक्रिया से पहले ही लाखों सोशल मीडिया पर मौजूद लाखों पाठक खबर की चीरफाड़ करके अपना संपादकीय कर्तव्य पूरा कर चुके होते हैं। यदि सोशल मीडिया न होता, तो आनंदु अजी का सुसाइड लेटर पुलिस के पास ही दबकर दम तोड़ देता, लेकिन यह सोशल मीडिया है, जिसने आनंदु अजी की पीड़ादायक कहानी को घर-घर की कहानी बना दिया है, क्योंकि आज आरएसएस और उसके लठैतों की पहुंच देश के हर घर में बन चुकी है।
आरएसएस यौन शोषण करने वाली संस्था है, यह बात एक स्थापित तथ्य है और आनंदु अजी एक खत्म न होने वाले सिलसिले की एक नई कड़ी, एक नई कहानी और एक नया शिकार भी है। जिन्होंने भी आरएसएस की संगत की है, उन सबके पास इसका अनुभव है। जो यौन उत्पीड़क होते हैं, वे मजेदार ढंग से और चटखारे लेकर इन कहानियों को बखानते हैं और जो उत्पीड़ित होते हैं, वे शर्म से पूरी जिंदगी जिल्लत झेलते हैं। अधिकांश चुप ही रहे हैं, लेकिन कुछ ने अपने मुंह भी खोले हैं। जिन्होंने भी मुंह खोले हैं, गंदगी का परनाला आरएसएस की ओर ही बहा है।

आनंदु अजी ने बचपन से जवानी तक जिल्लत झेली, ऑब्सेसिव-कंपल्सिव डिसऑर्डर नामक बीमारी का शिकार हुआ, जो यौन शोषण के कारण होती है और आखिर में अपना शोषण बर्दाश्त न कर पाने के कारण अपनी ईहलीला समाप्त कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट में बताया है कि किस प्रकार आरएसएस के शिविरों में उसका बचपन से लेकर अब तक यौन शोषण किया जाता रहा है। आनंदु ने लिखा है कि उसके माता पिता ने बचपन में ही उसे संघ की शाखा में डाल दिया था। यहां पड़ोसी एनएम ने तीन साल की उम्र में उसका शोषण किया था। जब भी वह कैंप में जाता, उसका शोषण किया जाता था। इसके साथ ही डंडों से कई बार उसे पीटा भी गया। अपने पत्र में आनंदु ने सभी लोगों को सलाह दी है कि आरएसएस वालों से दोस्ती न करें और अपने पिता, भाई या बेटा को भी इससे दूर रखें। सुसाइड नोट को किसी व्यक्ति का मृत्यु-पूर्व विधिक बयान माना जाता है, जिसके आधार पर आरोपियों पर कानूनी कार्रवाई संस्थित की जाती है।
तो इस मामले में आरोपी कौन है? निश्चित रूप से वह पड़ोसी एनएम, जिसका जिक्र आनंदु ने अपने पत्र में किया है और जिसकी पहचान कर ली गई है और वह संस्था आरएसएस, जिस पर विश्वास करके आनंदु के माता-पिता ने अपने बच्चे को इसके शिविरों में भेजा और निश्चित ही मोहन भागवत भी, जो इस संस्था के इस समय प्रमुख हैं। इतनी बड़ी घटना पर न तो भागवत ने मुंह खोला है, जो अपने संगठन को इस देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन बताते हैं, और न ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, जिन्होंने पिछले दिनों ही आरएसएस की कथित देशभक्ति का यशोगान किया था। इन दोनों की आपराधिक चुप्पी यह बताती है कि आरएसएस ब्रांड की पूरी दाल ही काली है और उन पर मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त रूप से प्रथम दृष्टया साक्ष्य मौजूद है। आरएसएस प्रमुख होने के नाते भागवत अपने संगठन के अंदर चलने वाली आपराधिक गतिविधियों की जिम्मेदारी लेने से इंकार नहीं कर सकते।
आरएसएस जब-तब इस देश के नागरिकों को देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने का काम करती रहती है। जब इस देश में तमाम संस्थाओं को पंजीकृत करने के निर्देश दिए जा रहे हैं और जिसके बिना, बैंक उनके खाते खोलने से इंकार कर रही है, आरएसएस आज भी एक ऐसी अपंजीकृत संस्था है, जिसका कोई संविधान और नियमावली नहीं है और न ही सरकार का इस पर कोई नियंत्रण है। उसके हर साल के हजारों करोड़ रुपयों के हिसाब-किताब, आय-व्यय में कोई पारदर्शिता नहीं हैं। सभी जानते हैं कि संघी गिरोह विदेशों से हर साल भारी मात्रा में धन जुटाता है। इस पर इसकी कारगुज़ारियों के लिए अतीत में स्वतंत्र भारत में कई बार प्रतिबंध लगे हैं, लेकिन आज इसने एक ऐसी गैर-संविधानेत्तर संस्था का रूप अख्तियार कर लिया है, जो पिछले दरवाजे से केंद्र सरकार चला रही है। भाजपा तो मुखौटा है, असली चेहरा तो आरएसएस ही है। इसलिए भाजपा आरएसएस का यशोगान कर सकती है, उसके खिलाफ कार्यवाही नहीं।
आनंदु अजी के मामले में आरएसएस की जो छीछालेदारी हुई है, उसे दबाने के लिए अब पूरे देश में ‘आई लव आरएसएस’ अभियान चलाया जा रहा है। जिस आरएसएस को लव से इतना हेट है कि हर साल वेलेंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ों पर वह अपनी गुंडा फौज को छुट्टा छोड़ देती है, वही आज ‘आई लव आरएसएस’ अभियान चलाने के लिए बाध्य है और इसकी शुरुआत कर्नाटक से हो चुकी है। आरएसएस में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, इसलिए यौन शोषण गुदा मर्दन के रूप में ही होता है। इसके पहले कि यह संस्था पूरे देश का गुदा-मर्दन करें, हम सभी को सचेत हो जाना चाहिए, दिवंगत आनंदु अजी की नेक सलाह मान लेनी चाहिए, कम से कम उसे श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए ही सही और हमारे अपने भविष्य को आत्महत्या से बचाने के लिए भी।
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2. और अब सावरकर पर उर्दू में किताब!
इतिहास का एक स्थापित तथ्य यह है कि आरएसएस ने कभी भी स्वतंत्रता के संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया, इसलिए उसके कहने को भी कोई स्वाधीनता संग्राम सेनानी नहीं है। हां, इस दौरान उसकी अंग्रेजी भक्ति और स्वाधीनता सेनानियों के खिलाफ मुखबिरी के सैकड़ों ऐतिहासिक तथ्य जरूर उजागर हैं।
आज आरएसएस अपने आपको स्वाधीनता संघर्ष का योद्धा दिखाने के फेर में तरह-तरह के करतबों में जुटी नजर आती है, ताकि आम जनता की नजरों में वैधता प्राप्त कर सके। लेकिन इस मामले में घुमा-फिराकर उनके पास एक ही व्यक्ति है सावरकर, जिसे वे हर तरह के जुए में जोतने की कोशिश में लगे रहते हैं। लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ सावरकर की लड़ाई भी उसी समय तक जारी रहती है, जब तक वे कांग्रेसी थे और जब तक एक माफीवीर पेंशनयाफ्ता हिंदू महासभाई के रूप में उनका पदार्पण नहीं होता। आजादी के बाद फिर उनका नाम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या में शामिल एक संदिग्ध व्यक्ति के तौर पर ही उछलता है। उनका पूरा जीवन हिंदुत्व की नफ़रती विचारधारा को ही पालने-पोसने में गुजर गया।
नेशनल कौंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज शिक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली एक संस्था है, जिसे उर्दू परिषद के नाम से भी जाना जाता है। संघी गिरोह की उर्दू से हिकारत किसी से छुपी हुई नहीं है और वे इस खूबसूरत और प्यारी भाषा को, जिसका जन्म हमारे देश की मिट्टी में ही हुआ है, को मुल्ला-मौलवी और आतंकवाद पैदा करने वाली भाषा ही मानते हैं। इस परिषद ने, जिस पर केंद्र सरकार का पूरा प्रशासनिक नियंत्रण है, ने हाल ही में सावरकर पर लिखी पुस्तक का उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया है। इस पुस्तक के विमोचन समारोह में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने दावा किया है कि यदि सावरकर के बताए मार्ग पर चला जाता, तो भारत को संभावित विभाजन से बचाया जा सकता था। यह इतिहास का विकृतिकरण और मिथ्याकरण करना है, क्योंकि भारत विभाजन की वैचारिक नींव रखने वालों में, वास्तव में, सावरकर का नाम ही प्रमुखता से सामने आता है। बाद में, सावरकर के इस विचार को मुस्लिम लीग ने आगे बढ़ाया।
मूल किताब 2021 में सामने आई थी, जिसका नाम था — वीर सावरकर : द मैन हू कुड हैव प्रीवेन्टेड पार्टिशन। इसके लेखक उदय माहुरकर और चिरायु पंडित हैं। इसी पुस्तक का उर्दू अनुवाद जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति प्रोफेसर मज़हर आसिफ ने किया है, जिसका विमोचन पिछले दिनों प्राइम मिनिस्टर म्यूजियम में किया गया था। इसके बावजूद कि पूरी किताब में सावरकर की हिन्दुत्व की विचारधारा का बचाव किया गया है, विमोचन समारोह में माहुरकर ने दावा किया कि सावरकर मुस्लिमों समेत सभी सामाजिक वर्गों की भागीदारी को देश के सर्वांगीण विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानते थे और वे भारत विभाजन के सख्त विरोधी थे। उन्होंने यह भी दावा किया कि पुस्तक “एक खास विचारधारा द्वारा फैलाई गलत धारणाओं” का खंडन करती है। सभी समझ सकते हैं कि यह खास विचारधारा कौन-सी है, जिसका किताब में खंडन किया गया है। यह खास विचारधारा वामपंथी विचारधारा है, जिसके खिलाफ वे हवा में तलवार भांज रहे हैं। उल्लेखनीय है कि माहुरकर भारत सरकार के सूचना आयुक्त हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि भारत सरकार को सही सूचनाएं देने के बजाए उन्होंने आम जनता के बीच वैचारिक भ्रम और कुहासा फैलाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी ओढ़ ली है। सावरकर के बारे में जो ऐतिहासिक तथ्य हैं, वे दस्तावेजी हैं और वामपंथ ने उसे अपनी कल्पना से गढ़ा नहीं है।

दरअसल, संघी गिरोह को वैज्ञानिकता से, तथ्यों से और ऐतिहासिक सच्चाई से हमेशा से ही परहेज रहा है। आज भाजपा सरकार अपनी सत्ता के ताकत के सहारे सावरकर को लेकर एक नया नैरेटिव गढ़ने की कोशिश कर रही है, जो ऐतिहासिक प्रमाणों के उलट है। इतिहास यही है कि मुस्लिम लीग ने 1940 में द्विराष्ट्र के सिद्धांत को अपनाया था, जबकि सावरकर ने 1937 में ही हिंदू महासभा के समावेश में भाषण देते हुए ने कहा था : “देश में दो राष्ट्र हैं हिंदू और मुस्लिम।” इस प्रकार, मुस्लिम लीग तो केवल हिंदू महासभा की नकल करके बढ़त लेने की कोशिश कर रही थी। इतिहास की सच्चाई यही है कि आजादी के बाद जब सरदार वल्लभभाई पटेल देशी रियासतों को भारत में मिलाने का अभियान चला रहे थे, उस समय त्रावणकोर के दीवान सीपी रामासामी ने भारत से स्वतंत्र होने की घोषणा की थी और सावरकर ने इसका समर्थन किया था, ताकि एक धर्मनिरपेक्ष भारत के गठन को मात दी जा सके। संघी गिरोह स्वाधीन भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का सपना पाले हुए थे और उन्होंने धर्मनिरपेक्ष भारत की स्थापना का पुरजोर विरोध किया था। इसी विरोध का एक दुष्परिणाम था, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या, जिसकी जिम्मेदारी के प्रति सावरकर और हिंदू महासभा हमेशा संदिग्ध रहे हैं।
ऐसे विवादास्पद राजनीतिक हस्तियों पर कोई किताब प्रकाशित करने का उर्दू परिषद का इससे पहले कभी कोई इतिहास नहीं रहा है। लेकिन यदि अब ऐसा हो रहा है, तो साफ है कि उर्दू परिषद जैसी साहित्यिक संस्था का भी अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा दुरूपयोग कर रही है। उर्दू परिषद की स्वायत्तता का हरण आज का सबसे बड़ा समाचार है।
(टिप्पणीकार अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
 


