उस बारिश में तुम…
उस बारिश में तुम…
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बारिश की सम्भावना है…
बादल धीरे-धीरे
मन के भीतर तक छा रहे हैं,
जैसे कोई पुरानी याद
धीरे से पलकों पर आ टिके।
लेकिन मुझे यकीन है —
आज तुम ज़रूर बाहर निकलोगे,
बारिश में, भीगने के लिए।
तुम खुले आसमान के तले ,
पत्तों से गिरती बूँदों के बीच
बचपन की तरह उछलोगे,
हर बूँद से खेलते,
हर छींट में हँसते हुए।
मैं यहाँ,
इस कमरे की खिड़की से
तुम्हें देखती रहूँगी —
बिना कुछ कहे,
बिना कोई आवाज़ दिए,
सिर्फ़ तुम्हारे मुस्कुराते साये को
आँखों में भरते हुए।
मैं बालकनी में
आँचल फैलाऊँगी,
जैसे कोई प्रेम-पत्र
खुले आकाश को सौंप रही होऊँ —

एक खामोश इज़हार,
बिना शब्दों वाला संवाद।
तुम्हारी ओर उठी मेरी हथेलियाँ
बारिश की बूँदें नहीं,
तुम्हारे लौट आने की आहटें समेटेंगी।
हर बूँद में मैं तुम्हारे नाम का स्पर्श ढूँढूँगी,
और हर हवा के झोंके में
तुम्हारी साँसों की गर्मी।
जब तुम बारिश में
भीगते हुए मुस्कुराओगे,
तब मेरी पलकों से
किसी कविता की तरह
कुछ टपक जाएगा —
शब्द, अश्रु, या कोई स्मृति।
तुम्हारी बाहों में नहीं,
पर तुम्हारी कल्पना में
मैं उस भीगती दोपहर की धूप
बनकर रह जाऊँगी —
हल्की, सहेजने योग्य,
जैसे मन के भीगते कोनों में
धूप की चुपचाप उपस्थिति।
तुम्हारे स्पर्श की नमी
कभी किसी अलमारी के कोने से
पुराने खतों की तहों में झाँकेगी,
और मेरा दिल
उन शब्दों की भीनी महक से भर उठेगा।
और जब तुम लौटोगे —
भीगे हुए, थके हुए —
तब मैं तौलिया नहीं लाऊँगी।
मैं तुम्हारी आँखों की नमी
अपनी चुप्पी से पोंछ दूँगी,
जैसे कोई प्रार्थना
कभी-कभी उत्तर बनकर लौटती है।

बारिश होने की सम्भावना है…
पर सच्ची बारिश तो तुम हो —
जो हर मौसम में,
हर ख़ामोशी में,
हर अधूरे वाक्य में
मेरे भीतर बरसते हो।
डॉ जसप्रीत फ़लक
लुधियाना (पंजाब)

