*जाति और अदालत : न्यायिक चर्चा और अधूरा संवैधानिक वादा*

*जाति और अदालत : न्यायिक चर्चा और अधूरा संवैधानिक वादा*
*(आलेख : आर्या सुरेश, अनुवादक : संजय पराते)*/जे टी न्यूज़

सुप्रीम कोर्ट के रिसर्च और प्लानिंग सेंटर (सीआरपी — शोध और योजना केंद्र) ने एक ज़रूरी दस्तावेज जारी किया है – जाति के बारे में न्यायिक अवधारणा पर रिपोर्ट (2025) — जिसमें यह जांच की गई है कि भारत की सबसे बड़ी अदालत ने ऐतिहासिक रूप से जाति को कैसे समझा है। हालांकि यह रिपोर्ट संस्थागत तौर पर खुद को समझने की एक कोशिश के तौर पर बनाई गई है, लेकिन इसे ध्यान से पढ़ने पर कुछ ज़्यादा महत्वपूर्ण बात सामने आती है : संविधान के बदलाव लाने वाले, बराबरी वाले मकसद और सामाजिक व्यवस्था में ऊंची जाति के गहरे पैठे नज़रिए के बीच न्यायपालिका के अंदर दशकों से चली आ रही एक वैचारिक लड़ाई।

यह रिपोर्ट संविधान पीठ के फ़ैसलों का व्यवस्थित तरीके से विश्लेषण करते हुए यह दिखाती है कि न्याय की ओर निरंतरता में विधिशास्त्रीय यात्रा नहीं हुई है, बल्कि यह एक विभाजित और अक्सर अथर्विरोधी बहस है, जहाँ प्रगतिशील, रूपांतरकारी घोषणाएं प्रतिगामी, पितृसत्तात्मक और सामाजिक रूप से रूढ़िवादी सोच के साथ टकराती हैं।

इस न्यायिक रिकॉर्ड का गहन विश्लेषण ज़रूरी है। कानून और उसकी भाषा तटस्थ नहीं हैं ; वे वैचारिक संघर्ष के ऐसे मैदान हैं, जो मौजूदा शक्ति संबंधों को दिखाते हैं और उन्हें मज़बूत करते हैं। हालांकि भारतीय न्यायपालिका ने, कुछ मौकों पर, वास्तविक समानता का एक मज़बूत दृष्टिकोण पेश किया है और जाति को वंशानुगत उत्पीड़न की एक संरचना के रूप में पहचाना है, लेकिन उसकी चर्चा लगातार उदार औपचारिकतावाद, ब्राह्मणवादी व्याख्या और मूलगामी पुनर्वितरण को मंज़ूरी देने में बुर्जुआ हिचकिचाहट से घिरी हुई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ऐसे विधि शास्त्र का निर्माण हुआ है, जो अक्सर उन्हीं ऊँच-नीच को सही ठहराता है, जिन्हें वह खत्म करने का दावा करता है और यह संविधान की समानतावादी भावना के खिलाफ जाता है।

अंबेडकर खुद भी संविधान की सीमाओं और जाति को खत्म करने के लिए इसके नाकाफी हथियार होने के बारे में जानते थे। 25 नवंबर, 1949 को संविधान को अपनाने के मौके पर अपने मशहूर भाषण में उन्होंने कहा था: “भारत में जातियां हैं। जातियों की धारणा राष्ट्र-विरोधी हैं। सबसे पहले तो इसलिए, क्योंकि ये सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं। ये इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी हैं, क्योंकि ये जाति और जाति के बीच जलन और नफरत पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम सचमुच में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें इन सभी कठिनाईयों पर काबू पाना होगा। जहां राष्ट्र हों, वहीं भाईचारा एक सच्चाई बन सकता है। भाईचारे के बिना समानता और आज़ादी सिर्फ़ रंग रोगन जैसा होगा।”

कॉमरेड बी टी रणदिवे के अनुसार, ये कमजोरियां इसलिए भी थीं, क्योंकि आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व जिस राष्ट्रीय बुर्जुआ के हाथों में थी, वह समस्या की जड़ तक जाने और उसे खत्म करने में दिलचस्पी नहीं रखता था।

सीआरपी रिपोर्ट सही तरीके से यह बताती है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं जाति को कैसे समझता है, इसमें एक बुनियादी विरोधाभास है। यह विरोधाभास सिर्फ़ अकादमिक नहीं है ; इसका सीधा असर उन सुधारों पर पड़ता है, जिनकी इजाज़त संविधान देता है।

एक तरफ, न्यायशास्त्र की एक मज़बूत धारा है, जो जाति को एक ठोस, शोषणकारी ढाँचे के रूप में पहचानती है। चिन्नप्पा रेड्डी (वसंत कुमार, 1985), रत्नवेल पांडियन और बी.पी. जीवन रेड्डी (इंद्रा साहनी, 1992) जैसे न्यायविदों ने जाति-पेशा-गरीबी के चक्र और सामाजिक पहचान के अटूट बंधन को विस्तार से बताया, और उन्होंने जोर दिया कि एक आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में जाति श्रेणीबद्ध असमानता का एक रूप है। यह विचार जस्टिस चंद्रचूड़ के सबरीमाला फैसले (2018) में इस ज़ोरदार बात के साथ खत्म होता है कि पवित्रता और अपवित्रता की धारणाओं की, जो जाति का मूल हैं, “संवैधानिक व्यवस्था में कोई जगह नहीं हो सकती।” जाति को उत्पादन और शक्ति के एक सामाजिक संबंध के रूप में देखने की जरूरत है और इसे संरचनात्मक रूप से खत्म करने की ज़रूरत है।

दूसरी ओर, अदालत ने जाति के एक आदर्शवादी और साफ-सुथरे संस्करण को बार-बार मान्यता दी है और उसे सही ठहराया है। जाति के अच्छे मूल के बारे में यह बात कहना कि जाति सिर्फ सक्रियता और पेशे के आधार पर एक विभाजन है, जो बाद में विकृत हो गया (जैसा कि बालाजी, 1963 में हुआ), न केवल एक ऐतिहासिक गलती है, बल्कि एक वैचारिक गलती भी है। यह एक आलोचनात्मक कृत्य को प्रदर्शित करता है : यह ऊँच-नीच के लिए धार्मिक मंज़ूरी के साथ वर्णवादी विचारधारा, और जाति के ठोस और हिंसक व्यवहार के बीच के संबंध को जोड़ता है। एक शुद्ध, पेशे वाले अतीत से गिरावट की बात कहना ब्राह्मणवाद (मनुस्मृति, पुरुषसूक्त) की दार्शनिक और धार्मिक बुनियाद को दोष से बरी करना है। इसी तरह, जाति को एक स्वायत्त संगठन (गुंटूर मेडिकल कॉलेज, 1976), एक स्व-शासित सामाजिक समूह के रूप में बताना, इसकी जोर-ज़बरदस्ती वाले, वंशानुगत और बहिष्करण की प्रकृति को छिपाता है, और इसे जबरन अधीनता के बजाय स्वैच्छिक सांस्कृतिक व्यवहार का मामला बना ता है।

इस दोहरेपन के ठोस असर होते हैं। मुसलमानों, ईसाईयों और सिखों में जातियों के बने रहने के ज़बरदस्त सबूतों के बावजूद, जाति को सभी धर्मों में फैली एक सामाजिक सच्चाई के तौर पर पूरी तरह से मानने में हिचकिचाहट (जो इंद्रा साहनी केस में कुलदीप सिंह के अलग, मतभेद फैसले में साफ़ दिखती है), जाति को सिर्फ़ एक हिंदू समस्या के तौर पर सीमित रखने की इच्छा दिखाती है। यह न केवल दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के रोज़मर्रा के जीवंत अनुभव को नज़रअंदाज़ करता है, बल्कि राज्य को गैर-हिंदू समुदायों में जातिगत उत्पीड़न को खत्म करने की ज़िम्मेदारी से भी बचाता है, न कि सिर्फ़ इसके हिंदू धार्मिक औचित्य को। यह रुख इस प्रथा को खत्म करने के संवैधानिक आदेश का उल्लंघन है।

अनुसूचित जाति और जनजाति की व्याख्या करने के लिए इस्तेमाल की गई भाषा अदालत की अंदरूनी सोच का एक साफ़ संकेत है। सीआरपी की रिपोर्ट में बहुत ज़्यादा समस्यापूर्ण रूपकों पर गहराई से ध्यान दिया गया है : दौड़ के घोड़े और विकलांग वाली तुलना (देवदासन, 1964), वो बैसाखियाँ, जो ज़िंदगी भर नहीं दी जा सकतीं (इंद्रा साहनी, 1992) और आदिवासी जीवन को मुख्यधारा के लिए पिछड़ा और अयोग्य दिखाना (चेब्रोल्लू लीला प्रसाद, 2020)। यह सोच सिर्फ़ पुरानी ही नहीं है ; यह संरचनात्मक रूप से पितृसत्तात्मकता पर आधारित है और दोषपूर्ण है।

ऐसी भाषा प्रतिगामी लक्ष्यों को पूरा करती है। सदियों की व्यवस्थित हिंसा और भेदभाव को एक कमी के रूप में दिखाना, एक ऐतिहासिक और सामाजिक गलती को एक व्यक्तिगत कमी में बदल देता है। फिर इसका समाधान सुधारवादी न्याय के बजाय धर्मार्थ परोपकार (बैसाखी) के रूप में दिखता है।

घोड़ों की दौड़ वाला रूपक यह मानकर चलता है कि प्रथम-श्रेणी दौड़ का घोड़ा (ऊंची जाति) स्वाभाविक रूप से बेहतर होता है। आम घोड़ा (दलित) स्वाभाविक रूप से धीमा होता है, जिसे आगे बढ़ने के लिए शुरूआती बढ़त की ज़रूरत होती है। यह जाति पदानुक्रम को स्वाभाविक बनाता है और जन्मजात क्षमता के जैविक या सांस्कृतिक सिद्धांत को चुपके से शामिल करता है। आदिवासी समाजों को पिछड़ा और राष्ट्रीय विकास में योगदान देने के लिए उसके उत्थान की ज़रूरत बताना औपनिवेशिक और आत्मसात करने वाली सोच की प्रतिध्वनि है।

इसकी तुलना जस्टिस चिनप्पा रेड्डी (वसंत कुमार) जैसे लोगों के फेसले में इस्तेमाल की गई दमदार, गरिमा-भरी भाषा से करें, जिसमें कहा गया था कि दबे-कुचले लोगों की मांगें “अधिकार की बात हैं, दान की नहीं… वे बराबरी मांगते हैं, भीख नहीं।” या जस्टिस चंद्रचूड़ (सबरीमाला) द्वारा बताई गई उन अत्याचारों की बेबाक सूची से करें, जो इंसानियत को नकारने वाली एक व्यवस्था के तौर पर जाति को सामने लाते हैं। यह दूसरा नज़रिया संविधान की बदलाव लाने वाली भावना से मेल खाता है, जो दबी-कुचली जातियों को दया का पात्र नहीं, बल्कि इतिहास का हिस्सा और अटूट अधिकारों का हकदार मानता है।

इस गलत सोच का सबसे खतरनाक रूप कुशलता और योग्यता पर होने वाली बातचीत में दिखता है। शुरुआती फैसलों में खुले तौर पर यह चिंता जताई गई थी कि आरक्षण से मानकों में गिरावट आएगी (देवदासन), या सरकार का काम ठप हो जाएगा (एन.एम. थॉमस, 1976)। यह कुशलता को एक निरपेक्ष, तकनीकी मूल्य के रूप में दिखाता है, जिसे दलितों और आदिवासियों को शामिल करने से खतरा है। बाद के फैसले, जैसे कि इंदिरा साहनी और एम. नागराज (2006) ने यह मानना शुरू किया कि योग्यता का पैमाना सामाजिक रूप से बनाया गया है और संदर्भों पर निर्भर करता है। बहरहाल, पहले के फैसले एक गहरे बैठे जातिगत भेदभाव को दिखाते है ; उच्च जाति के विशेषाधिकार को योग्यता के साथ मिलाते हैं और सामाजिक न्याय की अवधारणा को इसके विरोध में दिखाते हैं। यह बताता है कि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों (अजा/जजा/ओबीसी को छोड़कर) के लिए आरक्षण को सही ठहराने वाले हालिया फैसले में कुशलता के बारे में ऐसी कोई चिंता नहीं जताई गई, जिससे मूल चिंता का जाति-आधारित स्वभाव सामने आता है।

उपचारों पर न्यायपालिका की चर्चा उसके बदलाव लाने की महत्वाकांक्षा की आखिरी सीमा को दिखाती है। यहाँ, एक आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले संवैधानिक आदेश और एक उदार रूढ़िवादी न्यायिक सोच के बीच टकराव सबसे ज़्यादा तेज़ है।

बालाजी (1963) से लेकर अशोक कुमार ठाकुर (2008) तक, न्यायिक सोच में एक लगातार और खतरनाक बात यह रही है कि पिछड़ापन आखिरकार और मुख्य रूप से गरीबी के कारण है। यह जाति की जगह वर्ग को लाने की एक शास्त्रीय उदारवादी चाल है, जो अलग-अलग वर्गीकृत, असमानता की सामाजिक रूप से स्वीकृत पदानुक्रम को एक आर्थिक ढाल में बदल देती है। सीआरपी रिपोर्ट ने सही ढंग से सबूतों के साथ बताया है कि समाजशास्त्र के हिसाब से यह दिवालिया सोच है। जाति पूंजी, क्रेडिट, नेटवर्क और बाज़ारों तक पहुंच तय करती है, जैसा कि दलित उद्यमियों और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं पर हुये अध्ययनों से पता चलता है। संपत्ति जाति के कलंक को खत्म नहीं करती ; एक अमीर दलित भी दलित ही रहता है। जबकि छुआछूत और भेदभाव की प्रथाएं जारी हैं, दलित दूल्हों को घोड़े पर चढ़ने के लिए पीट-पीटकर मार डालने की घटनाएं नियमित अंतराल पर रिपोर्ट की जाती हैं, साथ ही दूसरे तरह के अत्याचार भी होते रहते हैं।

रवींद्रन (अशोक कुमार ठाकुर) जैसे न्यायाधीश यह चिंता जताते हैं कि जाति-आधारित आरक्षण जाति को बढ़ावा देता है और एक विभाजित समाज का निर्माण करता है। यह दृष्टिकोण पूरी तरह से अनैतिहासिक है। उपचारात्मक उद्देश्यों के लिए जाति को मान्यता देने से जाति कायम नहीं रहती ; वह कायम रहती है शादी, पड़ोस, कार्यस्थलों और सामाजिक पारस्परिकता में रोज़ाना के व्यवहार से और ज़मीन, संपत्ति और शैक्षणिक संसाधनों के मूलगामी पुनर्वितरण में राज्य की नाकामी से। यह तर्क देना कि नीतिगत रूप से जाति का नाम लेना बंद करने से वह खत्म हो जाएगी, एक तरह का कानूनी आदर्शवाद है।

यह मानना कि सिर्फ़ शिक्षा से जाति खत्म हो जाएगी (अशोक कुमार ठाकुर), इस बात को नज़रअंदाज़ करता है कि शैक्षणिक संस्थान खुद भी भयानक जातिगत भेदभाव और बहिष्कार की जगहें हैं। यह शायद रिपोर्ट में दर्ज सबसे भोली मान्यताओं में से एक है। रोहित वेमुला से लेकर पायल ताडवी तक, आईआईटी से लेकर मेडिकल कॉलेजों तक, सबूत बहुत ज़्यादा हैं : आधुनिक शिक्षा जाति को खत्म नहीं करती ; यह अक्सर दलित छात्रों के साथ होने वाली दुश्मनी को और बढ़ा देती है।

इसी तरह, बहिष्करण को संबोधित करने के लिए कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) की मांग (जयश्री पाटिल, 2021), हालांकि अच्छी नीयत से की गई है, लेकिन यह संवैधानिक ज़िम्मेदारी को पूंजीवादी परोपकार की मनमर्ज़ी पर छोड़ देती है। यह बहिष्करण को निजी क्षेत्र में बिना किसी भेदभाव के कानूनी रूप से लागू होने वाले अधिकार के बजाय कॉर्पोरेट संवेदनशीलता का मामला बनाती है, एक ऐसा अधिकार जिसे न्यायपालिका अनुच्छेद 15 या 16 के साथ पढ़ने में हिचकिचा रही है। ये तरीके अनिवार्य, न्यायपूर्ण पुनर्वितरण के बजाय स्वैच्छिक और गैर-राजनैतिक समाधानों को बढ़ावा देती हैं।

सीआरपी रिपोर्ट अपनी साफ़-साफ़, अंदरूनी जांच के लिए एक बहुत ज़रूरी दस्तावेज है। बहरहाल, इसकी असली अहमियत इसकी सावधानी भरी, संस्थागत भाषा में नहीं है, बल्कि यह जिस तरह से और ज़्यादा मौलिक आलोचना के लिए गोला-बारूद देती है, उसमें है। यह रिपोर्ट एक ऐसी न्यायपालिका को दिखाती है, जो ज़्यादा से ज़्यादा, जाति के खिलाफ़ लड़ाई में एक अन्तर्विरोधी सहभागी है।

न्यायिक बातचीत, अपने सबसे प्रगतिशील रूप में भी, एक उदारवादी संवैधानिक ढांचे के अंदर काम करती है, जो असमानता पैदा करने वाली संरचनाओं को खत्म करने के बजाय उसका प्रबंधन करना चाहता है। इसके आरक्षण, भेदभाव विरोधी कानून, जैसे औजार ज़रूरी तो हैं, लेकिन काफी नहीं हैं। वे एक व्यवस्था में प्रवेश की सुविधा तो देते हैं, लेकिन व्यवस्था के बुनियादी तर्कों को नहीं बदलते।

तानाशाही हिंदुत्व की राजनीति का उदय, जो जातिगत उत्पीड़न को बहुसंख्यकवादी प्रतीकों से ढंककर एक समरूप हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है, उसे न्यायिक फैसलों में अंदरखाने समर्थन मिलता है, जो जाति को कम करके आंकती हैं, इसकी उत्पत्ति को रोमांटिक बनाती हैं, या इसे एक ऐसी विभाजनकारी पहचान मानती हैं, जिसे पार करने की ज़रूरत है। एक न्यायपालिका, जो अविचल और निर्भीक तरीके से सत्ता की एक क्रूर व्यवस्था के रूप में जाति को पहचानने में नाकाम रहती है, वह उन ताकतों को बढ़ावा देती है, जो दलितों की आवाज़ को दबाना चाहती हैं।

जाति को पूरी तरह से खत्म करने के लिए भूमि के पुनर्वितरण, उत्पादन के संसाधनों पर सामाजिक नियंत्रण और ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक दबदबे को खत्म करने पर आधारित एक मूलगामी राजनैतिक कार्यक्रम ज़रूरी है। माकपा का पार्टी कार्यक्रम जाति व्यवस्था को खत्म करने के संघर्ष को जनवादी क्रांति का एक ज़रूरी हिस्सा मानता है और इसे वर्गीय शोषण के खिलाफ संघर्ष से जोड़ता है। बहुत पहले 1979 में, ई. एम. एस नंबूदरीपाद ने लिखा था, “यह समझना होगा कि भारत का आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आधार पर निर्माण करने के लिए जाति-आधारित हिंदू समाज और उसकी संस्कृति के खिलाफ बिना किसी समझौते के संघर्ष करना होगा। जब तक भारत की ‘सदियों पुरानी’ सभ्यता और संस्कृति का गढ़, समाज का जातियों के पदानुक्रम में बँटवारा – खत्म नहीं हो जाता, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र सवाल ही नहीं उठता, समाजवाद की तो बात ही छोड़िए। दूसरे शब्दों में, मूलगामी लोकतंत्र और समाजवाद के लिए संघर्ष को जाति-आधारित समाज के खिलाफ संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता।”

*(लेखक विधि विशेषज्ञ हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*

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