अपने गांव-गिरांव में कर्पूरी जी

अपने गांव-गिरांव में कर्पूरी जी

 

अरुण आनंद/संतोष यादव
कर्पूरी ठाकुर की तरह ही उनके गांव का भी एक आकर्षण है। कर्पूरी अपनी सोच में जितने आधुनिक थे, अपनी धज में उतने ही ग्रामीण। मानो कार्ल माक्र्स और महात्मा गांधी का एक अभिराम युग्म उनके व्यक्तिव का हिस्सा हो। उनके गांव जाकर उनके बारे में जानने की एक इच्छा दबी पड़ी थी। कोई सुयोग नहीं बन रहा था। इसी माह जनवरी की एक सुबह पटना से उनके गांव के लिए हम रवाना हुए। कई दिनों के कोहरे के बाद अच्छी धूप निकली थी।पटना से समस्तीपुर पहंुचे तो पत्रकार राजकुमार राय से मुलाकात हुई जिनके कारण हमारी यह यात्रा सुगम हो गई। हमारी गाड़ी समस्तीपुर मुख्यालय से ताजपुर की ओर बढ़ती है। यह वही ताजपुर मार्ग है जो ताजपुर विधानसभा मुख्यालय को जाती है जहां से कर्पूरी जी 1952 से 1962 तक लगातार विधायक रहे। इस मार्ग से 7 किलोमीटर की दूरी पर बाईं ओर एक सड़क मुड़ती है जहां मुख्यमार्ग पर ही कर्पूरीग्राम का बोर्ड टंगा है। मोड़ की बाईं ओर शिवमंदिर है। सड़क के दोनों ओर पक्के मकान हैं। आगे बढ़ने पर दाहिने ओर पेट्रोल पम्प फिर खजूर, केले और तार के पेड़ नजर आते हैं। खेतों में आलू की हरी-खूबसूरत पतियां नजर आती हैं।फिर परीत खेत दिखते हैं जहां कई दिनों के बाद निकली धूप में स्त्रियां कपड़े धो रही हैं और लड़के खेल खेलने में मस्त। आगे बढ़ता हूं तो रामनाथ ठाकुर का मकान नजर आता है जहां कई वी.आई.पी गाड़ियां लगी हैं। आगे कर्पूरी स्मृति भवन की ओर बढ़ता हूं। तिमंजिले स्मृति भवन के आगे लम्बा खुला हुआ ढलाई किया भूखंड है जिसके बायें हिस्से में रंग-बिरंगे फुल खिले हैं। एक हैंडपम्प लगा है। पास में ही सूखने के लिए गेहूं के दाने फैलाये गए हैं और स्मृति भवन द्वार के पास ही भैक्सीनेशन सेंटर चल रहा है जहां दो महिलाएं तैनात हैं। वहीं पर हमारी भंेट होती है पिंटू सिंह से। वे निशा ठाकुर का परिचय देते हैं, लेकिन वह पिंटू सिंह से ही बात करने को कहती हैं। पिंटू बाबू साहब हैं। कहते हैं, ‘हमारे पूर्वज राजस्थान के धारनगर से आकर यहां बसे। हमारे पूर्वज रामजी चैधरी 22 मौजे के मालिक थे। यह पूछने पर कि गांव में अधिकतम कितनी जमीन वाले रह गए हैं, वे कहते हैं, ‘अब लोगों की जमीन काफी कम गई है। फिर भी 50 बीघे जमीन कई लोगों की है।’ कर्पूरी की चर्चा चलने पर उन्होंने कहा कि उनके पास रहने के अलावा अलग से कोई जमीन नहीं थी। पितौंझिया के साढे बारह कट्ठे जमीन में उनके जाति समुदाय का एक ही परिवार था। पिता बटईया खेती करते थे और और पुश्तैनी बाल दाढी बनाने का काम।’

कर्पूरी स्मृति भवन के पास ही का एक शिलापट्ट है। बिहार के तत्तकालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद द्वारा 17 फरवरी, 1997 को इसका शिलान्यास किया था। वहां हमारी भेंट निशा ठाकुर से होती है। खुद को वह कर्पूरी ठाकुर की चचेरी पुतोहू बतलाती हंैं। उन्होंने कर्पूरी जी को देखा नहीं लेकिन इस स्मृति भवन की केयर टेकर वही हैं। उन्हीं ने बतलाया कि गोकुल ठाकुर के दो बेटे थे। बड़े कर्पूरी ठाकुर और छोटे रामस्वारथ ठाकुर। कर्पूरी ठाकुर के दो बेटे हुए रामनाथ ठाकुर और वीरेंद्र ठाकुर। और एक बेटी हुईं रेणु जो दिवंगत हो गईं। रामनाथ संप्रति राज्यसभा के सदस्य हैं और वीरेंद्र ठाकुर पेशे से डाॅक्टर हैं। रामस्वाररथ ठाकुर 2007 मेें दिवंगत हो गए। उनके भी दो पुत्र हुए जिनमें बड़े कपिलेश्वर ठाकुर दिवंगत हो गए। उनके दूसरे पुुत्र नित्यानंद ठाकुर गांव के ही वित रहित काॅलेज में हेड क्लर्क हैं। निशा ठाकुर उन्हीं की पत्नी हैं। वह भी आंगन बाड़ी सेविका हैं। इस स्मृति भवन के पीछे ही उनका घर है जो इंदिरा आवास योजना के तहत बनाई गई है। वह बतलाती हैं कि तीन फलोर के बने स्मृति भवन बनने के पहले कर्पूरी ठाकुर का यह आवास झोपड़ी रूप में मौजूद था। तब यहां आने के लिए सड़क नहीं थी पतली-सी पगडंडी थी जो ज्यादातर समय पानी में ही डूबी रहती थी। स्मृति भवन निर्माण के समय यह रास्ता निकाला गया तब आज यहां गाड़ी भी आती है। वह बतलाती हैं कि जब हमारी शादी हुई थी तो घर तक गाड़ी नहीं आ सकी। कीचड़ में ही फंस कर रह गई। हमको गाड़ी पर से उठाकर यहां लाया गया था। झोपड़ी थी दरवाजा भी संकरा था, झुंककर जाना पड़ता था। लेकिन स्मृति भवन के बन जाने के बाद वो सारी दिक्कतें समाप्त हो गईं। उनकी मानंे तो कर्पूरी जी के परिवार को कोई दिक्कत न थी लेकिन शौक से पुश्तैनी काम उनके माता-पिता और पत्नी भी करती थीं।
निशा आंगनबाड़ी सेविका हैं। उनका यह आंगनबाड़ी सेंटर स्मृति भवन के ही बाहर बायीं ओर के बने कमरे में चलता है। उनके साथ स्मृति भवन के अंदरखाने में दाखिल होता हूं। सामने घनी मूछों में कर्पूरी जी जीवंत होती आदमकद प्रतिमा है। कमरे के दाहिने ओर एक बेंच लगी है और बाईं-दाई ओर एक-एक कमरे हैं। उपरी फ्लोर पर चढ़ता हूं जहां से दाहिनी ओर आंगन दिखता है। वहां सिलौटी पर पालक और मूली की हरी-हरी सब्जियां रखी हैं। नल और वाटरप्यूरीफायर लगा है। बर्तन रखने का स्टैंड है। उसके उपर वाले फ्लोर पर भी कुछ कमरे हैं। छत पर जाता हूं। हमें कहीं भी पुराने दिनों के कोई अवशेष वहां नजर नहीं आते। सामने एक खंडहर होने की ओर बढ़ती हुई हवेली नजर आती है। तत्क्षण हमें एक घटना की याद हो आती है। सुना था कर्पूरी जी ने मैट्रिक प्रथम श्रेणी में उतीर्ण किया था। उनके पिता ने गांव के ऐसे ही किसी हवेली के बाबू साहब के पास अपने बेटे की सफलता की खुशी साझा की और उनसे मदद का आग्रह किया। तो उस बाबू साहब ने कहा था कि नान्ह का बेटा पढ़ लिखकर क्या करेगा आओ हमारा पैर दाबो। कर्पूरी जी ने कभी इन घटनाओं को अपने जीवन से नहीं सटाया लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि सौ वर्ष से भी कम समय में वह हवेली खंडहर होती गई और झोपड़ी में कैद कर्पूरी जी का वह घर हर साल राजकीय समारोह का मुख्य आकर्षण बन गया।

स्मृति भवन से सटे सम्मी का पेड़ है। पेड़ के नीचे उनके पित्तर महामाया गोंसाई का पिंड है। आगे परीत खेत है उसके बाद वाले टोपड़े में आलू लगी है और उसके बाद खपड़ैल मकान है। गांव के दूसरे लोगों से मिलने के ख्याल से वहां से आगे बढ़ता हूं तो सामने एक नाटे कद की सांवली-सी महिला बहुत उत्सुकता के साथ हमें अपने जद में ले लेती हैं। उनका नाम निर्मला देवी है। वह मजदूरी करती हैं। कहती हैं गांव के पुरूषों के मुकाबले हमें मजदूरी की दर पच्चास रुपये कम मिलती है। अपने गांव में आये हम जैसे नवागंतुक उनकी सुनें और उनकी समस्या का निराकारण हो इस उम्मीद में वे हमसे अपनी ही बानी में संवाद करती हैं। वह कहती हैं गोतिया दियाद आने-जाने का रास्ता नहीं देना चाहते। बराबर तंग करते हंै। उसके घर तक बिजली का पौल भी नहीं है। उसने खुद की कोशिश से बिजली अपने घर तक किसी तरह तान रखी है। तीन संतानों की मां पार्वती हमसे मिन्नत करती रही कि मैं उनके गोतिया दियाद से उसके घर आने-आने का रास्ता दिलवा दूं। उनके घर जाता हूं तो पतई से बनी उनकी झोंपड़ी पर नजर जाती है। साथ में उनके बच्चे वहीं पर खड़े हैं। उन्हें देखकर मुझे कर्पूरी जी के समय,परिवेश और संघर्ष का कुछ-कुछ अंदाजा मिलता है। वे स्वयं उसी गांव में एक ही घर से बसे नाई परिवार से ही आती हैं और उनकी सुनने वाला कोई नहीं। वह कहती हैं बाबू कुछ ऐसा कीजिए की जीने का मकसद मिले। आगे उन्हांेने जो कहा उसको सुनकर तो मैं दंग रह गया। उसने बतलाया कि कर्पूरी स्मृति भवन जहां बनी हुई है उसका एक हिस्सा हमारी सास की जमीन का है। स्मृति भवन की जमीन पहले सीधा नहीं थी हमारे हिस्से की जमीन दी गई तब वह ढंग की हो पाई और आज वे ही हमें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

पितौझिया को कर्पूरी ग्राम के रूप में राजस्व ग्राम का दर्जा बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के प्रयत्नों से मिला। वर्तमान में ढाई से तीन हजार की आबादी वाले इस गांव में दो तिहाई राजपूत हैं। उनके यहां तकरीबन दो सौ घर हैं। इसके अलावे 10 घर धानुक, उतने ही दुसाध, चमार जाति समूह हैं। 4 घर नाई, 2 घर ब्राहण और 4 घर बढ़ई भी यहां वास करते हैं। कर्पूरी ग्राम में कुल 15 वार्ड है। वर्तमान में कपूरी स्मृति भवन 7 नंबर वार्ड में अवस्थित है इसकी मुखिया सविता देवी पासवान हैं और हरेंद्र राम वार्ड मेम्बर हैं। यह वह ग्राम पंचायत है जहां सामुदायिक भवन, पुस्तकालय, काॅलेज, रेलवे स्टेशन, हाई स्कूल, मीडिल स्कूल, प्राइमरी स्कूल, सरकारी हाॅस्पिटल, बैंक और रेलवे स्टेशन भी हैं। चमार जाति समूह के लोग लगभग भूमिहीन है। वे सरकारी जमीन पर बसे हैं। गांव में 1664 वोटर हैं और दो बूथ सेंटर। गांव में खेती किसानी का पैटर्न पारम्परिक गति से ही होता रहा है। बहुत सारे लोग आज भी मजदूरी के लिए बिहार से बाहर पलायन को विवश रहे हैं। गांव में 10 साल पहले गिट्टी मंडी खुला है। एक दिन में एक से तीन हजार तक की कमाई वहां लोगों को हो जाती है। इस बिजनेस पर गांव के बाबू साहेबों का कब्जा है।
गांव में मजदूरी की दर पुरुषों के लिए तीन सौ और उसी काम के लिए महिलाओं को ढाई सौ दिया जाता है। गांव में ही हमारी मुलाकात रामचंदर महतों से होती है। वे खेती किसानी करते हैं। कहते हैं खुद खेती करता हूं लेकिन यह फायदे का नहीं घाटे का सौदा है। मजदूर कहां मिलता है? लाभ से ज्यादा लागत ही लग जाती है। यह पूछने पर कि फसलों की बीमा भी करवाते हैं कहते हैं गेहूं, धान का बीमा करवाया था। आगे तिरहुत एकेडमी में जाता हूं जहां कर्पूरी जी हेडमास्टर रहे और 42 आंदोलन में हिस्सेेदारी के कारण बाद में उन्हें जेल की सजा दी गई। वहां से निकलता हूं तो रामनाथ ठाकुर के आवास की ओर हमारी गाड़ी रूक जाती है। उनका बड़ा-सा बैठका है। बाई ओर शेड़स लगे हैं और दाहिनी ओर दर्जन भर कुर्सियां लगी हैं वहां लगभग आधा दर्जन लोग बैठे हैं। उनमें एक महिला हंै। नाम उनका शकंुतला वर्मा है। रामनाथ जी बड़े अदब से मिलते हैं औरों का परिचय देते हैं। वहीं हमारी मुलाकात पुनास गांव के दिनेश सिंह से होती है। उनके पास कर्पूरी जी से जुड़ी ढेरों स्मृतियां हैं। बतलाते हैं कि 1979 के चुनाव में कर्पूरी जी हमारे गांव गए। गांव में मर्डर हो गया था जिसकी वजह से लोगों ने वोट का बहिष्कार किया था। जितने के बाद गांव गए। जिसका मर्डर हुआ था उसके पक्ष में प्रशासन को मुस्तैद करके अपराधी को सजा दिलवाई। एक और घटना का जिक्र किया जिसकी चर्चा यहां लाजमी है। बेगूसराय में एक इंस्पेक्टर की लोगों ने हत्या कर दी थी। कर्पूरी जी उस गांव में गए। उस घटना से पूरा गांव दुखी था। लोगों ने प्रशासन के साथ उन्हें घेर लिया और अभद्र भाषा का उपयोग करने लगे। डीजीपी और मुख्य सचिव ने बार-बार बल प्रयोग करने की इजाजत मांगी लेकिन कर्पूरी जी ने इसकी इजाजत नहीं दी। लेकिन वही कर्पूरी जब श्राद्ध के दिन उस गांव गए तो लोगों ने अपार श्रद्धा के साथ उनका स्वागत किया।

रामनाथ कहते हैं, ‘उन्होंने देखी थी भीषण गरीबी। 1940 में फार्म भरा जाना था। दो रुपये फीस लगती थी। उनके पास पैसे नहीं थे कि फार्म भरंे। वे शंभू पट्टी के बच्चा बाबू के पास गए और अपनी समस्या बतलायी। उन्हंे 27 बाल्टी से स्नान कराया तब उन्होंने दो रुपया दिया। तब तिरहुत एकेडमी में उनका फार्म भराया। वे जब सतासीन हुए तो वही गरीबताई उनके ध्यान में थी जिसको ध्यान में रखकर अंग्रेजी की अनिवार्यता उन्होंने खत्म की।’ रामनाथ आगे कहते हैं हमने उनके मैट्रिक का माक्र्ससीट निकलवाया तो देखा कि अंग्रेजी में उन्हें 86 प्रतिशत नंबर आये थे। हमने पूछा कि गणित? तो कहा उसमें भी अच्छी नंबर था उनका।
गांव में प्रभावती रामदुलारी इंटर महाविद्यालय का रूख करता हूं। गोखुल कर्पूरी ग्राम महाविद्यालय उसका नाम है। काॅलेज के अंदर एक कमरे में कर्पूरी जी और उनके मां पिता की भव्य त्रिमूर्ति लगी है। जिसका उद्घाटन 24 जनवरी 06 को नीतीश कुमार द्वारा किया गया। इसके पहले मुलायम सिंह का भी एक शिलापट्ट नजर आता है। 1997 में इस इंटर डिग्री काॅलेज की स्थापना की गई थी। पहले इंटर काॅलेज खुला। मुलायम सिंह के प्रयास से टाटा ने इसकी बिल्डिंग बनवाई। हम जब पहंुचे तो महाविद्यालय विरान था। एक टीचर मिले तो हमने कहा कैसे हैं इसपर उनकी भृकुटी तन गई। कहने लगे वर्ष 12 से अभी तक हमें अनुदान के पैसे नहीं मिले और आप पूछते हैं कैसे हैं? मुझे उस समय कर्पूरी जी का वह भाषण याद आता है जो सदन का उनका आखिरी वक्तव्य था। उन्होंने कहा था, ‘हमारे यहां दो प्रकार की शिक्षा प्रणाली चल रही है। एक अंगीभूत महाविद्यालय जिसके शिक्षकों को आर्थिक लाभ मिलता है और उन्हें हर प्रकार की सुविधा दी जाती है। दूसरा संबद्ध महाविद्यालय है जिसके शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों को समय पर वेतन तक नहीं मिलता है। आज इंटर कालेज और सम्बद्ध महाविद्यालय की स्थिति यह है कि उसके शिक्षक और शिक्षकेत्तर कर्मचारी वेतन के लिए मारे-मारे फिरते हैं। लोकतंत्र में समान शिक्षा होनी चाहिए।यही समाजवाद की मूलधारा है। अगर सरकार आर्थिक समता और सामाजिक समता के विपरीत काम करती है तो वह पूंजीवाद की पोषक है।’
आगे हमारी मुलाकात राजद के पूर्व विधायक दुर्गा प्रसाद ंिसह से होती है जो कर्पूरी ठाकुर के साथ गहराई से जुड़े रहे। उनके पास कर्पूरी जी से जुड़े संस्मरणों का भंडार है। हम देर तक समस्तीपुर के सर्किट हाउस में दुर्गा बाबू की आंखों देखी कर्पूरी किस्सों की यादें में रमते रहे और दुर्गा बाबू अपनी यादों की पोटली से एक से एक संस्मरण साझा करते रहे। उन्होंने एक किस्सा वरिष्ठ समाजवादी लीडर देवीलाल का सुनाया। यह कर्पूरी जी के निधन के बाद का प्रसंग है।

बकौल दुर्गा बाबू, ‘देवीलाल हरियाणा में एक कार्यक्रम करवा रहे थे। उस समय अजीत मेहता समस्तीपुर से एमपी थे। देवीलाल की इच्छा थी कि कार्यक्रम में कर्पूरी जी का बैनर लगवायें। इसके लिए कर्पूरी जी का फोटो उन्हें कूरियर से भेजा गया। समय से उनतक फोटो नहीं मिलने के कारण देवीलाल इतने अधीर हो गए कि इस बीच उन्होंने 85 बार फोन किया। इसके लिए मुझे इतनी डांट पड़ी कि अंततः मुझे स्वयं वहां जाना पड़ा। तब वह 13 लोधी स्टेट रोड वाले आवास में रहते थे। कूरियर वाले को उनका घर मिल नहीं रहा था मैं कूरियर वाले को साथ लिए हुए ही उनके घर पहंुच था। तो यह सम्मान था एक समाजवादी नेता का कर्पूरी जी के प्रति।’
बात उन दिनों की है जब कर्पूरी जी लोकसभा का चुनाव रामदेव राये से हार गए थे। उसी का रिपोल हुआ था। ‘पतरिया गांव में कर्पूरी जी की गाड़ी खराब हो गई। रामदेव राय उसी रास्ते मोटरसाइकिल से जा रहे थे। उन्होंने कर्पूरी जी को इस हालत में देखा तो उन्हें अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा लिया और दोनों साथ पथरिया गए। हालांकि उस चुनाव में कर्पूरी जी रामदेव राय से चुनाव हार गए लेकिन इसपर रामदेव राय से लोगों ने प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि कर्पूरी जी न चुनाव हारे हैं न हारने वाले हैं वे स्टाॅलवल्र्ड हैं। उन्होंने सिर्फ कांग्रेस को डिफिट किया है। रामदेव राय कर्पूरी जी के खिलाफ लड़ने के पक्ष में नहीं थे। राजीव गांधी के दवाब पर उन्हें लड़ना पड़ा था।’

कर्पूरी जी लोक मानस में अपने समय से कहीं ज्यादा आज नजर आते हैं यह हमने अपनी इस यात्रा में अलग-अलग लोगों से मिलकर महसूस की। लोक में उनकी छवि किम्वंति की तरह मकबूल हो चुकी है। उनकी शोहरत एक आदर और आदर्श का रूप ले चुकी है। अपने पुरखा लड़ाका की इस मकबूलियत से मैं गहरे अभिभूत होकर अपने गन्तव्य को लौट चलता हूं।

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