हमारे देश की सभ्यता एवं संस्कृति बचाने में हमारी भारतीय परंपरागत शिक्षा एवं बाल साहित्य का योगदान भगवान दास शर्मा ‘प्रशांत’ (इटावा उत्तर प्रदेश)
हमारे देश की सभ्यता एवं संस्कृति बचाने में हमारी भारतीय परंपरागत शिक्षा एवं बाल साहित्य का योगदान
भगवान दास शर्मा ‘प्रशांत’ (इटावा उत्तर प्रदेश)
जे टी न्यूज़
हमारे भारत देश की सभ्यता और संस्कृति जितनी प्राचीन है उतनी ही समृद्ध भी है । यदि हम वैदिक काल को देखें तो हर व्यक्ति का मूल उद्देश्य में राष्ट्रहित निहित था। चाहे भले ही वह विभिन्न कार्य क्षेत्र जातियों में बटे हो लेकिन सभी अपने-अपने कामों को बड़ी कुशलता के साथ और ईमानदारी के साथ निभाते थे। शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल धनोपार्जन या आजीविका नहीं था बल्कि अच्छे नागरिक तैयार करना था।गुरुकुल शिक्षा मूल्यों पर आधारित थी। किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति के वाहक वहां का साहित्य, रीति रिवाज, ग्रंथ, स्मारक, ऐतिहासिक धरोहरें, शिक्षा और धार्मिक केंद्र एवं वहां के लोग होते हैं। और हम अपनी विरासत धरोहर संस्कृति,भाषा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाये जाते हैं।
इसका आशय है कि हमारे बच्चे ही हमारी संस्कृति के वाहक होते हैं। किसी भी देश या समाज का भविष्य बच्चों को देखकर लगाया जा सकता। आज के बदलते परिवेश में बच्चों की शिक्षा के साथ संस्कार देने की जरूरत है। हमारे पौराणिक धार्मिक ग्रंथो में चाहे रामायण हो या महाभारत नैतिक मूल्य कूट-कूट कर भरे हैं। बचपन में हम सभी ने पंचतंत्र, विक्रमादित्य, रामायण और महाभारत से जुड़ी अनेकों कहानियां अवश्य ही सुनी होंगी। जिनका हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। बाल साहित्य का सृजन सृजन ऐसा होना चाहिए जो सरल के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी हो। पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव और नैतिक मूल्यों के गिरने से हमारे बाल साहित्य में भी कई दोष आ गए हैं। जहां हमने बचपन में
“राजू राधा दो बच्चे हम हंसते गाते पढ़ने जाते…शाम पिताजी जब घर आते हमें उपवन की सैर कराते .. जैसी कविताएं पाठ्य क्रम में थी..
अब बच्चों के पाठ्यक्रम में “6 साल की छोकरी सर पर रखे टोकरी जैसी कविताएं पढ़ाई जाएंगी तो बच्चों में क्या संस्कार आएंगे। जब छोटे बच्चों को जेंटलमैन का मतलब एक कोट पेंट टाई लगाए हुए व्यक्ति की तस्वीर दिखा कर समझायी जाएगी तो उसे अपने धोती कुर्ता पहने हुए पिता को जेंटलमैन क्यों मानेगा। आज के भौतिकतावादी युग में बच्चे शिक्षित तो हो रहे हैं लेकिन पूरी तरह से संस्कारित नहीं। इसके लिए शिक्षा पद्धति के साथ-साथ भौतिक परिवेश मोबाइल का गलत इस्तेमाल और आधुनिक रहन-सहन भी जिम्मेदार है। ऐसे माहौल में साहित्यकारों की एक जिम्मेदारी है कि ऐसे बाल साहित्य का सृजन करें जिससे बालकों में नैतिक मूल्यों का समावेश हो सके। बच्चों के मनभावन की रचना का सृजन करना आज किसी भी बाल साहित्यकार के लिए ‘तलवार की धार’ पर चलने के समान है। बाल साहित्य का सृजन ही चुनौतीपूर्ण हैं। इसमें सबसे बड़ी और प्रथम चुनौती तो यही है कि लोग बाल साहित्य सृजन करने वाले साहित्यकार को गंभीरता से नहीं लेते। बच्चों के लिए साहित्य कैसा हो? समय बहुत बदल गया है। पहले दादी या नानी रात को सोने से पहले घर में बच्चों को कहानियाँ सुनाती थीं। लेकिन आज कितनी दादी-नानी हैं जो अपने नाती-नातिन और पोते-पोतियों को नई नई-नई बातें और कहानियाँ सुनाती हैं।
आप तो संयुक्त परिवारों की भी परंपरा खत्म होती जा रही है छोटे परिवारों मैं रहते रहते सोच भी छोटी होती जा रही है उन्हें अपने बच्चों पर ध्यान देने की बिल्कुल चिंता और समय नहीं
हर व्यक्ति अर्थ के पीछे भागे जा रहा है वह अपने बच्चों को केवल इंजीनियर और डॉक्टर ही बनना चाहता है एक अच्छा नागरिक नहीं। बाल साहित्यकारों को चाहिए को ऐसी रचनाएं कहानी सृजन करें जिससे बच्चों में अच्छे विचारो, प्रेम ,सहयोग, एकता ,भाईचारा आदि अनेक मूल्यों से संस्कारित करती हो। इस तरह हम कह सकते हैं कि बाल साहित्य हमारी संस्कृति और परंपराओं की आधार शिला है।