कर्ण की तरह ही अभिशप्त है अंग और अंगिका
बिहुला से जुड़ी मंजूषा कला विख्यात हो गई,कर्ण का उपेक्षित गढ़ दीवारों में कैद हो गया - हेमलता म्हस्के
कर्ण की तरह ही अभिशप्त है अंग और अंगिका / बिहुला से जुड़ी मंजूषा कला विख्यात हो गई,कर्ण का उपेक्षित गढ़ दीवारों में कैद हो गया – हेमलता म्हस्के
जे टी न्यूज़
बिहार के पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित पौराणिक स्थल के रूप में विख्यात अंग प्रदेश की पहचान महाभारत के महानायक कर्ण से ज्यादा है । कर्ण दान और शौर्य के लिए सबसे अधिक जाने जाते हैं । दानवीर कर्ण अंग प्रदेश के राजा थे इसलिए उनके कई नामों में एक नाम अंगराज कर्ण भी है। कर्ण सूर्य पुत्र थे तो सुत पुत्र भी थे। वे विजयधारी,धनुर्धारी, मृत्युंजय और युद्धवीर के रूप में भी जाने जाते थे। वे सिर्फ अंग प्रदेश के ही नहीं बल्कि हस्तिनापुर के सिंहासन के भी वास्तविक अधिकारी थे क्योंकि वे पांडवों और कौरवों में सबसे बड़े भाई थे। कर्ण भारतीय जनमानस में एक महान यौद्धा के रूप में जरूर जाने जाते हैं लेकिन उनको कभी भी वह सब नही मिला जिसके वे वास्तव में हकदार थे। कर्ण अनेक मानवीय मूल्यों के शाश्वत आदर्श रहे हैं। उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को देखें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनके जैसा न कोई कभी हुआ और ना भविष्य में कोई होगा। बावजूद दोस्ती,दानशीलता, वीरता, करुणा के साथ राजा होते हुए भी अपने सुत माता पिता का कहना मानने वाले उनको आदर देने वाले और दोस्ती के निर्वाह के लिए अपने भाइयों तक के खिलाफ युद्ध लड़ने जैसे मूल्यों की सीख तो उनके जीवन से पूरे जनमानस को मिलती ही रहेगी। भारतीय कथाओं में दोस्ती की मिसाल के रूप में कृष्ण और सुदामा का जिक्र ज्यादा होता है लेकिन कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती एक मिसाल के रूप में कभी चर्चा के विषय नहीं बनते। वे दानवीर भी ऐसे थे कि उन्होंने कभी भी किसी मांगने वाले को खाली हाथ नहीं लौटाया, भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्राण भी संकट में क्यों न डालना पड़े। दूसरों का भला करने की नीति का पालन करने के बावजूद पृथ्वी और परशुराम से शापित भी किए गए। इन श्रापों के कारण ही महाभारत युद्ध के दौरान उनके रथ का पहिया जमीन से चिपक गया था। एक लोक कथा के मुताबिक महाभारत काल में एक लड़की मटके में घी ले जा रही थी जो जमीन पर गिर गया। उस लड़की ने कर्ण से कहा कि उसे नया घी नही चाहिए बल्कि वही घी चाहिए जो पृथ्वी पर गिरा है। कर्ण ने उस लड़की को मिट्टी को निचोड़ कर वही घी निकाल कर दे दिया। मिट्टी को निचोड़ने से पृथ्वी कुपित हुई और कर्ण को श्राप दे दिया। किसी देश का राजा होते हुए भी द्रौपदी ने स्वयंबर के अयोग्य घोषित कर दिया था। उनके बरक्स आज दानवीर कर्ण का अंग प्रदेश, इसी के साथ इस प्रदेश में करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाने वाली उनकी अंगिका भाषा,साहित्य और संस्कृति भी अभिशप्त है। इसे प्रोत्साहन मिला होता तो विश्व की एक महत्वपूर्ण संस्कृति के रूप में विख्यात अंग संस्कृति का यह हाल नही होता । कर्ण की कथाओं से जुड़े अंग प्रदेश में महानायक कर्ण का न कोई स्मारक है और ना ही कहीं कोई प्रतिमा है। अंग प्रदेश की सबसे प्राचीन धरोहर के रूप में अंग प्रदेश के पास कर्ण की बेजोड़ गाथा है तो उतनी ही पुरानी इस प्रदेश में बोली जाने वाली अंगिका भाषा है। आज कर्ण जैसे महानायक की स्मृति जनमानस के बीच से लुप्त हो रही है और हजारों वर्षों से बोली जाने वाली भाषा अंगिका आज वाणी विहीन होने की ओर अग्रसर है। केंद्र सरकार के दस्तावेजों में अंगिका गायब है। राजनेता गंभीरता से सक्रिय नहीं है। लेकिन साहित्यकार और पत्रकार जुनूनी तौर पर लगे हुए हैं। छोटी छोटी आबादी वाले राज्यों की विभिन्न भाषाओं को आठवीं सूची में स्थान दिया गया है लेकिन करोड़ों लोगों की भाषा अंगिका की जानबूझ कर उपेक्षा की जा रही है। अंग लोकमानस को अब खतरे की घंटी समझ सचेत होना होगा नही तो अंगिका को दुनिया की लुप्तप्राय भाषाओं की श्रेणी में धकेल दिया जायेगा। अंग प्रदेश की उजड़ते धरोहर, मिटते इतिहास और अंगिका भाषा के सिमटते जाने के बीच अंग प्रदेश की बिहुला से जुड़ी मंजूषा कला विख्यात हो रही है। दूसरी ओर कर्ण और उनकी दानशीलता , वफादारी और दोस्ती निभाने जैसे मूल्यों को प्रचारित करने के लिए अंग प्रदेश में न कोई गतिविधि है, ना कोई सरकारी संस्थान है। अंग प्रदेश के साहित्यकार और साहित्य सेवी अपने बलबूते अंतहीन प्रयास करते आ रहे हैं लेकिन इनके सामने भी वैसी ही चुनौतियां और संकट आते रहते हैं जैसे महानायक कर्ण के सामने आते रहे।सबसे पहली बात यह कि अंग प्रदेश में कर्ण की स्मृति में अब कुछ भी शेष नहीं रह गया है । कर्ण अब बस किताबों तक सीमित रह गए हैं। बिहार के पूर्वी हिस्से में कई जिलों में गंगा के दोनों किनारे फैले भूभाग को अंग प्रदेश कहा जाता है लेकिन इन जिलों में कहीं भी कर्ण की स्मृति को ताजा बनाए रखने के लिए कोई महत्वपूर्ण सरकारी और गैर सरकारी संस्थान आदि तो दूर कोई निशानी तक नहीं है। भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं और पात्रों की बातें सिर्फ जुबान तक सीमित हैं उनका मूर्त स्वरूप स्थापित करने पर कभी सोचा ही नहीं जाता। भागलपुर के नाथ नगर में एक कर्ण गढ़ हुआ करता था। वह जगह आज भी है लेकिन उसका नामकरण बदल गया है। अब नई पीढ़ी इस कर्ण गढ़ को सिटीएस मैदान के रूप में जानती है। सी टी एस प्रशासन भी कर्ण की एकमात्र बची विराट पहचान को भी विस्मृत करने पर तुला हुआ है हालांकि कर्ण गढ़ आम जनता के अधीन बनाए रखने के लिए पूर्व मुख्य मंत्री भागवत झा आजाद सहित अनेक लोगों ने जान जोखिम में डाल कर कभी मौलिक संघर्ष किया था लेकिन उनके बाद की सरकारों ने भी कर्ण के नाम से जुड़ी इस महान धरोहर को चारदीवारी में कैद कर धूल धूसरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कर्ण गढ़ पर आम जनता के अधिकार के आंदोलन को जबरन दबा दिया गया।
और इसी के साथ कर्ण की स्मृतियों को बनाए रखने वाले गढ़ की पहचान को दफन कर दिया गया। इस कर्णगढ की खुदाई की जाती तो नगर के बीच अवस्थित इस ऊंचे टीले का गढ़ का रहस्य खुलता। देश और दुनिया के लिए सांस्कृतिक पर्यटन के रूप में विकसित होता। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर खुलते। नालंदा,विक्रमशिला राजगीर और वैशाली की तरह यह गढ़ भी सभी के लिए उदार मानवीय मूल्यों के केंद्र के रूप में विख्यात होता। अब चहारदीवारी में घिरे कर्ण गढ़ के बारे में कोई जानता तक नहीं। जो जानता है उसको कोई परवाह ही नही है। बिहार के सभी अंचलों की भाषाएं विकास की छलांग लगा रही है और कर्ण की नगरी की भाषा अंगिका कर्ण की तरह अभिशप्त है। अंग प्रदेश में सांस्कृतिक चेतना से जुड़े लोगों को अब फिर से पहल करनी चाहिए। अक्टूबर में बिहार की राजधानी में पहली बार होने वाले अंग अंगिका महोत्सव में इन पर भी बात होनी चाहिए। हालांकि अनेक संस्थाएं आज भी अंगिका के विकास में लगी हैं। अंग प्रदेश में राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की स्मृतियों से जुड़ी तिलकामांझी भागलपुर विश्विद्यालय में एम ए में अंगिका की पढ़ाई हो रही है । दिनकर की कर्ण पर लिखी किताब ना सिर्फ हिंदी में बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लोग पढ़ते है। दलित अधेताओं के लिए चुनिंदा किताबों में से एक है।इस किताब की कर्ण और अंग की पहचान को ताजा बनाए रखने में अद्भुत भूमिका रही है। कर्ण महाभारत के विभिन्न पात्रों में एक ऐसे महानायक हैं जिस पर न सिर्फ हिंदी में विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी सबसे अधिक लिखा पढ़ा जाता है भागलपुर और उसके आसपास के इलाके को आज भी ज्यादातर लोग अंग प्रदेश के रूप में जानते हैं साहित्य सामग्रियों में कर्ण का परिचय एक राजा के रूप में कराया जाता है साहित्य में कर्ण बहुतायत में उपस्थित नहीं होते तो लोग को भी भूल गए होते । कर्ण की स्मृति को ताजा करने के लिए सबसे पहले बिहार के शिक्षा मंत्री गुणेश्वर सिंह ने कर्ण पुरस्कार देने की घोषणा की थी लेकिन सरकार बदलने के बाद मंत्री की उक्त घोषणा इतिहास बन गई। राज्य सरकार द्वारा हर साल योग्य व्यक्ति को यह पुरुस्कार दिया जाता रहता तो इस पहल को और कर्ण और अंग की स्मृति को व्यापक बनाने के लिए पंख मिल गए होते ।

