*राजनैतिक व्यंग्य-समागम* *1. ये जेन ज़ी, जेन ज़ी क्या है! : राजेंद्र शर्मा* /जे टी न्यूज़

*राजनैतिक व्यंग्य-समागम*

*1. ये जेन ज़ी, जेन ज़ी क्या है! : राजेंद्र शर्मा* /जे टी न्यूज़

कोई बताएगा कि ये जेन ज़ी क्या बला हैं? बताइए, बेचारे छप्पन इंची छाती वालों तक को डरा के रखा हुआ है। और डर भी छोटा-मोटा नहीं, थर-थर कंपाने वाला डर। ऐसा डर जैसे कोई भूत देख लिया हो। देखा नहीं, कैसे जेन ज़ी का नाम लेने भर से सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया गया। वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में यानी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए। अब राष्ट्र को लगे न लगे, पर छप्पन इंच वालों को तो सुरक्षा खतरे में लग ही रही होगी। वर्ना वांगचुक से उन्हें खास प्यार भले ही नहीं रहा हो, पर पहले दुश्मनी तो हर्गिज नहीं थी। उल्टे वांगचुक ने तो एक जमाने में थैंक यू मोदी जी का ट्वीट भी किया था। यह तब की बात है जब मोदी जी-शाह जी, कश्मीरी अब्दुलों की चूड़ी टाइट करने के चक्कर में, जम्मू-कश्मीर को तोड़ने-फोड़ने लगे हुए थे।

वांगचुक ने समझा कि हर चीज के लिए श्रीनगर का मुंह देखने से छुट्टी मिली। अब जो भी होगा, लेह से होगा, लेह-लद्दाख वालों की मर्जी से होगा। वह तो बाद में उनकी समझ में आया कि गद्दी तो मोदी जी-शाह जी श्रीनगर से उखाड़ कर दिल्ली ले गए। कहां तो वे लेह-लद्दाख से श्रीनगर की दूरी का रोना रो रहे थे और कहां अब हर चीज के लिए दिल्ली का मुंह देखना पड़ेगा। दिल्ली के मुकाबले तो श्रीनगर बहुत नजदीक था।

श्रीनगर के मुकाबले दिल्ली से लेह भले दूर हो, पर राष्ट्र सेठ, ‘‘जिसका नाम नहीं ले सकते’’, दिल्ली के बहुत नजदीक था। नजदीक क्या, वह तो दिल्ली में ही था। दिल्ली में होना भी क्या, वह तो खुद ही दिल्ली था — नयी दिल्ली। नयी दिल्ली में शाही तख्त था और शाही तख्त के पीछे राष्ट्र सेठ। शाही तख्त से हुक्म जारी हुआ — जो राष्ट्र सेठ मांगे सो राष्ट्रहित, अज़ दिल्ली ता लेह-लद्दाख।

राष्ट्र सेठ ने लद्दाख में नारा लगाया, राष्ट्र की जमीन, सो राष्ट्र सेठ की जमीन और सूरज से बिजली निकालने के नाम पर एक शहर के बराबर जमीन पर कब्जा कर लिया। दिल्ली ने कहा, यही विकास है। साथ में जोड़ दिया — इब्तदा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या। लेह-लद्दाख वाले डर गए। ये वाला विकास नहीं चाहिए, का शोर मचाने लगे। मोदी जी-शाह जी ने समझाने की कोशिश भी कि विकास तो विकास है, उसमें ये वाला और वो वाला नहीं करते। विकास जैसा भी हो, उसका विरोध करना अच्छी बात नहीं है। राष्ट्र सेठ का विरोध कर के, राष्ट्र-विरोध करने की गलती नहीं करें। पर पहाडिय़ों का पत्थरों वाला अड़ियल सुभाव, नहीं माने तो नहीं ही माने। लगे आंदोलन करने और वह भी गांधीवादी तरीके से। कभी पांच दिन की भूख हड़ताल, तो कभी पंद्रह दिन और कभी अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल। कभी धरना, कभी बंद। भीड़ बढ़ती गयी। यहां तक कि चुनाव में खतरा नजर आने लगा। नतीजा सामने है। मांगा छठा शेड्यूल, मिली गोली, कर्फ्यू और गिरफ्तारी, वह भी अकेले वांगचुक की नहीं, सैकड़ों की।

आप पूछेंगे कि इसमें जेन ज़ी कहां आ गयी? जेन ज़ी आ गयी, क्योंकि वांगचुक ने अपने एक भाषण में जेन ज़ी का नाम ले दिया। फिर क्या था, जेन ज़ी लेह में आ गयी। असल में जेन ज़ी तो पहले ही दरवाजे पर खड़ी थी। उसका डर हवाओं में था। खासतौर पर दिल्ली की हवाओं में। और डर हवाओं में क्यों न होता? जेन ज़ी नाम का एलान कर के जेन ज़ी ने राजगद्दी भले ही नेपाल में ही पलटी हो, पर उसकी शुरूआत तो और पहले हो चुकी थी। कोई कहता है अरब स्प्रिंग, तो कोई कुछ और कहता है। और तो और खुद हमारे पड़ौस में पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल ; तख्त पर तख्त लुढ़कते जा रहे हैं। डरना तो बनता है। खासतौर पर उनका जो तख्त पर तो बैठे हैं पब्लिक के नाम पर और खुल्लमखुल्ला नजदीकी बढ़ा रहे हैं, तरह-तरह के धन्नासेठों से।

नौजवानों का धीरज टूट रहा है। न करने को काम और न गुजारे को जेब में छदाम। और तख्तेशाही पर बैठने वालों का बिना कहे यह साफ एलान कि हमसे आगे भी कोई उम्मीद मत रखना। चुनाव से हमें हटाने की तो सोचना भी मत! ऐसे में छप्पन इंची छाती की कोई कितनी भी शेखी मार ले, डरना तो बनता है। डर तो सब को लगता है। पांव सब के कांपते हैं। पर इस डर के आगे भी उनकी जीत नहीं है। इस डर के आगे गोलीबारी है, गिरफ्तारी है।

छप्पन इंची छाती डर रही है। गिरफ्तारियां कर रही है, पुलिस-मिलिटरी आगे कर रही है, पर डर रही है। डर रही है, तभी तो जेन ज़ी का जिक्र भर करने पर, सुरक्षा कानून में गिरफ्तारियां कर रही है। और छप्पन इंची छाती डर रही है, इसलिए लोग उसे और भी डरा रहे हैं। एक नयी हवा यह कहने की चल रही है कि जेन ज़ी तो हर जगह है और वह भी हमेशा से। लोग कह रहे हैं कि भगतसिंह भी अपने टैम के जेन ज़ी ही तो थे। नौजवान तो थे ही। पढ़े-लिखे भी थे। बदलाव चाहते थे। और अपनी कल्पना के बदलाव के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार थे। यानी जैसे तब भगत सिंह यहां पैदा हुए थे, जेन ज़ी अब यहां भी प्रकट हो सकता है। अचानक से प्रकट हो सकता है। इतनी ज्यादा बेरोजगारी है कि बेरोजगार नौजवानों का हुजूम जो कभी दिल्ली, तो कभी लखनऊ, कभी पटना, तो कभी जयपुर, कभी देहरादून तो कभी बेंगलुरु में, कभी भर्ती परीक्षा के लिए, तो कभी परीक्षा में पेपर लीक के खिलाफ, प्रदर्शनों में पुलिस की लाठियां खा रहा है, अब तक अपने अंदर छुपे जेन ज़ी को नहीं पहचान सका, इसी में हैरानी की बात है। पर चोर की मां कब तक खैर मनाएगी। अब्दुल की चूड़ी टाइट होने की झूठी खुशी से, नौजवान पीढ़ी कब तक अपने भूखे पेट को बहलाएगी? राज करनी वालों को डर तो लगेगा ह

खैर! गद्दीधारियों का यह डर अच्छा है। इस डर के आगे, गद्दीधारियों की नहीं, पब्लिक की जीत है। सो जेन ज़ी को आने दो। गद्दीधारियों को इसे अपने खिलाफ कभी चीन, कभी नेपाल, कभी बांग्लादेश और कभी सोरोस का षडयंत्र बताने दो, पर जेन ज़ी को आने दो। भगतसिंह को रास्ता दिखाने दो, जेन ज़ी को आने दो।

*(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*
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*2. गरीब देश की शाही राष्ट्रपति : विष्णु नागर*

कोई भारत का राष्ट्रपति हो, तो उसका धार्मिक होना सहज संभाव्य है। जहां करोड़ों -करोड़ लोग धार्मिक हों, जहां का प्रधानमंत्री किसी न किसी मंदिर में जाकर त्रिपुंड धारण करता रहता हो, पीत अथवा लाल अथवा कोई और वस्त्र पहनकर धार्मिक होने का ढोंग रचता रहता हो, वहां के राष्ट्रपति का धार्मिक होना स्वाभाविक है!

राष्ट्रपति हैं तो क्या हुआ, उनके मन में भी मथुरा, वृंदावन, बनारस, बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम् आदि जाने की इच्छा पैदा हो सकती है। वैसे भारत का कोई पांच साल के लिए राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो जाए, इसके बाद उसे ईश्वर से और क्या चाहिए? हम तो न कभी राष्ट्रपति रहे, न उपराष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न मंत्री, न राज्यपाल और न इनके लगुए-भगुए, हमें क्या मालूम कि इन बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों को ईश्वर से और क्या चाहिए होता है और ईश्वर जो है नहीं, इन्हें क्या दे देता होगा!

खैर, तो महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के मन में मथुरा-वृंदावन जाने की इच्छा पैदा हुई। राष्ट्रपति का एक प्रोटोकॉल होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि सुबह इच्छा हुई, तो दोपहर या शाम को चल दिए! उनके मुख से यह बात निकली होगी, तो यह बात सबसे पहले फाइल के रूप में परिणत हुई होगी! फिर फाइल इस से उस और उस से उस और फिर उससे भी उस अफसर तक लटकती-भटकती रही होगी। अफसरों ने उस पर अपनी-अपनी टीप लिखी होगी। मोदी राज है, तो हर फाइल की तरह यह फ़ाइल भी प्रधानमंत्री तक गई होगी। उनकी अनुकंपा से यह फाइल पास हुई होगी! तब जाकर यह तय हुआ होगा कि राष्ट्रपति जी निश्चित रूप से मथुरा-वृंदावन जाएंगी। किस दिन जाएंगी, कैसे जाएंगी, यह भी अधिकारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय से मिल कर फाइल पर तय किया होगा।

राष्ट्रपति जी को बताया गया होगा कि मैडम जी आपके लिए ट्रेन से यात्रा करना सबसे सुरक्षित होगा। कार से यात्रा करने में आपको कष्ट होगा। आप हेलिकॉप्टर से भी मत जाइए। आजकल कुछ ठीक नहीं है। तब उन्होंने कहा होगा कि जैसा आपने तय किया, ठीक है। मुझे तो वहां जाकर देव-दर्शन करना है, बाकी आप जानें!

उन्होंने इतना कहा होगा कि अधिकारियों की बांछें खिल गई होंगी। वे अपने इस महान मिशन में लग गए होंगे।पहले उन्होंने दिन तय किया होगा। गुरुवार उन्हें सबसे उपयुक्त लगा होगा। क्या पता कुछ ज्योतिष वगैरह का चक्कर हो! राष्ट्रपति जी का नाम चूंकि ‘द’ से शुरू होता है, तो हो सकता है शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन जाना ठीक समझा गया हो! फिर ट्रेन का इंतजाम करने के लिए ई-मेल गया होगा।उसका प्रबंध हो गया होगा, तो दिल्ली से मथुरा-वृंदावन तक कितने ही विभागों को, कितने ही ई-मेल और फोन गए होंगे। हर एक ने पुष्टि की होगी कि हमने इंतजाम कर दिया है। फिर इस इंतजाम का अंतिम रूप से निरीक्षण-परीक्षण किया गया होगा। जब सब टनाटन हो गया होगा, तो मामला आगे बढ़ा होगा!

वैसे ट्रेन राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री को चाहिए, तो भारत की कोई ताकत रोक नहीं सकती। अकेला ट्रंप है, जो कुछ भी कहीं भी रोक सकता है। शुक्र है कि राष्ट्रपति जी की इस यात्रा से अमेरिकी हितों को कोई चोट नहीं पहुंच‌ रही होगी, तो ट्रंप ने आपत्ति नहीं जताई होगी! हो यह भी सकता है, मोदी जी ने उसके संज्ञान में यह बात आने नहीं दी होगी, मगर जिस दिन उसे यह पता चलेगा कि मोदी जी ने यह बात उससे छुपाई है, वह दस फीसदी टैरिफ और बढ़ा देगा!

खैर राष्ट्रपति जी के लिए देश की सबसे महंगी और शाही ट्रेन ‘महाराजा एक्सप्रेस’ के प्रेसिडेंशियल सुइट को फिर से सुसज्जित किया गया होगा, जिसका आम तौर पर किराया लगभग इक्कीस लाख रुपए होता है। उसमें पांच सितारा होटल से भी अधिक सुविधाएं हैं। नाम राष्ट्रपति का, मजे अधिकारियों के आ गए होंगे! ऐसी ट्रेन में मुफ्त यात्रा का एक दिन का सुयोग भी कम नहीं है। यह कुछ भाग्यवानों को ही मिलता है और ऐसे भाग्यवानों में भारत सरकार के आईएएस-आईएफएस अधिकारी अग्रिम पंक्ति में होते हैं!

अब अधिकारियों को इसकी क्या परवाह कि सामान्य कामकाजी दिन राष्ट्रपति जी जाएंगी, तो उनकी सुरक्षा का जो लंबा-चौड़ा लवाजमा होता है, उसके लिए यहां से वहां तक न जाने कितनी तरह के कितनी जगह इंतजाम किए जाएंगे। हर आदमी, हर वाहन को संभावित बम माना जाएगा और दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे,आकाश में, पाताल में शत्रु ही शत्रु देखे जाएंगे और हर जगह ट्रैफिक रोका जाएगा। इससे कितने कर्मचारियों, मजदूरों, दुकानदारों, रेहड़ी-पटरी वालों, पैदल चलने वालों की उस दिन की जिंदगी जाम हो जाएगी। इस भयानक गर्मी में खड़े-खड़े उनकी ज़िंदगी झंड हो जाएगी! काम पर देर से आने के कारण कितने ही मजदूरों की आधे दिन की मजदूरी काट ली जाएगी या उस दिन की पूरी दिहाड़ी छिन जाएगी!अधिकारियों को इसकी चिंता नहीं होती, बल्कि उन्हें खुशी हुई होगी कि राष्ट्रपति जी के कारण हमारे भी कितने ठाठ हो गए हैं कि ये लाखों ‘कीड़े-मकोड़े’ कितने परेशान हो रहे हैं। अफसरी का असली सुख तो दूसरों को दुखी देखने में है। मन ही मन देते रहें लोग गालियां। गालियों से क्या होता है! तीन-तीन किलो रोज गालियां खानेवाले का आज तक क्या बिगड़ा, जबकि उसे कांग्रेसियों द्वारा कथित रूप से दी गई हर गाली मुंहजबानी याद है! कहो तो वह आज और अभी यहीं सुना दे!

 

खैर द्रौपदी मुर्मू जी राष्ट्रपति हैं और भारत जैसे गरीब देश की राष्ट्रपति हैं, इसलिए सारे इंतजाम शाही तो होने ही थे! भारत के गणतंत्र बनने के बाद से यही परंपरा चली आ रही है‌, सो उसे मिटाया भी नहीं जा सकता, वरना लोकतंत्र और गणतंत्र खतरे में पड़ जाता! और भारत सरकार लोकतंत्र और गणतंत्र की रक्षा के प्रति इतनी अधिक प्रतिबद्ध है कि वह हर खतरा उठा सकती है, मगर यह नहीं ! संकेत में भी ऐसी सलाह देना देशद्रोह की श्रेणी में आ सकता है, इसलिए आप गवाह हैं कि मैंने देशभक्ति दिखाने में बिलकुल भी कंजूसी नहीं की है! आप कहो तो वन्देमातरम तथा जन-मन-गण गाकर भी दिखा दूं!

*(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार, पत्रकार और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)*

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