श्री श्री ठाकुर जी ने कहा है प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप: डॉ कृति सुंदर गुरु
रामगढ़वा पूर्वी चंपारण-: जगत में मनुष्य जो कुछ भी दुःख पाता है उनमें अधिकांश ही कामिनी – काच्चन की आसक्ति से आते हैं, इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल । उक्त बातें युग पुरुषोत्तम परम प्रेममय श्री श्री ठाकुर अनुकूल चंद्र जी ने मात्र 22 वर्ष की उम्र में ही अपनी पुस्तक सत्यानुसरण में लिख दी है। और सत्यानुसरण पुस्तक की रचना ठाकुर जी ने मात्र एक रात में ही की है। उक्त बातें सत्संग नेपाल बीरगंज द्वारा आयोजित ऑनलाइन सत्संग को संबोधित करते हुए ठाकुर जी की लीला भूमि सत्संग आश्रम देवघर से डॉक्टर कीर्ति सुंदर गुरु दादा ने कही। साथ ही उन्होंने कहा कि
भगवान श्री श्रीरामकृष्णदेव ने सभी को विशेष रूप से कहा है कि, कामिनी – काच्चन से दूर – दूर बहुत दूर रहो ।
कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती है । विष अमृत हो जाता है । और माँ, माँ ही है, कामिनी नहीं ।
माँ शब्द के अन्त में ‘ गी ‘ जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश ! सावधान माँ को मागी * सोच न मरो।
प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप, इस प्रकार सोचना चाहिए ।
मातृभाव ह्रदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए – जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा; यहाँ तक कि मुखदर्शन तक नहीं करना और भी अच्छा है ।
मेरे काम – क्रोधादि नहीं गये, नहीं गये – कहकर चिल्लाने से वे कभी नहीं जाते । ऐसा कर्म ऐसी चिन्ता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिसमें काम – क्रोधादि की गन्ध भी नहीं रहे – मन जिससे उन सबको भूल जायें ।
मन में काम – क्रोधादि का भाव नहीं आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे? उपाय है – उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना ।
सृष्टितत्व, गणितविद्या, रसायन शास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम-रिपु का दमन होता है ।
कामिनी – काच्चन सम्बन्धित किसी प्रकार की आलोचना ही उनमें आसक्ति ला दे सकती है । उन सभी आलोचनाओं से जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा ।
वंदे पुरूषोत्तमम्
Edited By :- savita maurya