समानता का नाम, भेदभाव बढ़ाना काम

समानता का नाम, भेदभाव बढ़ाना काम!
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

जे टी न्यूज़
मोदी-शाह की भाजपा को 2024 के आम चुनाव में हिंदुत्ववादी ध्रुवीकरण के उछाल के लिए, अयोध्या के राम मंदिर से लेकर, काशी तथा उज्जैन को कॉरीडोरों तक का सहारा कम पड़ता लग रहा है। आम चुनाव से कुछ ही महीने पहले, जिस तरह से अचानक समान नागरिक संहिता का मुद्दा जोर-शोर से उछाला जाने लगा है, कम-से-कम उससे तो ऐसा ही लगता है। इसकी वजह बेशक यह तो है ही कि हर गुजरने वाले दिन के साथ, अगले आम चुनाव में विपक्ष की चुनौती जिस तरह गंभीर से गंभीर होती नजर आती है, उसे देखते हुए संघ-भाजपा किसी भी संभव-असंभव सांप्रदायिक विभाजनकारी हथियार को बिना आजमाए छोड़ने नहीं जा रहे हैं। इसके अलावा एक अतिरिक्त किंतु महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि उन्हें इसका बखूबी एहसास है कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक गोलबंदी, उतनी उनके हिंदू धार्मिकता के प्रदर्शन से बल प्राप्त नहीं करती है, जितनी अन्य धर्मावलंबियों के मुकाबले हिंदुओं का प्रभुत्व स्थापित करने की या संक्षेप में कहें तो ‘‘अब्दुल की चूड़ी टाइट करने’’ की, उनकी तत्परता से प्राप्त करती है। एक राष्ट्रीय चुनावी वादे के रूप में समान नागरिक संहिता का वादा, जिसकी तैयारियां विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर दोबारा विचार शुरू करने के जरिए पिछले ही हफ्तों में शुरू कर दी हैं, कम से कम एक चुनाव के लिए तो मोदी-शाह की भाजपा के लिए एक धारदार हथियार का काम कर ही सकता है! अपनी अमरीका यात्रा से लौटते ही, मध्य प्रदेश से अपने चुनाव अभियान का एक और संस्करण शुरू करते हुए, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने जितने जोर-शोर से, समान नागरिक संहिता की वकालत शुरू कर दी है, उससे तो इसमें किसी शक की गुंजाइश ही नहीं रह जाती है कि आने वाले चुनावों में –विधानसभाई चुनावों में भी और खासतौर पर 2024 के आम चुनाव में — यह संघ-भाजपा के प्रचार का एक बड़ा हथियार होगा।

बेशक, ‘‘समान नागरिक संहिता’’ का मुद्दा एकाएक ही उछाल दिया गया हो, ऐसा हर्गिज नहीं है। उल्टे, यह मुद्दा तो हमेशा से संघ-भाजपा के ‘‘कोर मुद्दों’’ में रहा है, जो भाजपा को अपनी पूर्ववर्ती जनसंघ से और उसे भी अपनी पितृ संस्था, आरएसएस से विरासत में मिला लगता है। संघ परिवार में इस मुद्दे की हैसियत, हिंदू राष्ट्र और राम मंदिर जैसे मुद्दों से बहुत घटकर नहीं रही है। फिर भी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह मुद्दा, अब एक उत्तरोत्तर विकास के रूप में नहीं, बल्कि एक आपात उपाय के तौर पर ही आने वाले चुनाव के लिए उछाला जा रहा है। याद रहे कि मोदी सरकार द्वारा ही गठित विधि आयोग ने, 2016 के नवंबर में समान नागरिक संहिता पर ही सार्वजनिक रूप से सुझाव आमंत्रित करने के जरिए, इस मुद्दे को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू की थी। तब उसे 75 हजार से ज्यादा प्रतिक्रियाएं या सुझाव मिले भी थे। कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियों समेत, लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने न सिर्फ इस तरह की संहिता को गैर-जरूरी बताया था, बल्कि इस दिशा में बढऩे के पीछे वर्तमान शासन की मंशा पर भी गंभीर सवाल उठाए थे।

और लोगों से राय लेने की उक्त विस्तृत प्रक्रिया के आखिर में, 2018 में विधि आयोग ने पूरे 185 पृष्ठ की अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में, जाहिर है कि इसे तस्लीम करते हुए भी कि भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक सिद्घांतों में से एक में, ‘पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता’ की ओर बढऩे के लिए कदम उठाने का निर्देश दिया गया है, यह दो-टूक निष्कर्ष दिया गया था कि, अलग-अलग समुदायों के अलग-अलग पारिवारिक कानूनों को हटाकर, सब के लिए एक ही कानून बनाना ‘‘इस समय न तो जरूरी है और न ही वांछित है।’’ इस दो-टूक सिफारिश के पांच साल बाद ही, उसी मोदी सरकार के विधि आयोग को अचानक इस मुद्दे पर पुनर्विचार करने की जरूरत क्यों पड़ गयी है, इसके जवाब का अनुमान लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है!

वैसे यह कहना भी गलत नहीं होगा कि विधि आयोग की उक्त सिफारिश के बाद भी, मोदी-शाह की भाजपा ने समान नागरिक संहिता के मुद्दे को पूरी तरह से छोड़ा नहीं था। वास्तव में मोदी के दूसरे कार्यकाल के उत्तरार्द्ध की शुरूआत से ही, राज्य स्तर पर चुनावों में इस मुद्दे की आजमाइश शुरू हो गयी थी। सबसे पहले, पिछले साल के आरंभ में उत्तराखंड के चुनाव में भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में बाकायदा इसे जगह दी गयी। वास्तव में चुनाव घोषणापत्र से भी पहले ही, पांच ही साल के एक कार्यकाल में तीसरे मुख्यमंत्री बनाकर मोदी द्वारा बैठाए गए धामी, डैमेज कंट्रोल के उपाय के तौर पर, समान नागरिक संहिता लाने के वादे करना शुरू कर चुके थे। उत्तराखंड के बाद, गुजरात में, हिमाचल में और अब तो उत्तर-पूर्व को छोडकर, शेष सभी जगह इसे भाजपा के विधानसभा चुनाव घोषणापत्रों का जरूरी हिस्सा ही बना दिया गया लगता है। यहां से आगे, देश के पैमाने पर इस वादे का उछाला जाना, स्वाभाविक अगला कदम ही माना जाएगा।

बहरहाल, भारत में समान नागरिक संहिता के मुद्दे की, शुरूआत से ही एक गहरी विडंबना रही है। समान नागरिक संहिता यानी परिवार, उत्तराधिकार आदि के प्राय: निजी माने जाने वाले मामलों में भी कानून में समानता लाने की मांग में सबसे ज्यादा दिलचस्पी शुरूआत से ही, ठीक उन्हीं सामाजिक-राजनीतिक ताकतों की रही है, जिन्हें आम तौर पर सार्वजनिक माने जाने वाले अन्य तमाम कानूनों के मामले में भी, सब की समानता के प्रावधान या तो हजम ही नहीं हुए हैं या बड़ी मुश्किल से तथा आधे-अधूरे तरीके से ही हजम हुए हैं। हैरानी की बात नहीं है कि आरएसएस तथा उसके हिंदू महासभा जैसे हमराही ही और जाहिर है कि आरएसएस द्वारा खड़ा किए गए राजनीतिक तथा अन्य संगठन भी, जिन्हें शुरूआत से जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के विभाजनों से ऊपर उठकर, सभी भारतवासियों को समान अधिकार देने वाला और परंपरागत रूप से जो वंचित रहे हैं, उनके लिए बराबरी सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान करने वाला, स्वतंत्रता के ऐतिहासिक संघर्ष की प्रेरणाओं से निकला, स्वतंत्र भारत का संविधान स्वीकार ही नहीं था, समान नागरिक संहिता की सबसे बड़ी पैरोकार बनी रही हैं। यही स्थिति संविधान सभा में भी थी, जिसमें उक्त ‘मार्गदर्शक सिद्घांत’ पर लंबी बहस हुई थी और आज भी है। क्यों? क्योंकि हिंदुत्ववादियों या हिंदू वर्चस्ववादियों को, जिनमें संघ परिवार आज सबसे आगे है, इसमें भारतीय राज्य के स्तर पर हिंदुत्व या बहुसंख्यकवाद का शिकंजा मजबूत करने का और जिन्हें वे ‘‘पराया’’ मानते हैं, उन्हें प्रकटत: एक प्रकार की ‘‘समानता’’ के नारे की आड़ में दबाने का, मौका दिखाई देता है।

दूसरे शब्दों में उनके लिए यह ‘‘समानता’’ की आड़ में, उत्तर भारतीय ब्राह्मणवाद से परिभाषित एकरूपता थोपने का अधिकार हासिल करने का यानी अनेकानेक स्तरों पर असमानता बढ़ाने का ही हथियार है। यह किसी हद तक उसी तरह की ‘‘समानता’’ की झूठी दुहाई है, जैसी ‘‘समानता’’ की झूठी दुहाई का संघ परिवार के नेतृत्व में ये ताकतें शुरू से ही, आरक्षण जैसे परंपरागत रूप से वंचितों को सहारा देने वाले प्रावधानों को खत्म कराने के अपने प्रयासों के लिए, इस्तेमाल करती रही हैं। दूसरी ओर, खुद डा. अम्बेडकर ने, जिन्हें भारत की संविधान सभा में समानता की सबसे विश्वसनीय आवाज कहा जा सकता है, इस मांग को न सिर्फ शासन के लिए संविधान के नीतिगत निर्देश के स्तर पर ही जगह देना मंजूर किया था, न कि बाध्यकारी प्रावधानों के स्तर पर। यही नहीं, संविधान सभा में इस प्रश्न पर लंबी बहस में उन्होंने इसके विरोध की आवाजों को इसका भी भरोसा दिलाया था कि इस ‘मार्गदर्शन’ का अर्थ यह नहीं है कि सरकार पूरे देश के लिए ऐसा कानून बनाने ही जा रही है या बनाएगी ही! यह सिर्फ एक दिशा संकेत है — उस पर चलने का आदेश नहीं।

यह भी दिलचस्प है कि समान नागरिक संहिता के पैरोकारों का सारा जोर, विभिन्न धर्मों के अलग-अलग निजी यानी विवाह, उत्तराधिकार आदि के कानूनों को ‘‘समान’’ यानी एक जैसा बनाने पर ही रहता है। लेकिन, सभी धर्मों के निजी कानूनों में स्त्री समानता, संगी के चयन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में न सिर्फ उनकी कोई रुचि नहीं है, बल्कि उसके तो वे सक्रिय रूप से विरुद्घ ही रहे हैं। यह संयोग ही नहीं है कि वही संघ परिवार तथा उनकी सरकार, जो पिछले ही दिनों सुप्रीम कोर्ट में समलिंगी विवाह का ठीक इसी तर्क से विरोध कर रहे थे कि विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच का मामला नहीं है, बल्कि धर्म से अनुमोदित संस्था बल्कि एक धार्मिक संस्कार ही है, निजी कानूनों को धार्मिक परंपराओं से अनुमोदित मान्यताओं से मुक्त करा के, एक जैसा कराना चाहते हैं! दिलचस्प है कि विवाह को धार्मिक परंपराओं से बांधकर परिभाषित करने का उक्त तर्क, देश के सभी प्रमुख धर्मों के संस्थागत अगुआ, सुप्रीम कोर्ट में एक स्वर से रख रहे थे।

साफ है कि समान नागरिक कानून की मांग का निजी कानूनों को जनतांत्रिक बनाने के जरिए, वास्तव में समानता को मजबूत करने से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसीलिए, समान नागरिक संहिता के विचार के खिलाफ एक जोरदार आवाज, देश के आदिवासियों की ओर से उठायी जा रही है, जिन्हें इसका गंभीर खतरा दिखाई दे रहा है कि इस तरह की संहिता उन पर, एक पूरी तरह से अपरिचित, बल्कि परायी जीवन शैली थोपने का हथियार बन जाएगी। सचाई यह है कि समान नागरिक संहिता की मांग, वर्तमान संदर्भ में नाबराबरी और धार्मिक भेदभाव को बढ़ाने का ही हथियार है। उत्तराखंड इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां एक ओर अल्पसंख्यकों को बाकायदा अभियान चलाकर खदेड़ने की कोशिशें हो रही हैं, जिसका उदाहरण पुरोला में पिछले दिनों देखने को मिला था और दूसरी ओर मुख्यमंत्री के एलान के अनुसार, विधानसभा में समान नागरिक कानून का मसौदा पेश किए जाने की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी हैं!

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