सिर्फ रोज़गार नहीं, असली मुक्ति है आर्थिक स्वतंत्रता – -गरिमा भाटी “गौरी”

सिर्फ रोज़गार नहीं, असली मुक्ति है आर्थिक स्वतंत्रता – -गरिमा भाटी “गौरी” जे टी न्यूज़, फरीदाबाद : माज में नारी सशक्तिकरण की बातें अब आम हो चुकी हैं। स्त्रियाँ अब डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, अफ़सर, उद्यमी और शिक्षिका बनकर समाज के हर क्षेत्र में अपना स्थान बना रही हैं। परंतु एक गंभीर और अक्सर अनदेखा किया जाने वाला पक्ष यह है कि आज भी अधिकांश स्त्रियाँ केवल रोज़गार को ही मुक्ति समझ बैठी हैं। उन्हें यह लगता है कि अगर वे नौकरी कर रही हैं और एक निश्चित आय अर्जित कर रही हैं, तो वे आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हैं। लेकिन क्या वास्तव में सिर्फ नौकरी कर लेना ही स्त्री की आज़ादी का पैमाना है?सच यह है कि जब तक किसी स्त्री के पास स्वतंत्र आर्थिक निर्णय लेने की क्षमता, जानकारी और अधिकार नहीं होता, तब तक उसकी स्वतंत्रता अधूरी है। आज भी बड़ी संख्या में महिलाएँ ऐसी हैं जिनकी तनख़्वाह तो अच्छी-खासी होती है, लेकिन उसका नियंत्रण या प्रबंधन उनके हाथों में नहीं होता। उनका वेतन जिस खाते में आता है, उसकी जानकारी भले उन्हें हो, लेकिन उस खाते का संचालन अक्सर उनके पति, भाई या पिता करते हैं। कई बार तो स्त्रियाँ अपने पूरे महीने की कमाई में से एक रुपये तक को भी अपने लिए निर्णयात्मक रूप से उपयोग नहीं कर पातीं। उन्हें यह तक नहीं पता होता कि उनका पैसा कहाँ निवेश हो रहा है, कौन-से खर्च कहाँ किए जा रहे हैं।अफ़सोस की बात तो यह है कि कई पढ़ी-लिखी, उच्च पदों पर कार्यरत स्त्रियाँ आज भी यह नहीं जानतीं कि उनकी आय किस टैक्स स्लैब में आती है, या उस पर कितना टैक्स कट रहा है। अगर टैक्स भरने की नौबत आती है तो अधिकतर मामलों में उनके पिता, भाई या पति ही वह प्रक्रिया पूरी करते हैं। स्त्रियाँ तो इस प्रक्रिया में बस एक दर्शक बनकर रह जाती हैं। वे इन तमाम वित्तीय मामलों से खुद को अलग मान बैठती हैं — जैसे कि यह किसी और की ज़िम्मेदारी है, न कि उनकी।यह समस्या केवल सामाजिक या पारिवारिक नहीं है, यह एक सांस्कृतिक और मानसिक अनुकूलन का परिणाम है जिसमें लड़कियों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि पैसा कमाना भले ज़रूरी हो, लेकिन पैसे का प्रबंधन करना पुरुषों का कार्य है। उन्हें गहनों, शृंगार, खाना पकाने, और गृहस्थी चलाने की जानकारी तो भरपूर दी जाती है, लेकिन शेयर बाजार, प्रॉपर्टी रजिस्ट्रेशन, लोन प्रक्रिया, बीमा पॉलिसियाँ, बजट प्रबंधन या आर्थिक नीतियों पर बात करना उनसे अब भी दूर की चीज़ मानी जाती है।
यही कारण है कि जब कोई स्त्री बैंक में लोन के काग़ज़ों पर दस्तख़त करने जाती है, तो उसके चेहरे पर असहजता और असहायता साफ़ झलकती है*। उसके नाम पर संपत्ति हो सकती है, घर हो सकता है, लेकिन उसे यह अधिकार नहीं होता कि वह उससे जुड़ा कोई भी निर्णय ले सके। कई बार तो ऐसी स्थिति होती है कि वे समझ ही नहीं पातीं कि वे किन शर्तों पर दस्तख़त कर रही हैं — यह सब सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें वित्तीय साक्षरता (फाइनेंशियल लिटरेसी) नहीं दी गई।
स्त्री की वास्तविक मुक्ति तभी संभव है जब वह केवल कमाने तक सीमित न रहे, बल्कि अपने पैसे को कैसे सुरक्षित रखा जाए, कहाँ निवेश किया जाए, किस प्रकार की संपत्ति खरीदी जाए, कौन-से वित्तीय दस्तावेज़ महत्त्वपूर्ण हैं, ये सब बातें भी जाने और समझे। उसे चाहिए कि वह शृंगार और फैशन से ऊपर उठकर ज्ञान और जागरूकता की ओर कदम बढ़ाए। आज की स्त्री को यह समझने की ज़रूरत है कि अगर वह खुद अपने जीवन की आर्थिक योजनाएँ नहीं बनाएगी, तो कोई और उसका लाभ उठाने से पीछे नहीं रहेगा — चाहे वह उसके घर का ही सदस्य क्यों न हो।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने लंबे समय तक स्त्री को आर्थिक मामलों से दूर रखा है, क्योंकि जैसे ही स्त्री को धन और निर्णय की शक्ति मिलती है, वह वास्तविक आज़ादी का स्वाद चखती है। उसे फिर न किसी रिश्ते में ज़बरदस्ती रहना पड़ता है, न ही उसे अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ानी पड़ती है। लेकिन यह मुक्ति उसे बिना संघर्ष के नहीं मिलेगी। उसे पुराने बने-बनाए ढाँचों को तोड़ना होगा, खुद को शिक्षित करना होगा, सवाल पूछने होंगे और अपने पैसे पर अधिकार जताना होगा।
सिर्फ नौकरियाँ पाना, ऊँची तनख़्वाह अर्जित करना या बड़े पदों पर पहुँच जाना पर्याप्त नहीं है। जब तक स्त्री अपने वित्तीय निर्णय स्वयं नहीं लेती, जब तक वह यह नहीं जानती कि कहाँ पैसा लगाया जाए, कहाँ नहीं; टैक्स कैसे भरा जाए; कौन-सी निवेश योजनाएँ उसके लिए लाभकारी हैं, तब तक वह केवल एक आर्थिक ‘कर्मचारी’ है, स्वतंत्र नागरिक नहीं।
समाज को भी यह स्वीकार करना होगा कि सशक्त स्त्री वही है जो अपनी कमाई को जानती है, समझती है और उस पर निर्णय ले सकती है। शिक्षा और आत्मनिर्भरता का मतलब सिर्फ बाहर नौकरी करना नहीं होता, उसका असली उद्देश्य यह है कि स्त्री हर क्षेत्र में बराबरी से खड़ी हो — चाहे वह भावनात्मक हो, सामाजिक हो या आर्थिक। फ़रीदाबाद, हरियाणा।

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