आँखों का तारा

आँखों का तारा
जे टी न्यूज

भरी दोपहरी।चमचमाती-जलाती धूप।पसीने से तर-बतर देह।आकर वह घर के बरामदे पर बैठ गयी।a
तभी बहू ने कहा—“आकर फिर बैठ गयी यहां। इसको तो और कहीं चैन ही नहीं मिलता है। ”
सत्तर साल की उस बूढ़ी ने जबाब दिया–“बाहर बहुत धूप है,बेटा !”
” तो क्या यहीं पड़ी रहना है ? पड़ी रह यहां। मैं ही चली जाती हूँ कहीं।”
वृद्धा ने आशा भरी नजरों से घर के अन्दर से निकलते हुए अपनी आँखों के तारे-अपने बेटे-की ओर निहारा।
बेटे ने भी कहा –“कहीं भी तो बैठ सकती हो।आंगन-घर में ही क्यों पड़ी रहना चाहती हो?”
वृद्धा ने अपनी लाठी संभाली।खड़ी होकर पति के साथ मिलकर संवारे-बनाये उस घर को देखा।फिर जैसे ही बेटे की ओर देखा,उसे लगा उसकी आँखों का तारा अब डूब चुका है।

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