विद्यानिवास मिश्र का लेखन बताता है भारत की बात -विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
विद्यानिवास मिश्र का लेखन बताता है भारत की बात -विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
जे टी न्यूज़, नई दिल्ली : साहित्य अकादेमी द्वारा पंडित विद्यानिवास मिश्र के जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर अकादेमी सभाकक्ष, रवींद्र भवन, नई दिल्ली में दो-दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन आरंभ हुआ। संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए प्रख्यात आलोचक, साहित्य अकादेमी के महत्तर सदस्य एवं पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र ललित निबंधकार के रूप में विख्यात थे परंतु उनका कृतित्व व्यापक है। उनके लेखन के केंद्र में सदैव भारतीयता रही है। आगे तिवारी जी ने कहा कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पंडित जी का उदय हुआ और उनके लेखों और पत्रकारिता ने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा कि जब पूरा भारत फ्रॉयड और मार्क्स की आँधी में बह रहा था तो दो-चार लोग ही ऐसे थे, जिन्होंने भारतीयता के परचम को बुलंद रखा उनमें पंडित विद्यानिवास मिश्र अग्रणी थे। उन्होंने कहा कि मिश्र जी के लेखों में लोकल से ग्लोबल तक का विवरण देखने को मिलता है। यदि भारत को समझना है तो विद्यानिवास मिश्र को समझना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा कि विद्यानिवास मिश्र ने यह सिद्ध किया कि सरल होना कितना कठिन कार्य है। पंडित जी जैसे लोगों ने ही पत्रकारिता की साख को बचाए रखा। कार्यक्रम के आरंभ में अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया और विद्यानिवास मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। आरंभिक वक्तव्य साहित्य अकादेमी हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक गोविंद मिश्र ने दिया तथा पंडित विद्यानिवास मिश्र के सरल हृदय व्यक्तित्व पर अपने विचार प्रस्तुत किया। संगोष्ठी में बीज-भाषण प्रतिष्ठित हिंदी विद्वान गिरीश्वर मिश्र ने प्रस्तुत किया। उन्होंने विस्तार से पंडित विद्यानिवास मिश्र के साहित्य में आत्मीयता से भरपूर लेखों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि मिश्र जी को अंग्रेज़ी का भी अच्छा ज्ञान था इसलिए उन्होंने हिंदी-अंग्रेज़ी के बीच सेतु का कार्य किया और कई महत्त्वपूर्ण कृतियों के अंग्रेज़ी अनुवाद भी किए। वे मूलरूप से संस्कृत के विद्वान थे परंतु उन्होंने जीवन भर हिंदी की सेवा की। साहित्य का आस्वादन उनका स्वभाव था। वह दूसरों को भी प्रेरित किया करते थे। उनका हमेशा यह प्रयास रहा कि साहित्य को जीवन से कैसे जोड़ा जाए। सत्र के अंत में अकादेमी की उपाध्यक्ष एवं महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की कुलपति, कुमुद शर्मा ने समाहार वक्तव्य दिया और पंडित जी के साथ बिताए क्षणों को याद किया। उन्होंने कहा कि मिश्र जी ने एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से जोड़ने वाली भावना को परखा और अपने लेखों में उसे प्रस्तुत किया। उनका जीवन खुला आकाश था। चाहे कोई किसी विचारधारा का हो, सबके लिए उनका दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था। उन्होंने यह भी कहा कि पंडित जी जीवन एवं साहित्य सब में अमृत बाँटते रहे। अपने गाँव की संस्कृति से उनको बहुत लगाव था जिसकी धड़कन उनके निबंधों में महसूस होती है।
आज का प्रथम सत्र जो ललित निबंधकार एवं संपादक के रूप में विद्यानिवास मिश्र शीर्षक से था, की अध्यक्षता श्याम सुंदर दुबे ने की एवं चंद्रकला त्रिपाठी और दयानिधि मिश्र ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। चंद्रकला त्रिपाठी ने उनके निबंधों में लोकतत्व के बारे में बोलते हुए कहा कि उनका लोक भी जनतांत्रिक है। आगे उन्होंने उनके संपादन कला की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने अपने श्रम से नए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की। वे भारतीय मेधा के एक गतिशील स्वरूप थे और उनकी विद्वता के अनेक पृष्ठ अभी भी अध खुले है। दयानिधि मिश्र ने विद्यानिवास मिश्र की 21 खंडों में रचनावली के संपादन के अनुभव सभी के साथ साझा करते हुए बताया कि इस दौरान उन्हें विद्यानिवास मिश्र जी के विस्तृत पाठक मंडल का ज्ञान हुआ, जो पूरे देश और विदेश में फैला हुआ है। उनके निबंधों की चर्चा करते हुए कहा कि उनके निबंधों का धरातल बहुत व्यापक था और निबंध की कला को वह पश्चिम से जोड़ने के सख्त विरुद्ध थे। अध्यक्षता कर रहे श्याम सुंदर दुबे ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र जी शास्त्रपक्ष एवं लोकपक्ष को अपनी दायीं और बाईं आँख समझ कर ही दोनों के बीच में ऐसा संतुलन बनाते थे, जिससे उनका लेखन दोनों के महत्त्व को प्रतिपादित करता था।
कार्यक्रम के अंत में साहित्य अकादेमी द्वारा विद्यानिवास मिश्र पर निर्मित वृत्तचित्र का प्रदर्शन भी किया गया।
साहित्य अकादेमी द्वारा विद्यानिवास मिश्र के जन्मशतवार्षिकी की दूसरे दिन की संगोष्ठी के प्रथम सत्र विद्यानिवास मिश्र का कला चिंतन विषय पर था जो नर्मदा प्रसाद उपाध्याय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ, जिसमें माधव हाडा एवं ज्योतिष जोशी ने अपने विचार व्यक्त किए। सर्वप्रथम बोलते हुए उन्होंने कहा कि विद्यानिवास मिश्र की कला दृष्टि बहुत ही व्यापक और अपूर्व थी। उन्होंने अपने विशलेषण में पारंपरिक कला दृष्टि का पक्ष लिया। वे कला को संपूर्णता को मापने का पैमाना मानते थे। विद्यानिवास मिश्र की दृष्टि में कला भारतीय समाज की सामूहिकता को प्रदर्शित करने वाली थी। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला को भी नैतिकता और भारतीय मनीषा तथा उसकी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में देखा और विवेचित किया । माधव हाडा ने कहा कि भारतीय कला की निर्भरता मिथकों पर है और वे निरंतर रूपांतरित होते रहते हैं। मिश्र जी की दृष्टि में भारतीय कला में एकरूपता का कोई नियम नहीं है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र भारतीय कला के जीवंत अधिवक्ता थे। वे कला में इतने रम चुके थे कि कला उनमें स्वयं मूर्तिगत हो चुकी थी। उन्होंने जीवन और कला को एक दूसरे से अलग नहीं समझा। उन्होंने खजुराहों को शिल्पों को संभावना के शिल्प में देखा। उन्होंने कालिदास के माध्यम से भारतीय कला को समझा और उसी की उदार परंपरा को अपने विवेचन का आधार बनाया।
अगला सत्र भारतीय परंपरा के संवाहक विद्यानिवास मिश्र पर केंद्रित था, जो नंदकिशोर आचार्य की अध्यक्षता में संपन्न हुआ और इसमें चित्तरंजन मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी और वागीश शुक्ल ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। ऑनलाइन जुड़े वागीश शुक्ल ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र संस्कृत के विद्वान होते हुए भी पश्चिमी धारणाओं के गहरे अध्येता थे और उनके साथ उनका लंबा संवाद भी रहा। उन्होंने वेद, संस्कृत, हिंदी साहित्य, लोक साहित्य और भारतीय संस्कृति को एक ही नजर से देखा और परखा। चित्तरंजन मिश्र ने कहा कि उन्होंने औपनिवेशिक पंरपराओं के बरक्स भारतीय परंपरा को अपने लिखने पढ़ने का आधार बनाया। उनके लिखे को गहराई से समझने के बाद ही हम उनको अच्छी तरह जान समझ सकते हैं। विद्यानिवास मिश्र की नजर में भारतीय संस्कृति ‘सबकी ओर से सबको देखने का उपक्रम है’ विद्यानिवास मिश्र जी का मानना था कि हम ही केवल लोक को नहीं देखते बल्कि लोक भी हमें देखता है। राधावल्लभ त्रिपाठी ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र अपने लोक शास्त्र के लिए तीन प्रमाण लोक/वेद और अध्यात्म पर निर्भर होते है। वे मानते है कि लोक पर ही सारा जीवन टिका है। विद्यानिवास मिश्र हमेशा परंपराओं को नवीन बनाने का संकल्प लेते है और उसे उसी तरह व्याख्याइत करते है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में नंद किशोर आचार्य ने कहा कि भारत की परंपरा मूलतः ऋत् परंपरा है। प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में पूरे विश्व से जुड़ा है। विद्यानिवास मिश्र पाँच ऋण और पाँच महायज्ञ की बात करते है। वे मानते है कि ऋण चुकाने का भाव समाज से जुड़ने का प्रयास है। उन्होंने भारतीय पंरपरा में जैन और बौद्ध धर्म की परंपराओं को शामिल न करने पर भी सवाल उठाया।
विद्यानिवास मिश्र की लोक संस्कृति और आलोचना साहित्य पर रामदेव शुक्ल की अध्यक्षता में हुए अंतिम सत्र में कृष्ण कुमार सिंह, विद्याबिंदु सिंह, अनुराधा गुप्ता ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। कृष्ण कुमार सिंह ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र जी का गद्य देश के सबसे बेहतरीन गद्य का नमूना है। पंडितजी के निबंध भारतेंदु मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी की परंपरा में आते हैं और उन्हें हसमुख गद्य कहा जाता है। उनकी भाषा से हजारों लोगों ने सुघड़ भाषा को पढ़ने का आनंद उठाया है। विद्याबिंदु सिंह ने विद्यानिवास मिश्र जी द्वारा शिष्य पंरपरा को पोषित करने के कई उदाहरण देते हुए कहा कि वे बहुत सहृदयता के साथ अपने शिष्यों का ध्यान रखते हैं और उनके लोकगीतों और लेखों में लोकचरित्र को बेहद मिठास के साथ याद किया। सुरेंद्र दुबे ने कहा कि उनका साहित्य लोक और संस्कृति दोनों से बेहद समृद्ध है। उनका लोक पुरातन/इतिहास या अतीत नहीं बल्कि सतत् और गतिमान है। इसीलिए वह लंबी यात्रा तय करता है। उनका लोक शास्त्र और उनका शास्त्र लोक से उदाहरण लेता है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में रामदेव शुक्ल ने विद्यानिवास मिश्र के व्यक्तित्व निर्माण में जिन लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही उनका उल्लेख करते हुए बताया कि उन्होंने कभी भी विद्वता पर कोई दंभ नहीं पाला और निरंतर अपने कार्य में संलग्न रहे। उन्होंने अपने साहित्य को स्वदेश के रूप में देश के कोने-कोने तक पहुँचाया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लेखक, विद्वान, छात्र-छात्राएँ, शोधार्थी और पत्रकार उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन अकादेमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।


