अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक 2025 अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक और पक्षपाती वकीलों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप

अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक 2025 अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक और पक्षपाती

वकीलों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप


जे टी न्यूज, दिल्ली: केंद्रीय कानून मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक 2025 अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक और पक्षपाती” विधेयक हैं | “यह विधेयक अधिवक्ताओं की एकता, स्वायत्तता और गरिमा के खिलाफ है और तानाशाहीपूर्ण प्रकृति का है। इस संशोधन विधेयक की सबसे विवादास्पद धारा 35A है, जिसमें उल्लेख किया गया है कि: “कोई भी अधिवक्ता संघ या उसके सदस्य या कोई भी अधिवक्ता, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से, अदालत के कार्य का बहिष्कार करने या उससे दूर रहने का आह्वान नहीं कर सकता, न ही किसी भी अधिवक्ता, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से, अदालत के कार्य का बहिष्कार करने या उससे दूर रहने का आह्वान नहीं कर सकता, न ही किसी भी प्रकार से अदालत के कामकाज में बाधा डाल सकता है या अदालत परिसर में कोई अवरोध उत्पन्न कर सकता है।” इस प्रावधान के तहत वकीलों द्वारा हड़ताल और बहिष्कार करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जा रहा है, जबकि यह पारंपरिक रूप से हमारी मांगें उठाने का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है। हालांकि, विधेयक में एक अपवाद भी दिया गया है, जिसके तहत प्रतीकात्मक या एक दिवसीय सांकेतिक हड़ताल की अनुमति होगी,बशर्ते कि इससे अदालत की कार्यवाही बाधित न हो या मुवक्किलों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। यदि कोई भी वकील इस प्रावधान का उल्लंघन करता है,तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती हैं। विधेयक की धारा 4 भी विवादास्पद है, क्योंकि इसमें केंद्र सरकार को बार काउंसिल ऑफ इंडिया में तीन सदस्यों को नामित करने की शक्ति देने का प्रस्ताव किया गया है। वर्तमान में, इसमें केवल भारत के अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल शामिल होते हैं। यह प्रावधान कानूनी पेशे की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता है।


वकीलों की आवाज़ को दबाने का प्रयास इस अधिनियम के तहत की जा रही हैं। वकीलों को कोर्ट के कामकाज से हड़ताल या बहिष्कार करने पर रोक लगाई गई है (धारा 35A)।यह प्रावधान वकीलों के *संवैधानिक अधिकार,(अनुच्छेद 19 – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का हनन करता है।
वकीलों एवं किसी नागरिकों को अपनी मांगों और समस्याओं को उठाने के लिए हड़ताल या बहिष्कार एक महत्वपूर्ण संवैधानिक हथियार होता है। इसे छीन लेना हमारी आवाज़ को दबाने जैसा है।कोर्ट के कार्य छोड़ कर अपने अधिकारों के लिए हड़ताल या बहिष्कार करने पर इस में अनुचित जुर्माने का प्रावधान शामिल किया गया है।


इस अधिनियम में वकीलों पर 3 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान है (धारा 35)।यह जुर्माना वकीलों के पेशेवर आचरण को लेकर है, लेकिन इसे लागू करने का तरीका पक्षपातपूर्ण हो सकता है।इससे वकीलों पर अनावश्यक दबाव बनेगा और उनकी स्वतंत्रता प्रभावित होगी।झूठी शिकायतों पर जुर्माना, लेकिन वकीलों के लिए कोई सुरक्षा नहीं।अगर कोई शिकायत झूठी या फ़िजूल पाई जाती है, तो शिकायतकर्ता पर 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है (धारा 35)।
हालांकि अगर वकील के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज की जाती है, तो उसके लिए कोई सुरक्षा नहीं है।
यह कानून एकतरफा और अन्यायपूर्ण है।
वकीलों को तुरंत निलंबित करने का अधिकार बार काउंसिल ऑफ इंडिया को दिया गया है कि वह किसी भी वकील को तुरंत निलंबित कर सकती है (धारा 36)।
यह प्रावधान वकीलों के खिलाफ दुरुपयोग को बढ़ावा दे सकता है।बिना उचित जांच के किसी को निलंबित करना अन्यायपूर्ण है।
न्याय प्रणाली में वकीलों की भूमिका को कमजोर करना अन्याय हैं।
वकील न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनके बिना न्याय प्रक्रिया अधूरी है।
इस अधिनियम के तहत वकीलों को अनुशासनात्मक कार्यवाही का डर दिखाकर उनकी स्वतंत्रता को कमजोर किया जा रहा है। यह न्याय प्रणाली के लिए खतरनाक है|
मेरा केन्द्र सरकार एवं केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय से यहीं सवाल हैं कि क्या वकीलो की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाकर कानून में निष्पक्षता, पारदर्शिता एवं न्याय सब के लिए सुलभ बनाई जा सकती हैं? नहीं । वकीलों के आवाज को बंद कराकर आप न्यायसंगत, समतापूर्ण और विकिसित राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं। इसलिए यह प्रस्ताव लाने लायक नहीं खारिज होने लायक हैं।’

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