प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, जनसंख्या विस्फोट , मानव सभ्यता के लिए खतरे की घंटी.. :आलोक कु श्रीवास्तव      

  रामगढ़वा पू च -: वह समय आ रहा है जब मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न होने का संकट आ चुका है। कोविड-19 महामारी भी इसी क्रम का एक हिस्सा है जिसकी दूसरी लहर का सामना हम सब कर रहे हैं। अभी तीसरी भयानक लहर की चर्चा भी जोरो पर है। उक्त बातें चैंबर ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्री रक्सौल के महासचिव आलोक कुमार श्रीवास्तव ने प्रेस वार्ता के दौरान शुक्रवार को कही। साथ ही उन्होंने कहा कि यदि हम सभी अभी भी अपनी घोर लापरवाही वाली जीवन जीने के तरीके को नहीं बदल पाए तो न जाने कितनी लहर और ऐसी कितनी महामारी को झेलने को अभिशप्त होना पड़ेगा ! 

     बेलगाम बढ़ती आबादी समूची दुनिया को समाप्त करने की ओर अग्रसर है। बच्चे पैदा करने में न कोई सोच, न कोई दृष्टि का विचार होना इस समस्या को और अधिक गंभीर बना रहा है।आधुनिकता की अंधी दौड़ वाले इस समय में भी जनसंख्या विस्फोट पर हम और हमारी सरकार नहीं सोच सकती तो यह बहुत बड़ी विडंबना के साथ एक भयंकर त्रासदी साबित हो सकती है।

      दुनिया की लगभग सारे देश और उनकी सत्ता की लड़ाई इस गंभीर समस्या पर कोई ठोस सोच-विचार व ईमानदार पहल नहीं कर पा रही है।यदि किसी देश में इस पर विचार भी आया तो कोई प्रकिया भी धरातल पर नहीं आया !

      सर्वविदित है कि प्राकृतिक संसाधन रोज घट रहे हैं। भूमि, जल और हवा में ऑक्सीजन की मात्रा की कमी मानव सभ्यता पर काल बनकर आने वाले हैं। वर्तमान में मानव सभ्यता के लिए पेड़ पौधे सबसे बड़ी जरूरत है जिसपर खानापूर्ति के अलावा कुछ भी नहीं। सरकारों को सत्ता के चक्कर मे कोई परवाह नहीं, कोई विज़न नहीं, कोई कार्यरूप नहीं और आमलोगों में येन केन प्रकारेण पैसा एकत्रित करने के सिवा कोई चेतना नहीं, कोई ज्ञान नहीं,कोई संवेदनशीलता नहीं।

      यह भी सच है कि लगातार घट रहे भूगर्भीय जल, घट रहे वनों का क्षेत्रफल, तदनुरूप विलुप्त हो रहे जीव-जंतु व पक्षी, घट रहे खेती के लिये भूमि की क्षेत्रफल, मानव सभ्यता के लिए त्रासदी का कारण बनेंगे।पर्यावरण को साफ रखनेवाले पेड़ पौधे में लगातार कमी हो रही है तो पर्यावरण को गंदगी मुक्त और सुरक्षित रखने वाले जीव- जंतु व पक्षी यथा चील, गौरैया आदि प्रदूषण के शिकार होकर विलुप्त हो रहे हैं।

      जनसंख्या विस्फोट का आलम यह है कि विश्व की जनसंख्या 1927 में लगभग 2 अरब थी , 1974 में लगभग 4 अरब और 2021 में लगभग 8 अरब हो चुकी है।यानि हर 47 साल पर जनसंख्या किसी भी मृत्यदर के बावजूद दोगुनी हो रही है।भारत की बात करें तो 1948 की जनसंख्या 36.1करोड़ थी, 1981 में 71.54 करोड़ थी, 2001 में 102.8 करोड़ थी और 2021 में लगभग 139 करोड़ होने को है।यानी पहला 33 साल में लगभग 1 करोड़ प्रतिवर्ष, दूसरा 20 साल में लगभग 1.50 करोड़ प्रतिवर्ष तथा 2001 -2021 के दौरान लगभग 1.8 करोड़ प्रतिवर्ष वृद्धि दर है।इस हिसाब से भारत की जनसंख्या 2050 में आसानी से 200 करोड़ होने जा रही है।

            इतनी बड़ी जनसंख्या को खिलाने के लिए अत्यधिक मात्रा में खाद और पेस्टिसाइड के प्रयोग के कारण अनेक तरह के बीमारियों के अलावा भूमि की प्रदूषण और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त हो रही है और उसकी ताकत के लिए भी पेड़-पौधे के पत्तों की जरूरत होती है।लगातार दूषित हो रहे जल, हवा, भूमि और घट रहे पेड़- पौधों,हिमस्खलन, टूट रहे पहाड़,ग्लोबल वार्मिंग और धरती असंतुलन के कारण वायुमंडल और पर्यावरण का ताना बाना बदल रहा है जो हर प्रकार से मानव सभ्यता की आयु को सीमित कर रहा है।यह घोर चिंता का विषय है और पूरे जनमानस को अभी से भी सोचने पर मजबूर कर रहा है। क्या हम आनेवाले पीढ़ी (शायद पीढ़ियों) को अनमोल और अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों से वंचित कर केवल कागज के चंद रुपयों से संतुष्ट और खुश कर देना चाहते हैं ?

      यदि इस पूरे प्रकरण को भारत के पर्यावरणीय परिपेक्ष्य में देखा जाए तो स्थिति अत्यंत ही भयावह है।भारत की बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या इसे और ज्यादा भयावह बना रही है। पूरे विश्व मे सबसे खराब पर्यावरणीय स्थिति, जल,हवा,भूमि,नदी व पहाड़ों को सबसे ज्यादा प्रदूषण से होनेवाले नुकसान व भूस्खलन आदि से भारत की समस्या और विकट होती जा रही है।

          पूरे विश्व में आर्थिक व्यवस्था चंद लोगों के बीच सिमटने से गरीबी बढ़ रही है।नोटों का सर्कुलेशन कम हो रहा है।लिहाजा बढ़ती जनसंख्या और खेती योग्य घटती भूमि के कारण अन्न की घोर समस्या और उससे उत्पन्न अनेकानेक समस्याओं से इनकार नहीं किया जा सकता है।भविष्य में अन्न युद्ध की संभावना भी प्रबल है।

        हम जल, वायु, भूमि,वन पहाड़, पेड़-पौधा इत्यादि के संरक्षण की बात तो करते हैं लेकिन चेतनाशून्य होकर, महज खानापूर्ति के लिए।प्रकृति के साथ इंसानों का लगातार घोर अप्राकृतिक व्यवहार कहीं न कहीं हमारा ही अहित कर रहा है।

    इसी तरह यदि हम चेतनाशून्य, विवेकहीन होकर देखते रहे तो कोई जरूरी नहीं कि मानव सभ्यता 22 वीं सदी को देख पाये।

Edited By :- savita maurya

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