*मुर्दे की व्यथा: जिंदा ही कब थे हम

*मुर्दे की व्यथा: जिंदा ही कब थे हम*

 

जेटी न्यूज़।

*गंगा में तैरती हुई एक लाश ने दूसरी से पूछा;*
*अरे आप भी?आप कब मरे?*मुर्दा कुछ गम्भीर होकर बोला,*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*
*बहुत पहले ही तो मर चुके थे हम।*

*जब चुप चाप देख रहे थे नजारा,जब कोई हक लूट रहा था हमारा;*
*कब बोले थे,कब उठे थे* *अधिकारों के लिए हम,*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*

*जब जरूरत थी देश को,*
*स्कूल,हस्पताल और काम की,*
*हम बातें कर रहे थे मंदिर,* *मस्जिद और पाकिस्तान की;*
*जात-पात और धर्म के नशे में चूर थे हम;*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*

*किसान मजदूर सड़क पर था,*
*अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था;*
*जब देश का हर एक संस्थान,कोड़ी के दाम बिक रहा था;*
*हो रहा था जुल्म बुद्धिजीवियों पर;*
*किसी कोने में बैठे,*
*खिलखिला रहे थे हम;*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*

*जब बेरोजगार,काम के लिए भटक रहा था,*
*जब मरीज हस्पतालों के बीच मे ही लटक रहा था,*
*जब पीटे जा रहे थे विद्यार्थी,*
*लगाकर झूठे देश द्रोह के जुर्म,*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*

*जिंदापन्न तो एक नाटक था,*
*कितने लम्बे समय से नफरत का जहर निगल रहे थे हम,*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*

*कभी ताली,कभी थाली,तो कभी दीए जला रहे थे,*
*ऐसे नाटकों से क्रोना को भगा रहे थे;*
*जब लेनी थी दवा,तब गोमूत्र पी रहे थे ,*
*जब एकांत में रहना था,*
*तब रैलियों में जा रहे थे हम;*
*दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?*

*जब अस्मत लूटने वाले छूट रहे थे,*
*पीड़िताओं पर मुकद्दमे हो रहे थे,*
*जब बलात्कारियों के समर्थन में जलूसों पर चुप बैठे थे हम;*
*दोस्त,जिंदा ही कब थे हम?*
*बस फर्क सिर्फ इतना ही है;*
*अब रुकी है,तब चल रही थी सांसे;*
*हम जिंदा भी मुर्दे थे,*
*आज बस मरे हुए मुर्दे हैं हम*

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