अरे अरे! ये कहाँ फसे हम, यहां हर जगह मिलावट ही मिलावट है

अरे अरे! ये कहाँ फसे हम, यहां हर जगह मिलावट ही मिलावट है
जे टी

सच में वह पौराणिक ज़माना भी क्या ज़माना था, जहाँ शुद्धता थी, जहाँ घर भी अंदर से घर हुआ करता था, जहाँ भोजन भी शाकाहारी और शुद्ध था। अब तो हर जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ मिलावट है, सरकारी नौकरी हो या भोजन हो, इंसान हो या पैसा हो, धर्म हो या राजनीती हो।
कभी – कभी जानके अफ़सोस होता है ये कहाँ आ फसे हम। यहां तो मकड़ी के जाल से घना जाल बिछाया हुआ है। हर जगह फैला खोट है, हर जगह इंसान के इरादे भी फटी नोट से है। अच्छाई नहीं अब सिर्फ़ बुराई का ज़माना है, सेहर – सेहर में पैसों के लिए जान लेने की आतिशबाज़ी का शोर है। दर्द का कोहराम, और डर का शोर दूर – दूर तक एहसास होता है। अपने फ़ायदा के लिए यहाँ इंसान, इंसान का भी नहीं है। सब अपना कहके छुरा भोंकने वाले माफिया है। हर जगह गंदी इरादों का नज़रिया और सोच से ये समाज घिरा पड़ा है।

एक था वह ज़माना, जहाँ खुलकर सांस तो ले सकते थे। न प्रकृति के हवा में मिलावट थी। न ही जानवरों को पेड़ काटने का डर था। अब ज़माना सिर्फ़ स्वार्थ, लालच, अहंकार, प्रतिशोध, क्रोध और ओछेपन से भरा हुआ है। अब सही में अफ़सोस होता है, अरे अरे! ये कहाँ फसे हम, यहां हर जगह मिलावट ही मिलावट है।

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