जननायक कर्पूरी ठाकुर जन्म शताब्दी (24 जनवरी, 1924)
जननायक कर्पूरी ठाकुर जन्म शताब्दी (24 जनवरी, 1924)
“सामाजिक न्याय एवं सामाजिक समरसता के सूत्रधार जननायक कर्पूरी ठाकुर”
– रामनाथ ठाकुर नेता, संसदीय दल (राज्यसभा)
ज्नता दल (यू)
जननायक कर्पूरी ठाकुर जी के जन्म शताब्दी वर्ष (24 जनवरी, 1924) पर उन्हें सादर स्मरण करना कोई कैसे भूल सकता है आडम्बरविहीन और सादगीपूर्ण उनकी जीवन शैली अनुकरणीय थी। उनकी निष्पक्षता, निष्कपटता, उदारता और सदाशयता की विनम्र छवि बहुत सारे लोगों को आकर्षित करती थी। सद्व्यवहार एवं सदाचार उनके विरल व्यक्तित्व में दुग्ध-सर्करा की भाँति मिली जुली और घुली थी। मानवोचित गुणों से परिपूर्ण ठेठ ग्रामीण पहचाना वाकई उन्हें आडम्बरविहीन बना देता था। जननायक कर्पूरी का ज्येष्ठ पुत्र होने का गौरव मुझे जरूर प्राप्त है, परंतु मैंने कभी इस पर अभिमान प्रदर्शित करने का प्रयास नहीं किया। बड़े-बड़े लोग अपने परिवारजनों को राजनीति में स्थापित करने के लिए अपने जीवनकाल में ही जोड़-तोड़ और सारे इन्तजाम कर देते है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ठाकुर जी अपने अनमोल जीवन और परिजनों को उपकृत और लाभ पहुँचाने की अपेक्षा अपने सिद्धांतों, आदशों एवं मूल्यों को प्रश्रय देते थे। परिवारवाद और वंशवाद को जनतंत्र के लिए घातक मानते थे। निरन्तर वे इस परिपार्टी और चलन का विरोध करते रहे। अपनी संतानों को राजनीति में उतारने के लिए कभी भी अपने आदर्शों और सिद्धांतो से समझौता नहीं किया। मेरे उपर उनके आभामंडल का प्रभाव इतना प्रबल था कि मैंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कभी उभरने नहीं दिया। एक राजनीतिक परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ था, अतः राजनीति महत्वाकांक्षा अस्वाभाविक नहीं थी। सच बताता हूँ, यदि मैं बालहठ पर उतारू हो जाता तो ठाकुर जी राजनीति से सन्यास ले लेते। वे बड़े ही दृढ़ निश्चयी थे। संसार मुझे कोसता रहता। पुत्रधर्म का निर्वाह करते हुए उनकी निष्कलंक छवि को मैंने धूमिल नहीं होने दिया।
आज जब सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है तो बिहार राज्य में प्रचलित आरक्षण का ‘कर्पूरी फार्मूला’ के अध्ययन और विश्लेषण की नितान्त आवश्ययकता है। मानवीय समाज के विकास के विभिन्न काल खंडों में सामाजिक चिंतन और आन्दोलन के विविध रूप रहे है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में वर्ण-व्यवस्था और जाति प्रथा का व्यापक असर रहा है। काफी हद तक इसे जनजीवन प्रभावित होता रहा है। आज के संदर्भ में यह उल्लेख्य है कि राजनीतिक परिवर्तन जातीय समीकरण एवं एकीकरण से प्रभावित होता है। जातीय संरचना ऐसी थी जिसमें विषमता एवं भेदभाव की प्रधानता थी। जाति प्रथा की बुराईयों को दूर करने का यथासम्भव प्रयास कई युगपुरूषों चिन्तकों एवं समाज सुधारकोंने समय-समय पर किया है। इतिहास साक्षी है कि क्षत्रिय कुल का युवराज होते हुए सत्य की खोज के लिए महात्मा बुद्ध राजपाट छोड़कर सन्यासी बन गए थे। महात्मा बुद्ध ने जाति प्रथा का मुखर विरोध किया था। छुआछूत समाप्त करने का उनका अभियान जन-जन तक पहुँचा था। संत शिरोमणी कबीर दास ने जाति प्रथा पर जोरदार प्रहार किया था। कबीर की वाणी कटु हुआ करती थी पसु उसमें सच्चाई का अंश भी विद्यमान था। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रभावशाली स्तम्भ और कोटि-कोटि जनता के विश्वसनीय नायक डा.राम मनोहर लोहिया ने भारतीय सामाजिक संरचना को भेदभावपूर्ण एवं अन्याय पर आधारित बताया। उन्होंने यहाँ तक कहा कि वर्ण-व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण ही भारत वर्ष शदियों तक परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। डा. लोहिया की बौद्धिक प्रखरता उनके विरोधी भी स्वीकार करत थे। अपने विभिन्न आलेखों, संस्मरणों, लेखों एवं अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं (किताबों) में जाति प्रथा के विरूद्ध आवाज बुलन्द की थी। उन्होंने पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों के मुख्य धारा में लाने के उद्देश्य से विशेष अवसर के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था जिसे आरक्षण का नाम दिया गया। नर-नारी की समानता के वे प्रबल समर्थक थे।
भारत के समाजवादी आंदोलन में जननायक कर्पूरी ठाकुर जी ने सक्रिय भूमिका निभाई। कई सामाजिक आन्दोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। खासकर बिहार में ठाकुर जी के जुझारूपन के कारण सामाजिक क्रांति धारदार और असरदार बन सकी। उनके समकालीन लोग उन्हें सामाजिक परिवर्तन का अग्रदूत मानते थे। समाजवादी आंदोलन के इतिहास को निरपेक्ष भाव से देखने पर यह तथ्य उजागर करने योग्य प्रतीत होता है कि उच्च वर्ण के विद्धान, चिंतक और राजनीतिक नेताओं ने नागरिकों में सामाजिक चेतना जागृत करने में महती भूमिका निभाई। उनका कहना था कि भारतीय सामाजिक संरचना भेदभाव एवं असमानता पर आधरित थी। समाजवादी सवर्ण समाज के दिग्गज नेता समानता के सिद्धान्त पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के पैरोकार थे और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे। देश और प्रदेश के ऐसे रहनुमाओं को सादर स्मरण करना चाहूँगा। राष्ट्रीय स्तर पर स्मृतिशेष एस.एम. जोशी, मधु लिमये, राजनारायण, पंडित रामनंदन मिश्र, जार्ज फर्णाडिस एवं राज्य स्तर पर पंडित रामानन्द तिवारी, सूरजनारायण सिंह, श्री कृष्ण सिंह, श्री कपिलदेव सिंह के नाम उल्लेखनीय है। समाजवाद के सिद्धांतों, कार्यक्रमों, उद्देश्यों एवं नीतिगत निर्णयोमें इन सब के विचारों को प्रमुखता दी जाती थी। ऐसे विचारवान संवेदनशील एवं सिद्धांतनिष्ठ व्यक्तियों ने समाज के दबे-कुचले उपेक्षित और तिस्कृत लोगों को विशेष अवसर प्रदान कर उन्हें सामाजिक विकास की मुख्य धारा में लाने के बड़े हिमायती थे। ठाकुर जी निष्काम कर्मयोगी थे। भारतीय संविधान और संसदीय लोकतंत्र में उनकी अटूट आस्था थी। किसी भी देश का संविधान वहाँ के रीति-रिवाजों, धार्मिक अस्थाओं, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है। इंगलैंड का संविधान परम्पराओं पर आप्त है। इस देश की गणना एवं विकसित, जागरूक और शिक्षित देश के रूप में की जाती है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में नर-नारी के बीच असमानता विद्यमान थी। यह एक सच्चाई है कि महिलाओं को मताधिकार का कानून कई वर्षों के इन्तजार के बाद 1911 में बना। यह कहा जाता है कि भारत का संविधान इंगलैंड के संविधान से प्रभावित है परंतु नर-नारी समानता में भारत में स्थिति बेहतर है। संविधान लागू होते ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हो गया। भारत विविधता में एकता वाला देश है। यहा विभिन्न धर्मो, सम्प्रदायों, समूहों एवं पंथो के लोग निवास करते है। भारत के संविधान के निर्माताओं ने इन सभी पहलुओं का गहन अध्ययन, चिंतन और मनन के पश्चात संविधान की रचना की। संविधान पर गाँधीवादी दर्शन का विशेष प्रभाव है। इसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। शदियों से मानव समाज स्वतंत्रता एवं समानता की प्राप्ति के लिए आंदोलन और संघर्ष करता रहा है। भारत के संविधान में अन्य मौलिक अधिकारों के साथ ही स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकारों को सम्मिलित किया गया है। समानता के अधिकारों का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में किया गया है। जनकल्याण के मुद्दे को दृष्टिगत रखते हुए समानता के अधिकारों में कतिपय समवैधानिक संशोधन संसद द्वारा किए गए है। अभी हाल में ही सामान्य वर्ग (सवर्ण) के गरीब व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा इत्यादि के क्षेत्र में आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया है। राज्यसभा में संविधान संशोधन के पक्ष में मतदान कर मैंने इस अहम मुहिम में साक्षी बनने का काम किया है। यहाँ मैं माननीय सांसद (लोकसभा) एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री हुकुमदेव नारायण यादव जी द्वारा 8 जनवरी 2019 को लोकसभा में दिये गये भाषण को शिष्टाचारवश उद्धृत कर रहा हूँ-“समाजवादी आंदोलन में हमारे उँची जाति के लोग, आज मैं जिनको स्मरण करता हूँ, डॉ. वैद्यनाथ झा, डॉशिवचन्द्र झा, दिगम्बर ठाकुर, भगीरथ झा जब ये लोग हमारे साथ समाजवादी आंदोलन में चलते थे और कहते थे कि ‘डा. लोहिया ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’। उस समय जब मैं उनके घर पर जाता था, वे साधारण परिवार के गरीब लोग थे। वे मुझे कहते थे कि कभी आप लोगों का राज आएगा तो उँची जाति, बाह्मण के भी गरीब बच्चे है, उनके लिए भी सोचिएगा। उनके मन में एक अरमान था कि कभी पिछड़ी जाति का ऐसा आदमी सत्ता में आएगा, जो संपूर्ण समाज के समग्र विकास के लिए सोचेगा और उस दिन उंची जाति के गरीबों के भी बच्चों के अरमान को पूरा करेगा, मैं सोचता हूँ कि वह दिन आ गया। बिहार में रामानंद तिवारी, कपिलदेव सिंह, श्री कृष्ण सिंह, सच्चिदानंद सिंह जब ये लोग कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में लड़ते थे, मैं जानता हूं कि जब बाबू सत्येन्द्र नारायण सिंह के साथ वर्ष 1977 में कर्पूरी ठाकुर जी के नेतृत्व का संघर्ष हुआ था तो उस समय मेरी पार्टी में, जनता पार्टी में 33 राजपूत थे, उनमे से 17 राजपूतों ने कर्पूरी ठाकुर का समर्थन किया था, बाबू सत्येन्द्र नारायण सिंह का समर्थन नहीं किया था। मुलायम सिंह जी और अखिलेश को बनाने में जनेश्वर मिश्रा का क्या इनके पसीने से कम योगदान है, बृजभूषण तिवारी का कम योगदान है, मोहन सिंह का कम योगदान है, राजनारायण का कम योगदान है? आप उनको धन्यवाद दो।
यह उल्लेख करना अप्रसांगितत नहीं होगा कि जननायक कर्पूरी ठाकुर जी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में (1978) समवैधानिक प्रावधनों का अनुपालन करते हुए सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर 26 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की थी। इस व्यवस्था में सामान्य वर्ग (सवर्ण) के गरीब लोगों को आर्थिक आधार पर 3 प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिया गया था। इसमें सभी जातियों की महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत आरक्षण की स्वीकृति प्रदान की गई थी। आज की परिस्थिति में प्रबुधजन जरूर स्वीकार करेंगे कि आज से 40 वर्ष पूर्व पिछड़े वर्ग की शिक्षित महिलाओ की संख्या कितनी हुआ करती थी? खासकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली पिछड़ी जातियों की महिलाओं की संख्या नगण्य थी। उच्च वर्ण की महिलाओं की मेघा के समक्ष पिछड़े वर्ग की महिलाए टिक नहीं सकती थी, कुछ अपवाद हो सकता है। इस प्रकार गणित साफ है। उच्च वर्ण के पुरूष और महिलाओं को मिलाकर कुल 6 प्रतिशत आरक्षण व्यावहारिक रूप से सवर्ण समूहों के पक्ष में था। बिहार राज्य की उस समय की जनसंख्या के लिहाज से आरक्षण का प्रावधान न्यायोचित और तर्क संगत था। इस प्रकार आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था की नींव ठाकुर जी ने डाली थी। समन्वय, संतुलन, सद्भाव और सामंजस्य स्थापित करनेवाली आरक्षण की व्यवस्था को तब आरक्षण का “कर्पूरी फार्मूला के रूप में प्रचारित किया गया था। “कर्पूरी फार्मूला सामाजिक सद्भाव कायम करनेवाला संतुलित फार्मूला था जिसमें समाज के सभी वर्गों को हिस्सेदारी मिली हुई थी। ठाकुर जी ने सामाजिक न्याय के साथ सामाजिक समरसता कायम करने का सप्रयास किया। उपयुक्त निर्णय में कर्पूरी मंत्रीमंडल में शामिल सभी सवर्ण मंत्रियों एवं नेताओं की सहमति थी। जननायक कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल में अलाभकारी जोत पर से मालगुजारी को समाप्त करना, मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना, हाई स्कूल तक
की पढ़ाई के लिए सभी बच्चों का फीस माफ करना, सामाजिक और आर्थिक आधार पर बिहार सरकार की सेवा में आरक्षण देना, नदियों की घाट पर खेवा (कर) लगता था उसको समाप्त करना, प्राथमिक विद्यालय में सभी बच्चों को किताब, कॉपी, पैंसिल देनाइत्यादि काम असाधारण काम थे जो वैज्ञानिकता के साथ सामाजिक और आर्थिक समरसता को लाने का प्रयास किया। तत्कालीन जनसंघ घटक और जनता पार्टी में विलयित दल के नेता कैलाशपति मिश्र वरिष्ठ मंत्री थे। श्री चन्द्रशेखर जो तत्कालीन जनता पार्टी के माननीय अध्यक्ष जो स्वयं सवर्ण थे और “युवा तुर्क” के रूप में बहुचर्चित एवं बहु प्रशंसित थे, आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की स्वीकृति प्रदान की थी। जनता पार्टी के घोषणा पत्र में सामाजिक आधार पर आरक्षण देने का वादा किया गया था। इतना सब होने के बाबजूद केवल ठाकुर जी को प्रताड़ित किया गया। अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर उनकी कटु आलोचना की गई। कई प्रकार की अशोभनीय टिप्पणियों उनके विरूद्ध की गई। अपमान का विष पीकर भी अपने सार्वजनिक जीवन में विचलित और हतोत्साह नहीं हुए बल्कि अदम्य साहस और संकल्प के साथ वंचितों, उपेक्षितों और प्रताड़ितों को ललकारते और झकझोरते रहे। पूर्व मुख्यमंत्री और सवर्ण वर्ग से आने वाले सम्मानित नेता श्री जगन्नाथ मिश्रा जी ने आरक्षण के “कर्पूरी फार्मूला को सही करार दिया और इसकी हिमायत की। महिलाओं को अलग से 3 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने की सार्थकता माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के महिलाओं के पक्ष के लिए निर्णय से साबित होती है। भाई नीतीश कुमार जी का नारा है ‘आरक्षित रोजगार, महिलाओं का अधिकार। महिला सशक्तिकरण के अभियान को दृढ़ता प्रदान करते हुए राज्य की सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय आरक्षण के “कर्पूरी
फार्मूला” को विस्तार देता है, सही सिद्ध करता है। साठ-सत्तर के दशक में हिन्दुस्तान की मध्य जातियों में तीव्र गति से राजनीतिक जागृति पैदा हो रही थी। अपने बिहार में भी शासन व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के लिए मध्य जातियों में व्यग्रता और वेचैनी विद्यमान थी। यदि आरक्षण का प्रावधन नहीं किया जाता तो वंचित समाज के लोग अधिकार माँगने के लिए हिंसक आंदोलन में सक्रिय हो जाते। सामाजिक ताना बाना ऐसा टूटता कि फिर उसे जोड़ना मुश्किल हो जाता। ठाकुर जी ने इस सच्चाई को समझकर ही निर्णय लिया होगा। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में हम कह सकते हैं:-
“शांति नही तब तक, जबतक सुखभोग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।”