कोरोना को लेकर मुख्यमंत्री के राहत पैकेज से पत्रकार क्यों हुए वंचित?

राज्य सरकार पत्रकारों की कर रही अवहेलना...।

पटना

देखा जाय तो लगभग पूरे देश में लॉक डाउन की घोषणा हो चुकी है। देश के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है, जब पूरा देश एक वायरस को लेकर थम गया है। बिहार के मुख्यमंत्री ने कुछ सेवाओं को छोड़कर करीब-करीब लॉक डाउन घोषित हो चुका है। सड़कें सूनी हैं, कार्यालयों में ताले हैं, स्कूल, कॉलेज, प्रतिष्ठान, चाहे गैर सरकारी हो या सरकारी सब के सब बंद हैं।देखा जाय तो पूरा विश्व आज कोरोना के चपेटे में है।


पूरी मानव जाति के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। शुरुआती दौर में जहां हिंदुस्तान में इस संकट के फैलने की रफ्तार काफी धीमी थी, आज कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़कर 492 पहुंच चुकी है। मृतकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जो बढ़कर अभी 9 तक पहुँच गयी है ।

याद कीजिये चमकी बुखार जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से होते हुए बिहार के मुजफ्फरपुर पहुँची थी, चमकी बुखार में लगभग 300 मौतें हुई थी। हालांकि उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने काफी शक्ति बरती थी जिस कारण ये सिलसिला थमा। इतनी ज्यादा संख्या में बच्चों के मौत को लेकर स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय की भूमिका सही नहीं कहा जा सकता है। किंतु कोरोना की विकराल स्थिति को देखते हुए सोमवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कुछ राहत पैकेज की घोषणा की है। जिसमें कहा गया है कि डॉक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों को एक माह का मूल वेतन अलग से प्रोत्साहन राशि के तौर पर देने का ऐलान किया है। बिहार सरकार ने सभी राशन कार्डधारी परिवारों को एक महीने का राशन मुफ्त देने की घोषणा भी की है। राशनकार्डधारीयों को भी 1000/- दिए जाने की घोषणा किए हैं।

साथ हीं वृद्धजन पेंशन, दिव्यांगजन पेंशन, विधवा पेंशन और वृद्धावस्‍था पेंशन के तहत सभी को तीन माह की पेंशन तत्काल अग्रिम तौर पर ही दी जाएगी। ये राशि सीधे उनके खाते में डाली जाएगी।

 

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या पत्रकारों को इसमें शामिल नहीं करना चाहिए? क्या ये किसी से छिपी है कि चंद पत्रकारों को छोड़ दे तो पत्रकार मुख्यतः गरीब की श्रेणी में होता है। क्या बेहतर नहीं होता कि सभी मीडिया हाउस के ब्यूरो चीफ से जो हर जिले में है चाहे प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या वेब मीडिया से हो, लिस्ट मंगवाते और उन्हें भी जहाँ तक संभव होता राहत पैकेज देते।

आखिर मीडया कर्मियों को राहत पैकेज से वंचित क्यों रखा गया है। अपने व अपने परिवार की जान जोखिम में डालकर दिनभर रिपोर्टिंग करें, प्रदेश के लोगों को खबर उपलब्ध कराए, लेकिन प्रदेश सरकार से मीडयाकर्मी ही उपेक्षा के शिकार हो जाय। सभी जानते हैं कि मीडिया कर्मियों की वेतन कितनी होती है और काम का दवाब कितना ज्यादा होता है, कितने मीडया बंधु तो फ्री में भी सेवा देते हैं। कहने का अर्थ यही है किसी तरह से सभी पत्रकार भाई अपना जीवन यापन करते हैं।भगवान ना करें किसी मीडिया कर्मी भाई रिपोर्टिंग करते-करते कोरोना के शिकार हो जाते हैं तो इसकी जवाबदेही कौन तय करेगा। जो कि संभव है क्योंकि रिपोर्टिंग करने के लिये मीडया कर्मी को बाहर निकलना ही है जैसा कि प्रदेश सरकार भी दिशा निर्देश जारी किये हैं, क्या कोरोना वायरस इनके रिस्तेदार तो नहीं लगते जो मीडया कर्मियों को संक्रमित नहीं करेंगे। ऐसी विकट घड़ी में उनको देखने वाला आखिर कौन होगा?

आज हर किसी की जुबान पर एक सवाल है, आखिर ये कब तक चलने वाला है? एक तरफ कोरोना से मौत का भय, दूसरी ओर पत्रकारिता करने का दवाब। अभी जब हमने पटना के संवाददाता, पत्रकार मित्र आशीष विकास से बात की तो उन्होंने बताया कि जो चावल दो दिन पहले 900 रुपये बोरी थी वही मंगलवार को 1100 रुपये बोरी बिक रही। यही स्थिति सब्जी की है, किराने के समान की भी यही स्थिति है। साथ ही साथ बाजार में मास्क, सेनेटाइजर की ब्लैक मार्केटिंग जोरों पर चल रही है। केवल कागजों पर मास्क व सेनेटाइजर की कीमत तय की गई है किंतु हकीकत में क्या कीमत है किसी से छिपी नहीं। बेहतर होता मास्क व सेनेटाइजर सरकार मुफ्त कर देती या कम से कम दवा दुकानों को जी.एस.टी. फ्री कर देती। स्थिति यह है कि डॉ. को भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है कई जरूरी चीजें। अर्थात इससे सिद्ध होता है कि इस महामारी में भी सरकार अपना कोष भरने में जुटी है। पैसा सीधे खाते में जाएंगे लेकिन निकलेगा कहां से? क्या पैसा निकालने में सोशल गेडरिंग नहीं होंगे? कुल मिलाकर सरकार गरीबों को बली का बकरा बनाने वाली है। “एक तरफ सरकार का लाॅक डाउन दूसरी तरफ पत्रकार का पाॅकेट डाउन।”

हर चीज के दाम आसमान छूने लगे हैं। ऐसे में पत्रकार अपना जीवन यापन कैसे करें। बिहार सरकार को शीघ्र इस समस्या का समाधान निकालना चाहिए, नहीं तो बहुत जल्द एक नई समस्या उत्पन्न हो सकती है। अगर प्रदेश के सारे पत्रकार एक साथ सामूहिक अवकाश लेते हैं जो कि संभव भी है, आखिर अपनी जान अपने परिवार की चिंता किसे नहीं सताता है। हिंदुस्तान में मीडिया वर्ग को देश का चौथा स्तंभ माना जाता है, ऐसे में प्रदेश की सरकार इसी वर्ग की उपेक्षा कर रही है। ये भी खाते हैं, इनका भी परिवार है, ये बात सही है कि इनकी नैतिक जवाबदेही होती है समाज को सत्य दिखाने की, पर सरकार की क्या कोई नैतिक जवाबदेही नहीं होती मीडिया कर्मियों को लेकर?

बरहाल प्रदेश की सरकार को मीडिया कर्मियों के लिए गंभीरता से विचार करना होगा।

जेटी न्यूज़- संजीव मिश्रा।

Related Articles

Back to top button