क्या आपको सोमनाथ चटर्जी याद हैं ?
क्या आपको सोमनाथ चटर्जी याद हैं
जे टी न्यूज
वही सोमनाथ चटर्जी जिन्होंने स्पीकर के पद की गरिमा को बचाए रखने के लिए उस पार्टी से निष्कासन को अपनी जिंदगी के शायद सबसे बड़े दुःख के रूप में स्वीकार कर लिया था जो पार्टी उनके रोम रोम में बसी थी।
सुप्रीम कोर्ट के दिग्गज वकील रहे सोमनाथ चटर्जी एक ऐसे कम्युनिस्ट थे जिनकी मिसाल उनके वैचारिक विरोधी भी देते थे,लेकिन जब उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के पद का दायित्व संभाला तो उन्होंने उस पद से जुड़ी निष्पक्षता की पहली शर्त को आखिरी दिन तक निभाया।
उनकी पहल पर ही 2004 में डेडीकेटेड संसदीय चैनल शुरू हुआ और संसद की कार्रवाई के सीधे प्रसारण के लिए दो समर्पित उपग्रह चैनल स्थापित किए गए(सोर्स: विकिपीडिया)
वो लोकतंत्र और पारदर्शिता के ऐसे ही हिमायती थे।
सोमनाथ चटर्जी पूरे कार्यकाल में इस बात के लिए जाने जाते रहे कि उन्होंने लोकसभा में विपक्ष की आवाज को दबने नहीं दिया बल्कि उसे ताकत दी।
उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की भावनाओं के अनुरूप ही सदन का संचालन किया और बतौर स्पीकर सभी के लिए स्वीकार्य बने रहेl
उन्होंने अपनी पार्टी के संविधान से पहले अपने पद के दायित्वों के साथ देश के संविधान की चिंता की।
वो साल था 2008 और उनके स्पीकर होने के बावजूद सीपीआई(एम) ने विश्वास मत के खिलाफ वोट डालने वाले पार्टी सांसदों की लिस्ट में सोमनाथ चटर्जी का नाम शामिल किया था।
याद होगा कि भारत–अमरीका परमाणु समझौते के विरोध में वाम मोर्चा की पहल पर विपक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया था।
अविश्वास प्रस्ताव तो गिर गया था।मनमोहन सरकार ने विश्वास मत जीता था।लेकिन तब लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने देश के संसदीय इतिहास में एक मिसाल कायम की थी।
यह मिसाल निष्पक्षता की थी।
वे सीपीआईएम के सदस्य थे,दस बार सांसद रहे,स्पीकर के पद पर उनके चयन को तब की बीजेपी का भी समर्थन था।लेकिन जब अविश्वास प्रस्ताव आया तब उनकी अपनी पार्टी की उनसे अपेक्षा थी कि वे स्पीकर के पद से इस्तीफा देकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट करें।सोमनाथ चटर्जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया।वे स्पीकर बने रहे।उन्हें सीपीआई(एम) से निष्कासित कर दिया गया।
इस निष्कासन पर उनकी टिप्पणी थी कि ये मेरे जीवन का सबसे दुखद दिन है।
2009 में उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया था।लेकिन बंगाल में वो वामपंथियों के उतने ही चहते बने रहे।वे फिर पार्टी में शामिल नहीं हुए,चुनाव नहीं लड़ा,लेकिन वाम मोर्चा के पक्ष में चुनावी रैलियों में हिस्सा लिया,संबोधित किया।
सार्वजनिक जीवन में शुचिता और निष्पक्षता की मिसाल कायम रखना दोयम दर्जे के लोगों के बस की बात होती नहीं।
सोमनाथ चटर्जी कठोर निर्णय लेने वाले राजनेता थे।
उन्होंने अपने निवास पर सरकारी फिजूलखर्ची बंद करवाई,विदेश यात्रा में परिवार का कोई सदस्य साथ गया तो उसका खर्च खुद वहन किया।
उन्होंने लोकसभा की गरिमा और स्पीकर से निष्पक्षता की अपेक्षा की खातिर अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा दर्द सहा।
आज स्पीकर ओम बिरला बार–बार याद दिला रहे हैं कि उस कुर्सी पर कभी सोमनाथ चटर्जी भी बैठे थे जिन्होंने अपने पद की गरिमा को कभी झुकने नहीं दिया।
आजकल के नेता को सीख लेनी चाहिए.