इंडियन एक्सप्रेस में आपातकाल पर कॉमरेड बृंदा के लेख का हिंदी
आपातकाल पूंजी के हितों की सेवा करने वाला दौर जब मज़दूरों के अधिकारों को खत्म कर दिया गया
इंडियन एक्सप्रेस में आपातकाल पर कॉमरेड बृंदा के लेख का हिंदी /आपातकाल पूंजी के हितों की सेवा करने वाला दौर जब मज़दूरों के अधिकारों को खत्म कर दिया गया 
जे टी न्यूज
पचास साल पहले, स्वतंत्र भारत ने पहली बार तानाशाही का अनुभव किया। जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, तो उन्होंने मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया, सभी विरोधों को कुचल दिया और एक लाख से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया। इन घटनाओं से यह साफ हो गया कि हमारा संविधान और संस्थाएँ, जिनमें न्यायपालिका भी शामिल है, कितनी कमजोर हो सकती हैं। यह भी दिखा कि जब सारी ताकत एक व्यक्ति के हाथ में होती है, तो इसके कितने खतरनाक परिणाम हो सकते हैं। लोकतंत्र पर यह हमला “राष्ट्रीय हित” के नाम पर किया गया था, यह कहकर कि देश को अंदरूनी और बाहरी ख़तरों से बचाया जा रहा है। लेकिन ऐसा झूठा राष्ट्रवाद अक्सर तानाशाहों द्वारा सत्ता पाने और बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
आपातकाल मजदूर वर्ग पर किया गया एक संगठित हमला भी था। उस दौरान ऐसे कई क़ानून और अधिकार ख़त्म कर दिए गए जो मज़दूरों की रक्षा करते थे, क्योंकि पूंजीपतियों को ये अधिकार पूंजीवाद के रास्ते में रुकावट लगते थे। 1970 के दशक की शुरुआत में मज़दूर वर्ग की मज़बूत लड़ाइयों और आंदोलनों ने भारत के पूंजीपतियों को हिला दिया था। 1974 की ऐतिहासिक रेलवे हड़ताल के बाद कई एकजुटता आंदोलनों की लहर उठी। आपातकाल के दौरान यूनियन बनाने, विरोध करने और हड़ताल करने जैसे बुनियादी अधिकार छीन लिए गए, जिससे मज़दूर वर्ग पूरी तरह बेबस हो गया। न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में उद्योगपति जेआरडी टाटा ने साफ कहा: “आप कल्पना नहीं कर सकते कि हमने यहां क्या झेला — हड़तालें, बहिष्कार, प्रदर्शन। ऐसे दिन भी थे जब मैं अपने ऑफिस से बाहर सड़कों पर नहीं निकल सकता था। संसदीय व्यवस्था हमारी ज़रूरतों के मुताबिक नहीं है।” यही असली बात है — तानाशाही शासक वर्ग के लिए फायदेमंद होती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आपातकाल को भारत के बड़े उद्योगपतियों ने आम तौर पर समर्थन दिया था।
जिस दिन आपातकाल घोषित हुआ, मैं कोलकाता में थी और ट्रेड यूनियनों में हॉलटाईमर का काम करने के लिए दिल्ली जाने की तैयारी कर रही थी। उस समय हमारी पार्टी के दफ्तरों पर कोलकाता में छापे मारे गए थे और सैकड़ों साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे पहले ही बंगाल के कम्युनिस्टों के खिलाफ दहशत का माहौल बना चुके थे। उन्होंने 1971 के उस जनादेश को कुचल दिया था, जिसमें जनता ने सीपीआई(एम) का समर्थन किया था। यह कोई संयोग नहीं था कि आपातकाल लागू करने में वे इंदिरा गांधी के मुख्य सलाहकार थे। कोलकाता को एक तरह से पुलिस छावनी में बदल दिया गया था।
कुछ हफ़्तों बाद मैं दिल्ली पहुँची और बिरला मिल की कपड़ा मज़दूर महिलाओं से मेरी पहली बैठक हुई। हमें शाम की शिफ्ट के बाद एक छोटे से दफ्तर में मिलना पड़ा। दरवाज़ा कसकर बंद कर दिया गया था, और भीतर सिर्फ एक दीया जल रहा था ताकि किसी का ध्यान न जाए। इन महिला मज़दूरों ने आपातकाल को शोषण बढ़ने का समय बताया—उन पर काम का बोझ बहुत ज़्यादा बढ़ा दिया गया था। सालाना बोनस भी काट लिया गया था। मैं उस यूनियन में काम करती थी, जिसके सदस्य दिल्ली की पाँचों बड़ी कपड़ा मिलों में थे। चूँकि हर मिल के बाहर पुलिस तैनात रहती थी, इसलिए हम केवल मज़दूर महिलाओं के घरों में छिपकर ही बैठक कर पाती थीं। आपातकाल के दौरान दिल्ली की पहली हड़ताल इन्हीं बैठकों में तय हुई थी। मिल प्रबंधन बिना किसी मुआवज़े के और छंटनी की धमकी के साथ चार-लूम प्रणाली लागू कर रहा था। हमने पर्चे लिखे, साइक्लोस्टाइल मशीन से उन्हें छापा, और उन्हें बस स्टॉप या उन जगहों पर रख दिया जहाँ से मज़दूर महिलाएँ गुजरती थीं। हमारी साथिनें इन पर्चों को चुपचाप मिल के अंदर ले जाती थीं। मैं अक्सर मज़दूर बहनों के घरों में रात बिताती थी, उनके परिवारों को जानती थी और यह समझने लगी थी कि महिलाओं का संगठित होना कितना ज़रूरी है। प्रबंधन ने 18 अप्रैल 1976 की रात की शिफ्ट में काम का बोझ बढ़ाते हुए नई प्रणाली लागू कर दी — और मज़दूर महिलाएँ हड़ताल पर चली गईं। सबसे पहले हरिश चंद पंत नाम के एक मज़दूर साथी ने आवाज़ लगाई: “हड़ताल! हड़ताल!” उसका ज़बरदस्त असर हुआ — ये वे गुमनाम नायिकाएँ थीं, जिन्होंने आपातकाल के मज़दूर-विरोधी चेहरे को खुलकर चुनौती दी।
इसी दौर में तथाकथित “सौंदर्यीकरण अभियान” शुरू किया गया। झुग्गियों को बुलडोज़र से तोड़ा गया, जिससे मिलों और कारखानों के आसपास रहने वाली हज़ारों ग़रीब परिवारों को बेघर कर दिया गया। मैं उस पहले दिन वहां मौजूद थी, जब मज़दूरों को ज़बरदस्ती नंदनगरी में बसाया गया — यह एक पुनर्वास कॉलोनी थी, जो उनके कार्यस्थलों से कम से कम 25 किलोमीटर दूर थी। गर्मियों में वह इलाका एक रेगिस्तान जैसा लगता था — न पानी, न सफाई, बस धूल-धक्कड़ से ढके हज़ारों ग़रीब लोग। लोगों को बसाने के और भी तरीके हो सकते थे, लेकिन सत्ता के घमंड ने इस पूरे अभियान को अमानवीय बना दिया।
फिर नसबंदी अभियानों की शुरुआत हुई। महिलाएँ मुझे अपने छोटे-छोटे घरों के अंदर खींच ले जाती थीं और डरते हुए बताती थीं कि कोई सरकारी आदमी आया था, जो उनके पतियों को नसबंदी शिविर में जाने का समय देकर गया है। उन बस्तियों में दहशत का माहौल था। मैंने कई जगहों पर इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के खिलाफ सबसे तीखे और कड़े शब्द सुने — लोग उन्हें इन ज़बरदस्ती वाले अमानवीय अभियानों का जिम्मेदार मानते थे।
दिल्ली की झुग्गियों और कारखानों में हम सरकार के खिलाफ बढ़ता हुआ गुस्सा साफ महसूस कर सकते थे। और यहीं मैंने एक और बड़ा सबक सीखा — कि जब लोग एकजुट होते हैं और संकल्प के साथ खड़े होते हैं, तो उनकी ताक़त अपार होती है।
आपातकाल लगभग दो साल तक चला। भारत ने इससे उबर लिया। लेकिन आज जब हम पीछे देखते हैं, तो लगता है कि वह दौर जितना भयानक था, वह आज की स्थितियों की सिर्फ़ एक पूर्व-तैयारी (ड्रेस रिहर्सल) थी — आज जिस तरह हमारे संविधानिक ढाँचे को लगातार कमजोर और खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं, सत्ता एक जगह समेटी जा रही है, देश की संपत्तियाँ चंद बड़े उद्योगपतियों को सौंपी जा रही हैं, भारी असमानताएँ पैदा हो गई हैं, और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है — वह कहीं ज़्यादा खतरनाक है।
आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ हमें यह संकल्प दोहराने का अवसर बननी चाहिए — कि हम भारत के लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए संघर्षरत रहेंगे।


