युगपुरुष युगधर्म के मूर्त-प्रतीक श्रीश्रीठाकुर जी के अनुसार- ‘ नारी वही है जो धारण करती है और वृद्धि कराती है:

राजकिशोर सिंह
जेटी न्यूज

डी एन कुशवाहा

रामगढ़वा पूर्वी चंपारण – आज अधिकांश नारी न अपना प्रकृत धर्म पालन कर रही है न पुरुष ही । देनों दो घाटों पर चल रहे हैं । अधिकांश पुरुष भी अपना कर्त्तव्य नहीं समझते हैं और न नारी ही । उक्त बातें ठाकुर जी के पवित्र पंजाधारी व सहप्रति ऋत्विक राज किशोर सिंह ने ऑनलाइन सत्संग को संबोधित करते हुए बुधवार की सुबह में कही। साथ ही उन्होंने कहा कि भारत के पंडितवर्ग विवाह कराते समय यह संस्कृत श्लोक पढ़ देते हैं – पति का क्या कर्त्तव्य है और पत्नी का क्या कर्त्तव्य है । पुरुष और नारी को विवाह कराने वाले पंडितों की उन बातों को क्या कोई कभी सोचते भी हैं ? श्री सिंह ने कहा कि श्रीश्रीठाकुर ने आज के युग के पुरुष व नारियों के विषय में कहा है-
” पुरुष मांगे नारीर परिणय नारी मांगे टाका इसी तरह चलती जगत जहाँ बचना – बढ़ना फांका । ”

अर्थात् पुरुष नारी का प्रेम पाना चाहता है जिससे वह प्रेरित व उबुद्ध हो । पर नारी आज के भौतिक सुख व सौंदर्य साधनों को देखकर इस तरह लालायित रहती हैं कि वह अपने को अन्य सम्पन्न नारियों की तरह देखना चाहती है । उसके कारण ही घर में कलह मच जाता है । अस्तु , सर्वप्रथम हम नारियों को यह समझने की जरूरत है कि नारी वस्तुतः क्या है । नारी का नारीत्व किन गुणों को लेकर है । युगपुरुष युगधर्म के मूर्त – प्रतीक श्रीश्रीठाकुर के शब्दों में-
‘ नारी वही है जो धारण करती है और वृद्धि कराती है । ऐसे धारण और पुष्ट कराने में ही नारी का नारीत्व है । उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में Fredic Harrson जैसे विद्वान का यह अपूर्व कथन है- ” नारी का प्रकृत काम सिर्फ सन्तान को तैयार करना नहीं है , बल्कि पुरुष एवं समाज को शिक्षित बनाकर उच्चतर सम्यता की दिशा में पहुँचाना ही नारी का धर्म है । इस कर्म के साधन में नारी बारिस करती है अपना स्नेह , संयम , आत्मत्याग , विश्वस्तता एवं पवित्रता । समाज को जाग्रत करने हेतु केवल पुस्तक लिखने से काम नहीं होगा , वक्तृता देने से भी काम नहीं चलेगा , बल्कि घर – घर में दैनन्दिन जीवन में नारी को ही उस आदर्श को व्यवहारिक रूप से अपनी बोलचाल , दृष्टिभंगिमा एवं सारे अपूर्व माधुर्यों के इन्द्रजाल के माध्यम से दिखाना होगा । इसीलिए नारी को मिट्टी से तुलना की गई है , क्योंकि मिट्टी का विशेष वैशिष्ट्य है – धारण,पोषण एवं उद्गत कर देना।

नारी में नारीत्व वहीं सार्थक होती है जहाँ वह अपने पोषण,वृद्धि , अपनी चिन्ता से पुरुष को इस प्रकार पुष्ट करती है या इस प्रकार से उद्याम करती है जहां नारीत्व की सार्थकता है और पुरुष नारी के निकट ऐसा भाव पाकर सारी दुनिया या समाज की इस प्रकार सेवा करके विजय का मुकुट पहने नारी के सम्मुखीन हो,उसके द्वारा संवर्द्धित हो- यही है पुरुष की सार्थकता ,ऐसा करके हर तरह से वह नारी की पूर्ति करता है । क्योंकि नारी चाहती है पुरुष के दिल के मुकुट को सर पर पहनकर देखना । इसमें ही नारी की पुष्टि है । दक्षसंहिता में कहा गया है- ” पत्नी मूलं गृहं पुंगसां यदि छन्दोऽनुवर्तिनी ” अर्थात् पत्नी ही पुरुष के गृह सुख का मूल है यदि वह छन्दानुवर्तिनी हो ।
श्रीश्रीठाकुर ने कहा है- यदि तुमसे तुम्हारे स्वामी की आदर्शानुप्रेरणा ,जीवन ,यश और क्रमबर्द्धन उन्नति की दिशा में न हुआ तो तुम्हारे पातिव्रत्य मिथ्या है । इसी बात को पुनः उन्होंने नारियों से कहा है- ‘यदि तुम अपने स्वामी को अपने अस्तित्व की तरह अनुभव कर सकती हो और वैसा करने से वस्तुतः तुम्हारे चरित्र के द्वारा चाल-चलन,भाव- भाषा इत्यादि की अभिव्यक्ति यदि घोषणा करती है कि वह तुम्हारे अस्तित्व है-तो समझो कि तुम्हारे स्वामी संबोधन तभी जययुक्त होगा। श्री सिंह ने कहा कि
माता -पिता के वैशिष्ट्य के संबंध में श्रीश्रीठाकुर ने अंग्रेजी में निम्नप्रकार की एक वाणी दी है – ” Mother nurtures the seed father blooms in child . ” अर्थात् मां बीज का सींचन करती है पिता अपने बच्चों में मूर्त्त होते हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जाता है कि पुरुष का वैशिष्ट्य है जीवन को वपन करना और नारी वहाँ उसे धारण कर मूर्त करके और वृद्धि में नियोग करती है। इन दोनों पुरुष व नारी के माध्यम से मानव समाज का विकास हुआ है। उन्होंने कहा कि बच्चों की शिक्षा के संबंध में श्रीश्रीठाकुर ने कहा है कि नारी ही शिक्षा का आधार होती है।नारी के बोध,वाक्,चलन-चरित्र व दक्षता से ही बालक – बालिकाओं की शिक्षा की नींव दृढ़ होगी। बालक के जीवन नियंत्रण के विषय में श्रीश्रीठाकुर ने कहा है- पांच से दस वर्ष के बीच माताएं जैसा अपने शिशुओं को बनायेंगी वही उनके सारे जीवन को नियंत्रित करेगा,क्योंकि नारी ही शिक्षा का आधार होती है ।
“राम छोड जो राम नाम भजे
मुरख गोसाई सोई
इहकाल – परकाल नष्ट करे
नरकशाही होई।”
उन्होंने कहा कि क्या श्रीश्रीठाकुर जैसे श्रीराम के अवतार की अवज्ञा करते चलेंगे ? एक अंधा वह है जिसके भाग्य में युगपुरुष को जानने का नसीब नहीं है । और सबसे बड़ा अंधा है वह है जिसने पकड़ा , पर अपने खाम – ख्याल के अनुसार मानव जीवन को व्यर्थ गंवाया है ।क्या हम अपने मानव जीवन को सार्थक नहीं करेंगे ? क्या हम पुरानी लीक पर ही चलते रहेंगे ?

Related Articles

Back to top button