गरीबो के मसीहा कर्पूरी ठाकुर

गरीबो के मसीहा कर्पूरी ठाकुर

अशोक कुमार सिंह

अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते, दम तोड़ते आदमी के आँखो में फूटती चिनगारी, एवं कसी हुई मुट्ठी की आखरी चीख का नाम कर्पूरी ठाकुर है। समस्तीपुर जिला का पितौंझिया ग्राम जिसे आज कर्पूरी ग्राम के नाम से जाना जाता है ऐसा पुत्र पाकर धन्य हुआ जो सन 1921 में जहाँ कर्पूरीजी का जन्म हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर स्नातक की पढ़ाई अधूरी छोड़कर असहयोग आन्दोलन के हवनकुंड में प्रज्ज्वलित हो जानेवाला शख्स कर्पूरी ठाकुर वर्षों तक आजादी के लिए जंगल में भटकता रहा। आजादी के इस सिपाही को 26 महीनों तक जेल के सिकंजो के अन्दर रहना पड़ा। कर्पूरीजी अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में की। कालान्तर में सोसलिस्ट पार्टी और फिर प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गये। प्रजा सोसलिस्ट पार्टी से आरम्भ की गई राजनीतिक यात्रा एवं बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता पर काबिज हुए। कर्पूरी ठाकुर जननायक के रूप में उतने प्रतिष्ठत हुए जितने लोकनायक के रूप में “जयप्रकाश नारायण”। इस जनप्रियता को कर्पूरीजी ने लगातार 1988 तक राजनीति में बनाये रखा। 36 वर्षों तक लगातार जनता से चुनकर सदन में उपस्थिति दर्ज करायी थे। कर्पूरी जी अदम्य उत्साह, लगन, एवं ईमानदारी का ही परिणाम था। समान एवं सौम्य दिखनेवाला व्यक्ति अहंकार एवं लोभ से कोसो दूर था। गरीबो के मसीहा कर्पूरी ठाकुर बहत ही सरल, निश्चल, एवं ईमानदार व्यक्ति थे। अपने ईमानदारी के वजह से बेबाक बातें बेझिझक कह जाते थे, उनकी हर बातें प्रमाणिक होती थी, यही उनका स्वभाव था, ईमानदारी उनकी पूँजी थी, इसी कारण सत्ता एवं विपक्ष की कुर्सी को सुशोभित करते रहे। कर्पूरीजी की भाषण शैली, उनका शब्द विन्यास बड़ा ही सारगर्भित एवं मर्यादित था। आम जनता के साथ कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों के भी प्रिय थे।

कर्पूरीजी का समस्त जीवन संघर्षमय था, शायद यही कारण था उनका जीवन अधिक प्राणवान था। सत्तारूढ़ दल में मुख्यमंत्री या विरोधी दल के नेता रहे हैं। उन्होनें जिन नीतियों का समर्थन किया अथवा जिन नीतियों के लिए पहल की वे राज्य की बहुसंख्यक लोगो के हिस्से के नीतियां होती थी।

1967 में पहली बार गैर कांग्रेसी उपमुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री बनने के साथ अंग्रेजी की अनिवर्यता समाप्त कर दी, उनकी बड़ी आलोचना हुई। लेकिन हकीकत यह था कि शिक्षा को आम लोगो के बीच पहुँचाया, इसी दौर में अंग्रेजी को मैट्रिक पास लोगो को मजाक कर्पूरी डीविजन से पास हुआ का मजाक उड़ाया जाता रहा।

इस संबंध कर्पूरीजी का विचार था इस राज्य की भावी पीढीयों को अंग्रजी की दासता से मुक्त कराया जाय ।

1970 में कर्पूरी ठाकुर की 163 दिन वाली सरकार ने कई ऐतिहासिक फैसले लिये। आठवीं तक शिक्षा मुफ्त कर दी, उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा दिया, सरकार ने पाँच एकड़वाली जमीन की माजगुजारी खत्म कर दी।

1977 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो मुंगरी लाल कमीशन का प्रतिवेदन जो ढंडे बस्ते में पड़ा था उसे 11नवम्बर को लागू किया जिसमें सभी जातियों की महिला भी सम्मिलत थी, 3 प्रतिशत महिला, 3 प्रतिशत सवर्णो के गरीब, एवं बीस प्रतिशत पिछड़ी जाति कुल 26 प्रशित आरक्षण सरकारी नौकरी में देश का पहला राज्य बिहार बना।

युवाओ को रोजगार देने के मामले में उनकी प्रतिबद्वता इतनी थी कि 1978 में कैम्प लगाकर 9000/- (नौ हजार) इंजिनियर और डॉक्टर
की बहाली एक साथ की , जिसकी पुनरावृति फिर किसी सरकार ने अब तक नही की, राज्य के सभी विभागों में हिन्दी में कार्य करने को अनिवार्य बना दिया, कृषि कर को भी समाप्त कर दिया, उनके सादगी के संबंध में कई किस्से हैं कि जो आज के युवा पीढ़ी के लिए तथा राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए प्रेरणास्रोत है।

उनके मुख्यमंत्रीत्व काल में चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के लिए सचिवालय में लिफ्ट के उपयोग की सुविधा नही थी। उन्होने चतुर्थवर्गिय कर्मचारी को लिफ्ट उपयोग करने की सुविधा दी। इसी तरह एक वाक्या और याद आता है कि वीर कुंवर सिंह के जयन्ती में जगदीशपुर गये थे, वापस लौटते समय रास्ते में कार की टायर पंचर हो गयी, उन्होने अपने बॉडीगार्ड से कहा किसी ट्रक को रोकवाओ उसी पर बैठकर पटना चले जायेगें। बॉडीगार्ड ने कहा लोकल थाना से सम्पर्क करते हैं कोई गाड़ी मिलती है तो उसी से पटना चले जोयगें। लोकल थाना ने गाड़ी मुहैया करवायी और कुछ जवानो के साथ पटना पहुँचवाया। पटना आवास पर पहुँचते साथ आये पुलिस के जवानो के लिए खुद से दरी बिछायी और कहा कि रात अधिक हो गयी है कुछ देर आराम कर लें तब वापस जायें।

एक किस्सा उनके मुख्यमंत्री के दौर का है, उनके पिता को कुछ दबंग सामन्तों ने अपमानित किया, खबर फैली तो जिलाधिकारी गाँव में कार्रवाई करने पहुँच गये, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया, उनका कहना था दबे पिछड़े का अपमान तो गाँव-गाँव में हो रहा है। इसके सामूहिक तौर पर उन्मूलन की कोशिश कीजिए। मेरे पिता का अपमान सामाजिक बुराई के तहत हुआ है।इस बुराई को खत्म करना होगा। सादगी का एक किस्सा है। जननायक 1952 में विधायक बन गये थे, एक प्रतिनिधि मंडल को आस्ट्रेलिया जाना था, एक दोस्त से कोट मंगाना पड़ा। वहाँ से योगिस्लाविया गए तो टिटो
ने देखा उनका कोट फटा हुआ है तब उन्होनें एक कोट भेट किया। राजनीति में इतना लम्बा सफर बिताने के बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक भी सामान भी उनके नाम नहीं था। ना पटना मे ना उनके पैतृक ग्राम में। कर्पूरीजी वैसे नेता हुए यह विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के जाने कितने किस्से आज भी बिहार में सुनने को मिलता है।

 

एक किस्सा उसी दौर का है जब वे मुख्यमंत्री थे समस्तीपुर के कार्यक्रम में शामिल होना था, हेलिकॉप्टर से दूधपुरा हवाई अडडा समय पर पहुँचे तो देखा ना कलक्टर ना और कोई सवारी। वे रिक्शा में बैठकर कार्यक्रम स्थल के लिए चल पड़े रास्ते में कलक्टर मिले तो सिर्फ इतना
ही कहा बहुत देर कर दी, तो जिलाधिकारी ने कहा कार्यक्रम की तैयारी में व्यस्त था फिर गाड़ी में बैठकर कार्यक्रम में भाग लेने गये।

1974 के छात्र संघर्ष समिति, हमलोग सभी संघर्षशील उनका मार्गदर्शन और अगवाई का सानिध्य मिलता रहा। अपातकाल के समय श्री लालू प्रसादजी, नरेन्द्र सिंह जी, देवेन्द्र यादव, जाबिर हुसैन के साथ भूमिगत आन्दोलन वारंट जारी होने के बाद भी हमलोग सक्रिय योगदान कर रहे थे। उसी समय कर्पूरी जी के संवाद पर बनारस में तत्कालीन सांसद रामेश्वर सिंह के घर पंडितजी के नाम से छिप कर नं संघर्ष का मार्गदर्शन करते थे, हमसभी वहाँ जाकर गंगा नदी कर नाव पर सवार होकर दशाश्मेघ घाट से रामनगर किला तक नाव यात्रा में उनसे मार्ग दर्शन प्राप्त करते थे, उनकी भेष भूषा ठेहुने तक धोती, मोटा कुर्ता, बडी टीक, सर में चन्दन टीका, टायर का चप्पल, वे पंडितजी के नाम से जाने जाते थे। आपात काल के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार में जब मुख्यमंत्री थे उनके नेतृत्व में विधायक के रूप में उनका सानिध्य प्राप्त होता रहा। हालाकि बिहार की राजनीति में उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे,लेकिन कर्पूरीजी परम्परागत व्यवस्था में करोड़ो वंचितों की आवाज बने रहे।

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