*हरियाणा से कोलकाता होते हुए मध्यप्रदेश तक : निशाने पर क्यों हैं महिलायें!!* *(आलेख : बादल सरोज)*

*हरियाणा से कोलकाता होते हुए मध्यप्रदेश तक : निशाने पर क्यों हैं महिलायें!!*
*(आलेख : बादल सरोज)*

 

दुनिया के साथ जम्बू द्वीपे रेवा खण्डे इंडिया दैट इज भारत की औरतें जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की तैयारियों में जुटी थीं, ठीक उस वक़्त हरियाणा के पंचकूला में उनकी माँ, बहिनों और बेटियों को बाल खींच कर घसीट-घसीट कर खदेड़ा जा रहा था। गिरफ्तार कर आलू की बोरियों की तरह पुलिस की गाड़ियों में धकेला जा रहा था। हाथापाई की जा रही थी – यहां तक कि उनके मोबाइल छीने जा रहे थे, ताकि वे खट्टर सरकार के “मर्द” पुलिसियों द्वारा इस दौरान की जा रही छेड़खानी के वीडियो न बना सकें।

ये सलूक उन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के साथ किया जा रहा था, जो देश की माँओं और उनके बच्चों की जीवन रक्षा करने, मातृ और बाल मृत्यु दर कम करने के जरूरी काम में लगी हैं। जिन्होंने कोरोना की महामारी के बीच अपनी जान जोखिम में डालकर टीकाकरण सहित अनेक काम किये हैं, जिनकी दम पर यह देश पोलियो मुक्त देश बनने जा रहा है। तीन मार्च को दिखाई गयी यह निर्ममता अकेली घटना नहीं है।

खट्टर सरकार पिछले तीन महीने से अधिक समय से हड़ताल कर रही आंगनबाड़ी कर्मियों के साथ इस तरह की आपराधिक दमनात्मक कार्यवाहियां करती रही है। करीब 400 से ज्यादा बर्खास्त की जा चुकी हैं — इस दमन का प्रतिरोध कुचलने के लिए जगह-जगह रोकना, उनकी गाड़ियों की चाबी छीन ले जाना आदि के बाद भी जब वे डटी रहतीं है, तो फिर उनके साथ पंचकूला किया जाता है।

पिछले महीने जब हरियाणा की आशा कार्यकर्ता स्वास्थ्य और गृह मंत्री, बेकाबू और घटिया बयानों के मामले में संघ शिरोमणि अनिल विज के घर अम्बाला में प्रदर्शन करने पहुँची थी, तब भी उनके साथ लगभग इसी तरह का बर्ताब किया गया था। पद्मावत फिल्म के वक़्त काल्पनिक रानी पदमावती को भारत की महिलाओं का गौरव बताने वाले इस गृहमंत्री ने अपने प्रदेश के स्वास्थ्य में गौरवशाली योगदान देने वाली महिलाओं को भी नहीं बख्शा था। तकरीबन इसी तरह की बदसलूकी उनके साथ भी हुयी थी।

7 मार्च को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आशा और आंगनबाड़ी कर्मियों के प्रदर्शन को रोकने के लिए पहले तो भाजपा सरकार की पुलिस ने सुबह सबेरे माकपा के राज्य मुख्यालय बीटीआर भवन पर ही धावा बोल दिया। इस आंदोलन के नेता ए टी पद्मनाभन को पांच महीने में तीसरी बार उठाकर ले गए। इस घटना का वीडियो बना रहे सीटू के प्रदेश अध्यक्ष रामविलास गोस्वामी का फोन छीन कर सब कुछ डिलीट कर दिया। प्रदेश भर से आयी हजारों महिलाओं को रेलवे स्टेशन पर ही रोककर पुलिस की घेरेबंदी में जकड़ दिया। यहां भी यह पहली बार नहीं था — शिवराज सरकार को उसका वायदा याद दिलाने दीपावली के दिन राजधानी आयी आशा कर्मियों के साथ भी यही किया गया था। एक बार तो उन्हें बसों में भरकर बीसियों किलोमीटर दूर जंगल में ले जाकर छोड़ दिया गया था।

एक तो यह जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा और सांघातिक है। दूसरे यह सब अनायास नहीं है। यह उस विचार का व्यवहार है, जिसके आधार पर आरएसएस अपनी राजनीतिक शाखा भाजपा के जरिये भारत को ढालना चाहता है। यह उस मनुस्मृति का अमल है, जिसे यह गिरोह भारत के संविधान की जगह स्थापित करना चाहता है। आरएसएस जिन्हे अपना गुरु मानता है, उन गोलवलकर के शब्दों में : “एक निरपराध स्त्री का वध पापपूर्ण है, परन्तु यह सिद्धांत राक्षसी के लिए लागू नहीं होता।” राक्षसी कौन? राक्षसी वह जो शास्त्रों के अनुरूप आचरण नहीं करे। शास्त्र मतलब क्या? शास्त्र याने मनु और उनके द्वारा निर्धारित परम्परा! मनु की परम्परा क्या है? शूद्रों के खिलाफ वीभत्सतम बातें लिखने के साथ मनुस्मृति स्त्री को ‘शूद्रातिशूद्र’ बताती है — मतलब उनसे भी ज्यादा बदतर बर्ताव की हकदार। उन्हें किसी भी तरह के अधिकार नहीं दिए जा सकते। वे कभी स्वतंत्र नहीं हो सकतीं, कभी अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकती : पिता रक्षति कौमारे भरता रक्षित यौवने/ रक्षित स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति। *मनुस्मृति (9.3)*

इसी को आगे बढ़ाते हुए गोलवलकर ने कहा कि “महिलायें मुख्य रूप से माँ हैं, उनका काम बच्चों को जन्म देना, उन्हें पालना पोसना, संस्कार देना है।” यही समझ है, जिसके चलते स्त्री के संघ में शामिल होने पर रोक है।

1936 में अलग से बनाई गयी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की नेता सीता अन्नदानम इस बात को और साफ़ करते हुए कहती हैं कि “हमारी परम्पराओं में महिला अधिकारों के बीच संतुलन चाहिए। पिता की संपत्ति में हिस्सा हमारी संस्कृति नहीं है। शास्त्रों में जिस तरह लिखा है, वैसा ही किया जाना चाहिए — वैवाहिक बलात्कार नाम की कोई चीज नहीं होती — यह पाश्चात्य अवधारणा है। समता, बराबरी, लोकतंत्र सब पाश्चात्य धारणायें है।” वगैरा वगैरा।

ठीक इसी पृष्ठभूमि में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले अंबाला से पंचकूला होते हुए भोपाल तक जो हो रहा था, उसे देखना होगा। इसी प्रसंग में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का लंबित सवाल भी देखा जा सकता है। इस बिल के राज्यसभा में पारित होने के बाद नारी मुक्ति आंदोलन की सच्ची नेताओं के साथ हुलसकर फोटो खिंचवाने वाली सुषमा स्वराज की पार्टी पिछले सात साल से इसे जमीन में गहरे दफनाए बैठी है।

कुल मिलाकर यह कि सिर्फ लाठी भर चीन्हने से काम नहीं बनेगा, वह जिस हाथ में है और वह हाथ जिस दिमाग से संचालित है, उसकी भी शिनाख्त करनी होगी। यह मनुस्मृति है, जो इन दिनों पूरे उरूज पर है। यह सिर्फ धार्मिक ग्रन्थ नहीं – यह वर्णाश्रम की पुनर्व्याख्या भर नहीं है – यह एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसका झंडा लाल किले या पार्लियामेंट के ध्वज स्तम्भ पर नहीं स्त्री की देह में गाड़कर खड़ा किया जाता है। खट्टर, अनिल विज, शिवराज सिंह चौहान और नरोत्तम मिश्रा इसी ध्वजारोहण में लगे थे/हैं।

जिस तरह पुरुष सत्तात्मकता जेंडर नहीं, विचार है — उसी तरह मनु शिखा, तिलक धारे, फरसा उठाये पुरुष के अवतार में ही नहीं आते, बल्कि रामानुजाचार्य की प्रतिमा के अनावरण के वक़्त हैदराबाद को भाग्यनगर बोलते हुए पोचमपल्ली साडी पहनकर भी आते हैं और कोलकता में कॉटन साड़ी पहन ममता की निर्ममता में भी हाजिर होते हैं। युवा नेत्री मीनाक्षी मुखर्जी सहित बीसियों को पहले लाठीचार्ज में घायल करते हैं और फिर झूठे मुकदमो में जेल भेजते हैं। वे स्वांग और पाखंड में भी आते हैं। जिस मनुस्मृति में वे स्त्री को गरियाते हैं, आपादमस्तक बेड़ियों में जकड़ते हैं, उसी में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः / यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।” की जुमलेबाजी भी करते हैं। इधर पूजने और उधर मारने की विधा में तो वैसे भी मनु के ये उत्तरधिकारी दक्ष हैं। गांधी को गोली मारने से पहले उनके पाँव छूकर इसका मुजाहिरा कर चुके हैं। चिंता की बात यह है कि 2014 में लोकसभा में दाखिल होने से पहले इन्ही ने संसद की सीढ़ियों के पाँव भी छुये हैं। संविधान की किताब को भी सर पर धरा है। लिहाजा आशंकाएं गहरी हैं — खतरे बड़े हैं।

खैरियत की बात यह है कि अँधेरे जितने गहरे दिखते हैं, मशालें भी उतनी ही ज्यादा सुलगती जा रही हैं। जनता – खासतौर से महिलायें – इन खतरों को पहचान रही हैं और इन सबके बावजूद हर तरह के दमन का मुकाबला करते हुए अपने नागरिक, महिला और मेहनतकश तीनों रूपों में अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा रही हैं। इसी 8 मार्च को देश भर में इस संकल्प को दोबारा दोहराया गया है। इसी मार्च में 14 तारीख को ऐतिहासिक किसान आंदोलन के मंच – संयुक्त किसान मोर्चा – ने अपना राष्ट्रीय कन्वेंशन कर संघर्ष का नया मोर्चा खोला है और 28-29 मार्च को पूरा देश आर्थिक-सामाजिक इतिहास की धारा को उलटने के खिलाफ एक साथ खड़ा होगा।

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)*

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