जनता सिर्फ भक्त और मतदाता नहीं एक संवेदनशील जागरूक नागरिक बने डॉ. धर्मेन्द्र कुमार यादव

जनता सिर्फ भक्त और मतदाता नहीं एक संवेदनशील जागरूक नागरिक बने डॉ. धर्मेन्द्र कुमार यादव

“जनता सिर्फ राजनेताओं पर आश्रित न रहे – डॉ. भीमराव अम्बेडकर”

जे टी न्यूज़

राजनीतिक विज्ञान की भाषा में एक देश को राज्य, राष्ट्र या देश कहा जाता है. लेकिन राज्य या देश और राष्ट्र में आसमान जमीन का अंतर होता है. इसीलिए राष्ट्रवाद की कल्पना तभी करनी चाहिए जब आपका देश एक राष्ट्र बन चूका हो. हिटलर भी स्वयं को राष्ट्रवादी कहता था लेकिन अपने सम्पूर्ण देश को नफ़रत की आग में झोंक दिया था. आज हालात ये है

कि हिटलर नाम एक गाली के रूप में उपयोग होता है किसी नायक के रूप में नहीं. अफ़सोस जनता इस बात को समझ हीं नहीं पाती है क्योंकि शासक सत्ता ने उसे रोटी, कपड़ा और मकान में हीं बुरी तरह उलझाये रखता है और पांच किलो अनाज की तो बात हीं निराली है.

आज कल शासकों ने जनता को धर्म का अफीम ऐसे खिला रखा है कि उसे सत्ता द्वारा किये जा रहे अनैतिक और असंवैधानिक कार्य भी दिखाई नहीं दे रहा है. संवैधानिक संस्थाओं को तबाह किया जा रहा है, सरकारी संस्थाओं का धड़ल्ले से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, नागरिकों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है, सरकारी और निजी नौकरियां बर्बाद और फिर बंद किया जा रहा है, और जनता भक्तिमय होकर भांग के नशें में धुत है. जनता को राष्ट्रवाद का गीत सुना कर भरमाया जा रहा है और पीठ पीछे राष्ट्र को हीं ख़त्म किया जा रहा है.

एक देश के निर्माण में चार प्रमुख कारकों का योगदान होता है: जनसँख्या अर्थात जनता का समूह, सीमित सीमा के साथ जमीन, संप्रभु सरकार, और संविधान. सीमित सीमा के साथ जमीन इसीलिए चाहिए ताकि उस सीमा के अन्दर रहने वाले जनता अपना व्यवसाय कर सके, रहने के लिए मकान बना सके, सभी संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर सके, आदि. संप्रभु सरकार संविधान और कानून के अनुसार जनता, उसका परिवार, जमीन, उसके अधिकार और कर्तव्य की रक्षा कर सके. संविधान और कानून यह गारंटी देता है की कोई किसी पर जुल्म नहीं करेगा, किसी का शोषण नहीं करेगा, किसी का अधिकार नहीं लूटेगा आदि. अर्थात सभी कारक जनता के लिए है जनता का है मतलब जनता हीं देश में सर्वोपरी है.

आम भाषा में कहा जाय तो जनता भी दो तरह के होते है: मतदाता और नागरिक. दोनों में हीं बहुत फर्क होता है. जनता मानसिक गुलाम का प्रतिक है जिसे सिर्फ वोट लेने के लिए प्रयोग किया जाता है उन्हें सत्य से कोसों दूर रखा जाता है उन्हें गुमराह किया जाता है और इन सबके लिए जनता को अशिक्षित रखा जाता है कम पढ़ा लिखा रखा जाता है. उन्हें गुमराह करने के लिए फर्जी अख़बार खबर छापा जाता है, मीडिया टीवी द्वारा फर्जी खबरें चलायी जाती है, फर्जी आंकड़े दिखाए जाते हैं. जनता को कोई अधिकार नहीं मिलता है, जबकि नागरिक को संवैधानिक अधिकार मिलता है, क़ानूनी अधिकार मिलता है, प्राकृतिक अधिकार मिलता है और देश की अधिकाँश राजनीति नागरिकों के अधिकारों के लिए हीं लड़ी भी जाती है. लेकिन अगर जनता सजग नहीं है तो फिर राजनेता लड़ते तो जनता के लिए हैं लेकिन फायदा अपने और अपने समाज के लिए उठा ले जाते हैं.

आजादी से पहले तो नब्बे फीसदी भारतीय जनता हीं थी लेकिन आजादी के बाद बाबा साहब अम्बेडकर के प्रयास से सभी को कम से कम मतदाता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, हालाँकि संविधान में इन्हें नागरिक की उपाधि दी गयी है. अन्यथा शासक वर्ग तो आम जनता को वोट देने का भी अधिकार छिनना चाहते थे. वो तो भला हो अंग्रेजों के न्यायप्रिय स्वाभाव और बाबा साहब जैसे योद्धाओं के प्रयास का कि लोगों को मतदाता बनने का मौका तो मिला. एक अनपढ़ जनता कभी नागरिक नहीं बन सकता है क्योंकि वो अधिकार और कर्तव्य के बारे में कुछ जान हीं नहीं पाता है. फिर भी आजादी के बाद आम जनता को शिक्षा से दूर रखने का कोई भी कसर नहीं छोड़ा गया.

नागरिक एक सजग जनता होती है जो अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति हमेशा जागरूक रहता है. राजनीतिक लोगों पर हमेशा नकेल कसने की स्थिति में होता है कि ज्यादा उछले तो संसद और विधान सभा से बाहर का रास्ता दिखा दूंगा. ऐसे पढ़े लिखे जागरूक नागरिकों के समूह को राजनीति की भाषा में ‘दबाब समूह’ का नाम दिया जाता है. अफ़सोस 1947 से लेकर लगभग 1990 तक के पिछले सरकारों ने जनता को आदमी (मानसिक गुलाम) बने रहने तक हीं सिमित कर दिया. उन्हें नागरिक बनने हीं नहीं दिया. एक जनता में जब तक स्वाभिमान नहीं आएगा तब तक वो नागरिक नहीं बन सकता है. यह तभी संभव है जब हर नागरिक को बराबर की हिस्सेदारी सभी जगह मिले.

 

हालाँकि आजादी के बाद स्व. जवाहरलाल नेहरु, स्व. इंदिरा गाँधी, स्व. राम मनोहर लोहिया, स्व. जय प्रकाश नारायण आदि कई प्रणेताओं ने भी सामाजिक और समाजवादी कार्य किये, लेकिन उनके संग कांग्रेस में बैठे शासक वर्ग के नेताओं ने इसे क्रियान्वयन नहीं होने दिया. नेहरु जी सोविअत संघ के तर्ज पर समाजवादी व्यवस्था और अमेरिका, ब्रिटेन आदि के तर्ज पर पूंजीवादी व्यवस्था को लागु करने के लिए मिश्रित व्यवस्था को अमलीजामा पहनाने की कोशिश किया. उनका हीं प्रयास था कि पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि पर विशेष ध्यान दिया गया था लेकिन द्वितीय पंचवर्षीय योजना से उनका ध्यान उद्योग की तरफ चला गया, जो तब के लिए जरुरी भी था. आज श्री राहुल गाँधी जी भी नागरिकों के अधिकार के लिए सक्रीय दिख रहे हैं और आशा है कि भविष्य में भी वो इससे विचलित नहीं होंगे. क्योंकि स्व. राजीव गाँधी जी को समाजवाद से विचलित कर हीं धर्म की लड़ाई शुरू की गयी थी.

 

1990 के बाद तो जिन्हें आजादी के बाद भी अधिकार और देश में हिस्सा नहीं मिला उसके लिए समाजवादी लड़ाई जारी है लेकिन यह लड़ाई भी अपनों द्वारा हीं ख़त्म भी किया जा रहा है. शोषित वर्ग के हीं कुछ रीढ़ विहीन नेताओं ने स्वार्थवश इसे कमजोर भी किया है. जो लोग शासकों के आगे झुकने से इंकार किया उसे फर्जी केसों और अदालतों में उलझाये रखा जा रहा है. ये वही प्रणेता है जो आम जनता को मतदाता से आगे ले जाकर एक मजबूत सजग नागरिक बनना चाहते हैं लेकिन जनता समझे तब न. इस सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले योद्धाओं में स्व. कर्पूरी ठाकुर, स्व. जगदेव प्रसाद कुशवाहा, स्व. शरद यादव, स्व. मुलायम सिंह यादव, स्व. रामविलास पासवान, स्व. सोनेलाल पटेल, आदि प्रमुख हैं. जिसे आज भी श्री शिबू सोरेन, श्री लालू प्रसाद यादव, सुश्री मायावती, श्री जयंत चौधरी, श्री नितीश कुमार, श्री तेजस्वी प्रसाद यादव, श्री अखिलेश यादव, श्री स्वामी प्रसाद मौर्या, श्रीमती पल्लवी पटेल जैसे प्रणेता लागु करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं.

 

पिछले दस वर्षों में एक नया शब्द का जन्म हुआ है ‘भक्त’. ये मानसिक रूप से आर्थिक सहायता देकर पाले गए राजनीतिक कार्यकर्ता के अलावा और कुछ नहीं हैं. कुछ सामान्य लोग भी इसके शिकार हैं क्योंकि उन्हें जाति, धर्म, राष्ट्र, नफ़रत की आड़ में गुमराह किया गया है. आज जो भक्तिमय लोग हैं ये मानसिक रूप से शक्तिविहीन, तर्क विहीन और सामाजिक भावना से रहित लोग हैं जिन्होंने कभी अनेश जी को दूध पिलाया था, कोरोना काल में थाली बजाया था, प्रेमी जोड़ों को मारने पीटने के लिए गुंडों का गैंग बनाया था, गाय के नाम पर मुसलमानों और निरीह जनता को मारने के लिए टीम बना रखा था. ये सभी लोग कानून और संविधान की नजर में तो दोषी हैं लेकिन शासक सत्ता जो न करवाए.

 

नागरिकों को मुलभुत समस्यायों से भटकाने में फर्जी रट्टू बुद्धिजीवियों का भी बहुत योगदान है. ऐसे लोग में जो शासक वर्ग के होते हैं वो तो स्लीपर सेल की तरह पांच साल खूब शासकों को कोसेंगे लेकिन जैसे हीं चुनाव आएगा उनका रंग एकदम बदल जाता है. जो शोषित वर्ग के बुद्धिजीवी होते हैं वो पांच साल तक तो शासकों की बुराई करेंगे, शोषितों के आवाज को उठाएंगे, लेकिन जैसे हीं चुनाव आता हैं वो अपना असली रूप में आ जाते हैं और शोषित वर्गों के लिए लड़ने वाले नेताओं को बदनाम करना शुरू कर देते हैं. ऐसे लोग सोशल मीडिया पर भी खूब सक्रीय होते हैं और मेनस्ट्रीम मीडिया भी उन्हें खूब तवज्जों देता है. आम जनता को ऐसे हीं फर्जी सामाजिक कार्यकर्ता गुमराह करते रहते हैं.

 

संविधान में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों की विस्तार से चर्चा की गयी है उनकी सुरक्षा का, शिक्षा का, नौकरी का, रहने का, बसने का, पूजा पाठ करने का, नमाज पढ़ने का, आदि के बारे में सम्पूर्ण अधिकार दिया गया है. लेकिन भक्तों और मानसिक गुलामों के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की गयी है. इसीलिए आये दिन संविधान से छेड़छाड़ हो रहा है, लगातार नए नए कानून बनाकर शोषित वर्गों पर नकेल कसने की तयारी चल रही है, किसानों और मजदूरों को तबाह किया जा रहा है. अभी वो दिन ज्यादा नहीं हुए हैं जब कई किसानों के लाश गिराने पर किसानों के तीन काले कानून वापस लिए गए, ड्राईवर के लिए काले कानून लाये गए फिर वापस लेने का वादा किया.

 

अभी हाल में भारत चीन सीमा पर 1962 में स्थापित भारतीय सेना के बहादुरों की स्मारक स्थल को तोड़ दिया गया. अगर यहीं पर शासक वर्ग के बच्चे शहीद होते तो शायद यह स्मारक स्थल नहीं तोड़ा जाता. शासक वर्ग अपने पूर्वजों और नायकों को स्थापित करने के लिए शोषित वर्ग के नायकों और पूर्वजों का नाम धीरे धीरे मिटा रहे हैं और वहां अपने नायकों को स्थापित कर रहे हैं. यह बात आम जनता, मतदाता, या भक्तों को समझ हीं नहीं आ रही है और जिन नागरिकों को समझ आ रही है उसकी बात कोई सुन हीं नहीं रहा है. इसलिए जरुरत है कि जनता भक्त और मानसिक गुलाम से आगे निकल कर एक मजबूत नागरिक बने और अपने एवं अपने समाज के अधिकारों के प्रति एक जागरूक सजग नागरिक होने की भूमिका निभाए.

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