जन्मदिवस पर भीष्म सर को

जन्मदिवस पर भीष्म सर को

आज बसंतपंचमी है। मेरे सबसे प्रिय कवि ‘निराला’ का जन्मदिन है। आज ही आपका भी जन्मदिन है। आपके जीवन के कुछ पक्षों को जब मैं देखती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे निराला का कुछ अंश आप में सिमट के पुनर्जीवित हो उठा हो। उनकी वह इच्छा कि विपन्नता में वह शायद कुछ और लोगों की मदद न कर पाए तो संपन्न होके फिर से लौट आए ‘महेन्द्र भीष्म’ के रूप में और जो कुछ उस समय रह गया था इस जन्म में पूर्णता को प्राप्त कर रहा है। मैं देखती हूँ जिस अधिकार से लोग आपसे रूपये माँग लेते है…आश्रय माँग लेते हैं….और आप तुरंत उनकी इच्छा पूरी कर देते हो। मदद भी ऐसी कि लेने वाला अपना अधिकार समझ रहा और करने वाला ऐसे कर रहा जैसे समुद्र से एक लोटा जल निकाल लिया जाये। लेखक अपने साहित्य में सामाजिक विद्रूपताओं को दिखाता है। आपका लेखक महज एक कागजी लेखक न होकर जब सामाजिक सरोकारों से जुड़े दिखता है तब मुझे फिर ‘निराला’ याद आते हैं। जितना संबल आप लोगों को देते हो फिर चाहे वह आर्थिक हो या मानसिक …उसका एकांश भी हम में आ जाए तो हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।


चैत्रारंभ का दिन हम भारतीयों के लिए विशेष महत्त्व का होता है; क्योंकि हम इन दिनों से ही भारतीय नववर्ष का आगमन मानते हैं। मैं कैसे भूल सकती हूँ जिस दिन आपको सर्वप्रथम देखा था तब भी चैत्रारंभ के ही दिन थे और आपने भी मेरे जीवन में एक नववर्ष की तरह ही प्रवेश किया। एक ऐसा नवीन वर्ष जो अपने साथ केवल शुभताएँ लेकर आता हो। दर्शन के पश्चात् जैसे ही आपके चरण-स्पर्श किए आपके आशीष ने जैसे आश्वस्त किया- “ होगी जय होगी जय।” आज भी जब आपसे आशीष लेती हूँ तो जैसे लगता है कि बस अब कुछ अनिष्ट और अनचाहा नहीं घट सकता। आपका आशीष जैसे उर्जा, संबल और परिपूर्ण कर देता है।
कौन सोच सकता था कि ‘एक अप्रेषित पत्र’ कहानी संग्रह की कहानी ‘अब नाथ करू करुणा’ पढ़ के उस सर्द रात जब मैं सिसकियाँ ले के रो रही थी और उस रचनाकार को तलाश करने की सोची थी। तब क्या पता था कि सच में मुझे वो मिल जायेंगे? जब भी किसी शोधार्थी से मिलती हूँ तो उसकी भी यही लालसा रहती है कि ‘मैम एक बार बस भीष्म सर से मिल लें, जीवन की यही इच्छा है। ऐसा अक्सर फोन पर भी सुनने को मिलता है। मैं उन सबमें शायद सर्वाधिक सौभाग्यशाली हूँ कि आप मुझे मिले…और वो भी ऐसे कि पिछले 13 वर्षों का जो एक रिक्त स्थान था उसे हमेशा के लिए भर दिया। मैं कह सकती हूँ कि ‘आज साध पूरी हुई मन की।’


प्रथम बार आपसे मिली तो एक अजूबा देखा कि एक व्यक्ति इतना सहज और सरल भी हो सकता है? वरना ओहदे का घमंड तो सिर चढ़ के बोलता है। जीवन में प्रथम अवसर था, जब किसी ऐसे व्यक्ति को देख रही थी जो माननीय इलाहबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ खंडपीठ के निबंधक सह प्रधान न्यायपीठ सचिव होने के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित लेखक होने के बावजूद इतने सहृदय हों। आप की यदि एक ही कृति ‘किन्नर कथा’ आप द्वारा लिखित होती तब भी आपकी कीर्ति अमर होती परन्तु इतना समृद्ध साहित्य होने के पश्चात भी जो विनम्रता और उदात्तता मैंने आप में देखी वह आज के इस युग में सर्वथा दुर्लभ है।


इतने अल्प समयावधि में जो आपका स्नेह मुझे मिला वह अकल्पनीय और अविश्वसनीय है। गौरवान्वित हूँ यह सोच के कि मैं आपकी एक मात्र और सर्वाधिक प्रिय शिष्या हूँ। शिष्य होता भी एक ही है। भाई, बहन, मित्र, शत्रु, बेटा, बेटी आदि कई हो सकते हैं परन्तु शिष्य एक ही होता है- जैसे अर्जुन, एकलव्य, विवेकानंद, राम, कृष्ण आदि। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने वह स्थान प्राप्त किया। गुरुदेव! आपकी पहचान ‘किन्नर विमर्श’ से लोग मानते हैं; परन्तु मैं ये चाहती हूँ कि आप इस अधूरी देह और अधूरे मन के अलावा पूर्णता में भी जहाँ अपूर्णता व्याप्त है उनकी तरफ देखें। आपके साहित्य के दिग्दर्शन से मैंने ये पाया कि आपको जो टाइप्डकास्ट कर दिया गया है उससे इतर भी आपकी कई श्रेष्ठ कहानियाँ हैं जिनपर आपका लेखन और अधिक प्रभावी है। शोधार्थियों से विशेष अनुरोध है कि किन्नर विमर्श से इतर जो आपकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं उनको विशेष केन्द्रित कर अपना शोध कार्य करें। आप से भी अनुरोध है कि आप का जो रूप मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं ….जिसको पढ़ के लोग अश्रु बहाने पर मजबूर हो जाते हैं। उस तरह के साहित्य का पुनः सृजन करें। आपने ऐसी कई कहानियाँ लिखी भी हैं… आप फिर से उस धार की तरफ देखें जो लहर कहीं और मुड़ गई उसका रुख फिर से उस ओर कर दीजिए, जहाँ हम जैसा पाठक आपके उस रूप की प्रतीक्षा कर रहा है। पुनः जन्मदिवस की अनंत, अशेष शुभकामनाएँ। इस वर्ष मनचाहे राग, रंग और मौसम आपको मिले। गत वर्ष की भाँति इस वर्ष भी आप नवीन उपलब्धियाँ सृजित करें और हमारे हिंदी साहित्य को समृद्ध करें।
सादर
डॉ. रिंकी ‘रविकांत’
साहित्य समीक्षक
कोटा, राजस्थान

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