पंचायत चुनाव: कराह रही है कर्पूरी ठाकुर की आत्‍मा — वीरेंद्र यादव

पंचायत चुनाव: कराह रही है कर्पूरी ठाकुर की आत्‍मा
— वीरेंद्र यादव

त्रिस्‍तरीय पंचायत राज व्‍यवस्‍था के तहत पांचवां पंचायती राज चुनाव संपन्‍न हो गया। मुखिया, ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद पद का एक साथ चुनाव कराया गया। इसके अलावा दो और पद ग्रामकचहरी सदस्‍य तथा सरपंच का चुनाव कराया गया। ये दो तकनीकी रूप पंचायती राज के हिस्‍सा नहीं हैं। यह राज्‍य निर्वाचन आयोग और हमारा संविधान भी यही मानता है। यही वजह है कि विधान परिषद के लिए स्‍थानीय निकाय चुनाव कोटे के चुनाव में इन्‍हें वोट देने का अधिकार नहीं हैं।
पंचायती राज व्‍यवस्‍था का शीर्ष पद है जिला परिषद अध्‍यक्ष। इनका चुनाव जिला परिषद के लिए निर्वाचित सदस्‍य करते हैं। बिहार के 38 जिलों में 38 जिला परिषद अध्‍यक्ष चुने गये हैं। जिला परिषद अध्‍यक्ष के पद पर जातीय हिस्‍सेदारी की बात करें तो विधान सभा चुनाव की तरह जिला परिषद में भी कुछ जातियों की बहुलता स्‍पष्‍ट रूप्‍ से दिखती है। इसमें यादव जाति सबसे बड़ी जातीय ताकत के रूप में उभरती दिख रही है। इसी तरह राजपूत, भूमिहार, पासवान, मुसलमान जाति भी मजबूत ताकत के साथ विराजमान दिख रही है। यदि हम जाति की हिस्‍सेदारी की सामाजिक व्‍याख्‍या करें तो अलग-अलग जिलों और जातीय वर्ग के लिए अलग-अलग फैक्‍टर काम करता हुआ दिख जाता है। इसमें जातीय गोलबंदी ज्‍यादा और पार्टी की प्रतिबद्धता गौण दिख रही है।
जिला परिषद अध्‍यक्ष चुनाव के बाद इस बात को लेकर चर्चा काफी तेज हो गयी है कि अतिपिछड़ों के लिए आरक्षित सीट पर बनियों ने कब्‍जा जमा लिया है। ये बनियों की वैसी जातियां हैं, जिसे नीतीश कुमार की सरकार ने 2010 के बाद अतिपिछड़ी जाति की श्रेणी शामिल किया था। इन जातियों को अतिपिछड़ा के रूप आरक्षण का पहला व्‍यापक लाभ 2016 पंचायत चुनाव में मिला था। इसके बाद पंचायत चुनाव और नगर निकायों में इनका प्रतिनिधित्‍व बढ़ा, जबकि कर्पूरी ठाकुर फार्मूले के तहत शामिल मूल अतिपिछड़ी जातियों की हिस्‍सेदारी सीमट गयी। 2011 तक पंचायत चुनाव में अतिपिछड़ी जाति के रूप में धानुक, केवट, मल्‍लाह, गंगौता, कहार, नाई जैसी जातियों को लाभ मिलता था। अतिपिछड़ी जाति के रूप चिह्नित करीब सवा सौ जातियों में कई जातियां हिंदू और मुसलमान दोनों में शामिल थीं। हालांकि लगभग 25 जातियों को 1995 के बाद अलग-अगल संकल्‍पों के माध्‍यम से सरकार ने अतिपिछड़ी जातियों में शामिल किया है। इसमें बनियों की कुछ जातियां भी शामिल हैं।
बनिया श्रेणी की चारों जातियों की बसावट राज्‍यव्‍यापी है। इनकी आबादी हर जगह मिल जायेगी। चारों जातियों का संबंध खाद्य पदार्थों से है। चौरसिया पान के व्‍यवसाय में, तेली तेल के व्‍यवसाय में और कानू-हलवाई मिठाई के व्‍यवसाय से जुड़े रहे हैं। कारोबारी जाति होने के कारण पैसा की ताकत भी इनके पास रही है। 2015 में आरक्षण की श्रेणी में आने के बाद इन जातियों ने अतिपिछड़ा वर्ग की अन्‍य जातियों को हाशिये पर धकेल दिया। बनियों के सामने पैसे की ताकत में अन्‍य जातियां पिछड़ गयीं। नीतीश कुमार ने भाजपा के खिलाफ ‘धारदार’ हथियार के रूप में बनियों का इस्‍तेमाल किया था। इन ‘नव अतिपिछड़ों’ ने मूल अतिपिछड़ों की हिस्‍सेदारी को हड़प लिया, उनकी हकमारी कर दी। दांगी को भी नव‍ अतिपिछड़ा ही कहा जायेगा, लेकिन इनकी आबादी गया जिले के कुछ हिस्‍से को छोड़कर अन्‍य जगहों पर नहीं के बराबर है। हालांकि दांगी को अतिपिछड़ा में शामिल कर नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा की ताकत को कमजोर करना चाहते थे। यह भी संयोग है कि नीतीश कुमार अब खुद भाजपा में समा‍हित हो गये हैं और उपेंद्र कुशवाहा भी नीतीश कुमार के अंग बन गये हैं। लेकिन नीतीश कुमार के इस राजनीतिक अभियान में मारा गया मूल अतिपिछड़ा। नीतीश कुमार ने भाजपा की जड़ काटने के फेर में कर्पूरी ठाकुर के मूल अतिपिछड़ों को ‘जड़हीन’ कर दिया।

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