हे सूर्यदेव

हे सूर्यदेव,


जे टी न्यूज़
मैं अदना सा पानी हूँ ,
धरती से अंबर तक का चक्र,
मैं आपकी गति के सहारे ही पूरा करता हूँ ,
मेरे सौन्दर्य को देखने,
लोग कहाँ-कहाँ नहीं चले जाते !
पहाड़ों से गिरती मेरी सहस्र धाराएँ ,
धरती के सहस्रों काल की तरह हैं,
मेरे इस रूप को कोई पकड़ नहीं सकता !
जैसे ही बिखर कर मैं नदी का रूप लेता हूँ,
लोग मुझे घेरने लगते हैं,
नदी,पोखर,तालाब,
कहीं भी मेरी कद्र नहीं है,
हे सूर्यदेव,
आपके कारण मिला सम्मान पाकर,
मैं अभिभूत हो जाता हूँ ,
किन्तु…….
महारथी कर्ण ने यह प्रथा क्यों चला दी?
कि जल में खड़े होकर ही आपकी अभ्यर्थना की जा सके!
वह रथी था,सारथी था, अभ्यर्थी था,
आपका ही पुत्र था,
चाहता तो शैल श्रृंग पर खड़े होकर भी,
मंत्र जाप कर सकता था,
किन्तु उसने मुझे ही चुना,
न जाने क्यों ?


आज कोई कर्ण नहीं !
नहीं तो मेरी दुर्दशा पर,
अस्त्र अवश्य उठाता!
कल की ही बात है,
सूर्योपासना का दूसरा दिन,
सुबह का अर्घ्य देने जन-मानस,
जल के किनारे-किनारे जमा थे,
मेरी हालत पर किसी की दृष्टि नहीं थी,
लोग टकटकी लगाए आसमान को देख रहे थे,
मैं धीरे-धीरे जल से कीच में बदलता जा रहा था,
तुम्हें समर्पित दीप का तेल मेरे सीने पर बहता जा रहा था,
मेरी सांसें बन्द हो रही थीं,
कोई पॉलिथीन में,
ठेकुआ पूड़ी भरकर उछाल रहा था,
तो कोई कोशी पूजा के अवशिष्ट,
सवासिनें जल में खड़ी तुम्हारे उदित होने की प्रतीक्षा कर रही थीं,
तेरे सीने पर तैरने वाले अवशिष्ट पदार्थ,
उन्हें भी घेर ले रहे थे,
मैं स्वच्छ नहीं तो तुम कैसे स्वच्छता ग्रहण करोगे प्रभु,
आज तुम्हारी मद्धम छाया भी ,
जल पर नहीं पड़ी थी,
क्योंकि वहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं बची थी,
इन सब की साक्षी ये मेरी दो आँखें,
कभी कर्ण को ढूंढ़ रही हैं,
तो कभी तुम्हें,
अपने पुत्र के रूप में,
फिर से एक कर्ण भेजना,
जो किसी पर्वत पर तुम्हारी उपासना करे,
और मैं धीरे-धीरे जिंदा हो सकूँ।

कश्मीरा सिंह
20/11/23
छठ व्रत के दूसरे अर्घ्य के दौरान ।

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