*कथेवर गद्य के आइने में स्त्री और दलित विमर्श*

*कथेवर गद्य के आइने में स्त्री और दलित विमर्श*


जे टी न्यूज़
(आलेख :डाॅ0 रणजीत कुमार दिनकर, सहायक आचार्य ‘हिन्दी’)

सच पूछिए तो गद्य के प्रमाणिक स्वरूप का साहित्य में दर्शन भारतेन्दु युग से होने लागा था। खास कर यह वह समय था जब हिन्दी का वास्तविक स्वरूप अरू खड़ी बोली हिन्दी दीखने लगा था। छायावाद युगिन या द्विवेदी युग में हिन्दी की प्रमाणिक स्वरूप की प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। इस कालखण्ड में महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रतापनरायण मिश्र, बाल कृष्ण भट्, से निबंधकार पैदा हो गये थे। छाया वाद के चारो स्तम्भ कवि के साथ नाटककार और अच्छे निबन्धकार भी हुए। देखा जाए तो कथेतर मद्य में प्रमुख रूप से आत्मकथा जो दलित लेखन और स्त्रीलेखन की श्रृंगार बनी। हलांकि साहित्य में स्त्री और दलित दोनों थे परन्तु ये मुख्य धारा से कट रहे। ‘‘हंस के पूर्व सम्पादक ने कहा था- ‘‘दलित और स्त्री का कोई इतिहास नहीं है। ‘‘सही भी है लेखन के मुख्य धारा में होने काई इतिहास नहीं है। प्रवासी साहित्य भी गद्य के कथेत्तर स्वरूप को ज्यादा सॅवारा है।


हिन्दी आलोचना आत्मकथा डायरी, निबन्ध पत्र-लेखन यात्रा वृत्तान्त ये सारे-सारे विधाएॅ आधुनिकाल पूर्वार्द से लेकर छायावाद से होते हुए नई कहानी नई कविता तक की दौड़ की उपज है। स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी साहित्य (1950) के बाद से स्त्रीविमर्श और दलित आन्दोलन रूप दीखने लगता है। हिन्दी आलोचना मंे निर्मला जैन ‘‘जैसे’’ से आलोचक नामवर सिंह जैसे सिद्वहस्त आलोचना के समान्तर खड़ी होती है। यहाॅ तक स्त्री लेखन कोशे नामवर सिंह जी जनाना लेखन खारीज करने का प्रयत्न करते हैं।
सामान्य लेखन स्वान्त सुखाय नघुनाथ भाषा के तर्ज पर लिखे जा रहे थे। या समाजिक, राजनैतिक यथार्थ के परिवेश में लिखे जा रहे थे। दलित और स्त्रीविमर्श आन्दोलन दोनों के केन्द्र में आत्म पीड़ा, अपनी जातीय दंश वर्तमान रही है जो इस लेखन की आइडेन्टीफिकेशन है, पहचान है। यह दोनों जातियाॅ स्त्री और दलित चिंतन के धरातल एक साथ आकर खड़ा होते है। ‘‘स्त्रीविमर्श और दलित लेखन वास्तविकता में अस्मिता की तलाश है।’’ मुख्य धारा में आने की छटपटाहट है। 1980-90 के दशक में दोनों आन्दोलन को आन्दोलन क्या? लेखन ही मानने को तैयार नहीं थें। हलांकि हंस के माध्यम से राजेन्द्र यादव तेज सिंह, रमणिका गुप्ता, वुद्वशरण हंस, डी.वी.नायक, बी.सी. काम्बेले तथा यशवंत अम्बेडकर जैसे लोग हुए जिन्होंने दलित लेखन अच्छा-सच्चा अर्थात मुख्य धारा में लोने में योगदान दिया और लाया भी। ‘‘बालाबोधिनी हिन्दी की पहली हिन्दी पत्रिका है जिसका सम्पादन भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र ने किया था (1874-77) इस पत्रिका का उद्देश्य था-महिलाओं को शिक्षित एवं सचेत करना। 1693 ई0 में ब्रिटेन में पहली महिला पत्रिका ‘‘द लेडीज मार्करी’’ छपी थी। 1993 ई0 में महिला रचनाकर तसलीमा ‘‘लज्जा’’ के साथ साहित्य में पैर रखी। वास्तव में यह उपन्यास स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की गुथ्थी को समाज के समक्ष खोल कर रख देती है। इसका तेवर स्त्री सापेक्ष है। लज्जा के सन्दर्भ में राजेन्द्र यादव लिखते है:-‘‘बहुसंख्यको के आतंक के नीचे अल्पसंख्यको की सुरक्षा की समस्या है,

लज्जा जिसे बंगलादेश के सन्दर्भ में रखा जाना चाहिए, जहाॅ मुस्लिम अल्पसंख्यक है।’’ प्रकाश उदय लज्जा को कुफ नहीं, करूणा का मार्मिक एवं निर्भय दास्तावेज मानते हैं। दूसरे तरफ मे पुस्पिता अवस्थी दूसरे तेवर के लेखन मे सामने आती है। पुस्पिता अवस्थी के लेखन में संस्कृति, साहित्य, पर्यावरण चिंतन, प्रवासी दुनिया की नयी अहसास उनके लेखन में है। हिन्दी आलोचना का सौ वर्ष’’ यह भारतेन्दु काल से लेकर समकालीन समय का इतिहास है। कविता सुरीनाम में सुरीनाम की नदी में गंगा नदी का दर्शन होना उनके अन्र्तमन में रची-बसी गांगेय संस्कृति का दर्शन करता है। जन्म कहानी संग्रह, छिन्नमूल मानवीय अन्र्तस्संवेदा का दस्तावेज है तो कंत्राकी की गंगान’’ भारतीय प्रवासी के हृदय का उदगार।’’
सच पुछिये तो साहित्य विधाओं में नहीं अटती वह हमेशा हृदय के कोने अपना सन्दर्य देखती है।
पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कभी लिखाया-
‘‘भारतीयता की एक पहचान।
सीता शम्बूक का हो सम्मान।।’’
स़्त्री-पुरूष के रागात्मक सम्बन्ध को अंगीकार करना ही भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है। प्रसाद की कामयनी का सन्दर्भ इन
पंक्तियो के साथ देखा जा सकता है –
मनु तुम श्रृद्वा को गए भूल।
उस पूर्ण आत्मविश्वासमयी को उड़ादिया ज्यों समझ-बूझ तुम भूलगये पुरूषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की समरसता है संबंध बनी, अधिकार और अधिकारी की।

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