“मीडिया” के बाद अब “न्यायपालिका” का शव भी बंधकर तैयार है- संजय नायक।

समस्तीपुर

एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के फाउंडर ट्रस्टी जगदीप एस. छोंकर और गौरव जैन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। याचिका थी कि सुप्रीम कोर्ट प्रवासी मजदूरों को उनके घर सुरक्षित पहुंचाने के लिए सरकार को निर्देशित करे। आमतौर पर इतने बड़े और तत्कालिक मुद्दे पर सुनवाई तुरंत की जाती है। मुद्दा इतना व्यापक, मानवीय और संवेदनशील था कि इसपर तुरंत ही कार्यवाही की जानी चाहिए थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस PIL पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। सबसे बड़ी बात जगदीप छोंकर और गौरव जैन सामान्य जन नहीं थे उससे भी बड़ी बात कि इन दोनों के behalf पर इस याचिका को प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में मूव किया था। इसलिए इसबात को पचा पाना मुश्किल है कि हजारों PIL आती हैं, सुप्रीम बावजूद का ध्यान नहीं गया होगा।

●23 अप्रैल, 2020
भाजपा प्रवक्ता अर्नब गोस्वामी ने अपने खिलाफ दर्ज हुईं FIR को हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की। याचिका दाखिल करते समय रात थी और समय था 8 बजकर 10 मिनट। सुप्रीम कोर्ट का जबाव आता है सुबह 10 बजकर 30 मिनट पर आपकी सुनवाई हो जाएगी।…. सिरियसली?

मेरा सवाल ये नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब के लिए ऐसा क्यों किया। मेरा सवाल ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों के लिए ऐसा क्यों नहीं किया।

एक व्यक्ति की सुनवाई 14 घण्टे के भीतर और लाखों प्रवासी मजदूरों की सुनवाई के लिए 7 दिनों के भीतर भी नहीं? हमने तो संविधान के अनुच्छेद 14 में पढ़ा था कि कानून की नजर में सब एक हैं। सब बराबर हैं।

या फिर ऐसा तो नहीं है सुप्रीम कोर्ट में सरकार के किसी भी काम में हस्तक्षेप करने का अब साहस नहीं कर रहा है?

दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सच यही है। सुप्रीम कोर्ट इससे पहले इतना असहाय पहले किसी भी दौर में नहीं रहा।मीडिया का पतन आप सब देख ही चुके हैं। लेकिन हिंदी के अखबारों और मीडिया में सुप्रीम कोर्ट के पतन पर उतनी कवरेज नहीं मिलती। लेकिन आप यकीन करिए कि मीडिया की तरह ही, आपकी न्यायपालिका का शव भी बंध चुका है।

क्या है न्यायपालिका के पतन की कहानी इस पूरी क्रोनोलॉजी को समझ लीजिए~

●12 जून, 1975
को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस देश की सबसे ताकतवर महिला को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया !

● 28 अक्टूबर, 1998
Three judges Case, में, सुप्रीम कोर्ट ने खुद को और अधिक मजबूत किया, और कोलेजियम सिस्टम को इंट्रोड्यूस किया, इससे ये हुआ कि अब जजों की नियुक्ति खुद न्यायपालिका करेगी, न कि सरकार करेगी। इससे सरकार का हस्तक्षेप कुछ कम हुआ, तो न्यायपालिका पर दबाव भी कम हुआ, कुलमिलाकर इसके बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अधिक बढ़ी। इसे न्यायपालिका की शक्ति का चर्मोत्कर्ष मान सकते हैं।

●16 मई, 2014
मैं नरेंद्र मोदी शपथ लेता हूँ…….

●1 दिसम्बर
जज लोया की मौत रहस्यमयी ढंग से हो जाती है, अमित शाह पर मर्डर और किडनैपिंग के मामले की सुनवाई इन्हीं जज लोया के अंडर हो रही थी. carvan मैगज़ीन ने इसपर डिटेल्ड स्टोरी की थी।

●13 अप्रैल, 2015
मोदी सरकार ने National Judicial Appointments Commission (NJAC) एक्ट पास किया, इसका मोटिव था कोलेजियम व्यवस्था को तोड़ना, और जजों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप लाना था। एकतरह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर मोदी सरकार का ये पहला स्पष्ट हमला था।

●16 अक्टूबर, 2015
चूंकि अभी मोदी सरकार अपने शुरुआती दिनों में थी। न्यायपालिका में भी कुछ दम बचा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत के साथ, NJAC कानून को अनकॉन्स्टिट्यूशनल करार देते हुए, खत्म कर दिया. इस तरह इस पहले टकराव में न्यायपालिका की जीत हुई।

● इसके बाद न्यायपालिका मोदी सरकार के निशाने पर आ गई। अब मोदी सरकार ने जजों की नियुक्तियों को मंजूरी देने में जानबूझकर देर लगाना शुरू कर दिया। पूर्व चीफ जस्टिस टी. एस. ठाकुर ने तो सार्वजनिक मंचों से कई बार इस बात के लिए नरेंद्र मोदी सरकार मुखालफत की। चूंकि मोदी सरकार प्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी, इसलिए उसने बैक डोर से हस्तक्षेप करना शुरू किया. एक जज को, उनसे उम्र में 2 बड़े जजों को पास करते हुए देश का चीफ जस्टिस बना दिया।

● 11 जनवरी, 2018
अब तक न्यायपालिका की हालत वहां तक आ पहुंची थी कि सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ गई। ऐसा देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में भी ऐसा कभी नहीं हुआ। जजों ने मीडिया में आकर कहा – “All is not okay, democracy at stake”

सरकार के पास सबका इलाज है, पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई पर एक लड़की के साथ छेड़छाड़ का आरोप है। जिसकी जांच भी उन्होने स्वयं ही की. अंततः लड़की को ही समझौता करना पड़ा।

●9 जनवरी, 2020
CAA पर सुप्रीम कोर्ट में पहली सुनवाई हुई, अब आप मुख्य न्यायाधीश का बयान सुनिए
” देश मुश्किल वक्त से गुजर रहा देश, आप याचिका नहीं शांति बहाली पर ध्यान दें! जब तक प्रदर्शन नहीं रुकते, हिंसा नहीं रुकती, किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी।”

आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च न्यायालय के सबसे बड़े न्यायाधीश किस हद तक असंवेदनशील हो चुके हैं. क्या शांतिबहाली का काम भी पीड़ितों का है? सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है? स्टेट स्पोंसर्ड वायलेंस को भी याचिकाकर्ता ही रोकेंगे? और जब तक हिंसा नहीं रुकती न्याय लेने का अधिकार स्थगित रहेगा? ये कैसा न्याय है ?

ऊपर वाली पंक्ति इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि न्यायपालिका, सरकार की तानाशाही के आगे नतमस्तक हो चुकी है। अगर न्यायपालिका नहीं जाँचेगी तो कौन जाचेगा? ये कैसी बेहूदी और मूर्खाना बात है कि न्यायपालिका जांच नहीं करेगी ! 

बात न्यायपालिका के सामूहिक चरित्र की है। न्यायाधीश स्वयं में डरे हुए हैं। सबको अपनी जान का ख्याल है। अब जजों को स्वयं ही तय करना उन्हें राज्यसभा जाना है या इंद्रसभा।

बीते दशकों में न्यायपालिका ने एक ‘प्रधानमंत्री’ को बर्खास्त करने से लेकर एक ‘गृहमंत्री’ के चरणों में लिपट जाने तक का सफर तय किया है। न्यायपालिका कोई बहुमंजिला इमारत नहीं है, जिसकी, ईंट, पत्थर, दरवाजे गिरते हुए दिखेंगे। न्यायपालिका एक तरह से जीवंत संविधान है। जो हर रोज आपके-हमारे सामने मर रहा है।
अब बस उसका शव आपके सामने आना बाकी है।

(संजय नायक आरजेडी प्रवक्ता का व्यक्तिगत विचार है ना की संपादक का)

  ठाकुर वरुण कुमार। ✍

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