विधानसभा में कर्पूरी जी

विधानसभा में कर्पूरी जी

जितेन्द्र कुमार

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आजादी के बाद पहली बार हुए बिहार विधानसभा चुनाव (1952) में ढ़ेर सारे स्वतंत्रता सेनानी विधानसभा में विधायक बनकर पहुंचे थे। और उन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम समाजवादी कर्पूरी ठाकुर का था जो पहली बार ही ताजपुर से चुनाव जीतकर आए और फरवरी 1988 तक, जीवनपर्यंत (कुछ महीने सांसद भी रहे) बिहार विधान सभा के सदस्य रहे। अपने संसदीय जीवन में उठाए गए अधिकांश सवाल गरीबों, मजदूरों, बेरोगजारों और निसहायों से जुड़े थे। लेकिन इसका मतलब सिर्फ यह नहीं था कि वे सिर्फ इन्हीं सवालों को उठाते थे। उनके सवालों के दायरे में लोकतंत्र, असामनता, मानवाधिकार और हर हाल में समाज में बराबरी से जुड़ा होता था। विधानसभा में व्यक्त किए गए उनके भाषणों को गौर से देखें तो आप पाएगें कि हर भाषण में एक नया तथ्य लाते थे, समकालीन विद्वानों को उद्धृत करते थे और तुलना के लिए देश-विदेश से आंकड़े लाते थे।

उदाहरण के लिए कर्पूरी ठाकुर के इस सवाल को देखिए जो वह 22 सितंबर 1972 का एक तारांकित प्रश्न है- क्या मंत्री कारा विभाग यह बताने की कृपा करेगें कि
1. क्या यह बात सही है कि श्री उमेश सिंह, ग्राम -मथुरापुर, थाना-रोसड़ा, जिला दरभंगा इन दिनों भालगपुर विशेष केन्द्रीय कारा में 20 वर्षों की सजा भुगत रहे हैं,
2. क्या यह बात सही ह कि श्री सिंह सजा में से लगभग 15 सालों की सजा काट चुके हैं,
3. क्या यह बात सही है कि कैदियों को सरकार द्वारा जो छूट दी जाती है उसके मुताबिक श्री सिंह को अबतक रिहा हो जाना चाहिए था;
4. यदि उपर्युक्त खंडों के उत्तर स्वीकारात्मक हैं तो श्री सिंह को अबतक जेल से क्यों नहीं रिहा किया गया है और अब सरकार शीध्र उन्हें रिहा करने के लिए कौन सी कार्यवाई करने का विचार कर रही है?
आज के दिन या फिर कह लीजिए कि ठाकुर जी के निधन के बाद बिहार विधानसभा ही नहीं बल्कि किसी भी विधानसभा में उठाए गए प्रश्नों को देखने की कोशिश करें तो बहुत ही मुश्किल से इस तरह के सवाल उठते होगें। आज के दिन तो यह काम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के उपर छोड़ दिया गया है। अब एक दूसरे सवाल को देखिए। ठाकुर जी यह सवाल 21 मार्च 1983 में अल्पसूचित प्रश्न के रुप में उठाते हैं। उनका सवाल है क्या मंत्री गृह विभाग यह बतलाने की कृपा करेगें कि
1. क्या यह बात सही है कि दिनांक 17 फरवरी 1983 को कंकड़बाग थाना की पुलिस ने झुग्गी-झोपड़ी संध की कंकड़बाग थाना के अध्यक्ष श्री सीताराम पासवान को उनके निवास स्थान पर खाना खाते समय ही दिन के दस बजे गिरफ्तार किया;
2. क्या यह सही बात है कि 17 फरवरी 1983 को दस बजे दिन से 18 फरवरी, 1983 के 12 बजे दोपहर तक 24 घंटे से भी अधिक अवैध ढ़ंग से पुलिस ने हाजत में रखा जहां उनकी इतनी निर्मम पिटाई की गई कि 18 फरवरी को, 1983 मुख्य न्यायिका दंडाधिकारी के समक्ष पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ दिया;
3. क्या यह बात सही है कि प्राथमिकी में हत्या करनेवाले पुलिस पदाधिकारियों के नाम स्पष्ट अंकित है किन्तु उनके विरुद्ध न तो कार्यवाई की गई और न प्रशासनिक और न तो अभी तक कोई गिरफ्तारी हुई है;
4. क्या यह बात सही है कि अपने नेता की मृत्यु की खबर सुनकर जब हजारों झुग्गी-झोपड़ीवासी कोर्ट अहाते में एक पोस्टमार्टम के समय अस्पताल अहाते में पहुंचे तो इन दोनों स्थानों पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया;
5. यदि उपयुक्त खंडों के उत्तर स्वीकारात्मक है तो क्या सरकार हत्या के मुजरिम कंकड़बाग के पुलिस पदाधिकारियों के विरुद्ध कानूनी एक प्रशासनिक कार्यवाई करना चाहती है, यदि हां, तो कब तक, और नहीं तो क्यों?
जबाव क्या मिलना था, यह इतना मायने नहीं रखता क्योंकि हम भली भांति जानते हैं कि उस समय राज्य के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा थे और जिस झुग्गी-झोपड़ी के नेता की हत्या पुलिस थाने में हुई थी वह दलित थे!

उनके निधन के 34 साल बाद कर्पूरी ठाकुर के बारे में बात करना इस बात का प्रमाण है कि उनका दर्शन, उनकी नीति कितना अर्थपूर्ण था। भारत और खासकर बिहार जैसे अर्धविकसित समाज में 34 वर्षों के बाद भी कर्पूरी ठाकुर की प्रांसगिकता पर बात हो रही है, वैचारिक व सैद्धांतिक रुप से कर्पूरी ठाकुर के घुर विरोधी दल तात्कालिक जनसंघ व वर्तमान में बीजेपी हर बात भले ही अनमने ढंग से उन्हें भारतरत्न देने की बात करे, यह इस बात को प्रमाणित करता है कि उनकी कितनी बड़ी तैयारी की थी और उस समाज को कितना गहरा तक प्रभावित किया था।

फिर सवाल है कि जिस कर्पूरी ठाकुर ने इतने गहरे सवाल उठाए थे, वही सवाल उस समाज में खलबली क्यों नहीं मचा रही है या फिर समाज में आमूलचूल परिवर्तन क्यों नहीं हो गया? इस सवाल का जबाव न इतनी आसानी से दिया जा सकता है क्योंकि वह इतना आसान भी नहीं है और शायद इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाज अभी भी पूरी तरह इसके लिए तैयार नहीं हुआ है।

राजनैतिक रुप से उर्बर बिहार की समस्या यह है कि वह सामाजिक रुप से पूरी तरह तैयार नहीं है। बिहार के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि वहां सामाजिक आंदोलन नहीं हुए और बिना सामाजिक आंदोलन के राजनीतिक आंदोलन इतना लंबा प्रभाव नहीं डाल पाया। वहां आरक्षण की लड़ाई सिर्फ नौकरी पाने की लड़ाई बनकर रह गई, जबकि कायदे से उसे सामाजिक परिवर्तन का रुप ले लेना था। कर्पूरी ठाकुर ने जब बिहार में 27 फीसदी आरक्षण लेकर आए तो उन्हें पता था कि इसे रोकने के लिए कितने तरह के उपक्रम किए जा सकते हैं। इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया को दिए गए एक मात्र साक्षात्कार के एक प्रश्न कि आपने आरक्षण को राजनीतिक मुद्धा क्यो नहीं बनाया तो इसका जबाव कर्पूरी ठाकुर कुछ इस तरह देते हैंः मैं संवैधानिक सीमा को जानता हूं कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं हो सकता है। एससी/एसटी के लिए पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण लागू है इसलिए मैंने इसे 27 फीसदी ही रखा है। और हां, मेरा उदेश्य आरक्षण देना है, उसपर राजनीति करना नहीं।
बिहार जैसे सामंती समाज में जहां, शिक्षा, स्वास्थ्य, गैरबराबरी की भेद इतना गहरा है, उसमें दलित, पिछड़ी जातियों को एकाएक बराबरी ला खड़ा करने के लिए कर्पूरी ठाकुर यह जरूरी लगा कि अगर उन्हें नौकरशाही में जगह दे दी जाएगी, नौकरी में आरक्षण दे दिया जाएगा तो वह दूरी कुछ हद तक कम जाएगी। कुछ हद तक ऐसा हुआ भी, लेकिन वह कुछ हद तक ही हो पाया। सवर्णों ने कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया। तथाकथित पढ़ा-लिखा व विद्वत समाज पूरी तरह कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ हो गए। कर्पूरी ठाकुर को न सिर्फ जातिवादी कहा गया बल्कि लालू यादव से पहले तक सवर्णों की नजर में सबसे बड़ा खलनायक माना जाने लगा। लालू यादव भ बिहारी व भारतीय समाज के सबसे बड़े खलनायक तब बने जब उन्होंने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की प्रतिबद्धता दुहरायी। जनता पार्टी के सरकार में कर्पूरी ठाकुर द्वारा लागू किए गए आरक्षण के चलते जो घृणा सवर्णों ने उनके खिलाफ पाली वही घृणा सवर्णों ने लालू यादव के खिलाफ अभी भी पाल रही है।

यहां चूक यह हुई कि जो काम उन्होंने राजनीतिक ताकत से एक बार में लागू कर दिया उसके लिए समाज तैयार नहीं था, क्योंकि दलित-पिछड़ा समाज में कोई परिवर्तन का आंदोलन न तब चल रहा था और न ही अब चल रहा है। जब समाज जड़ होता है तो इसके लिए सांस्कृतिक संगठनों को तैयार करना पड़ता है, सांस्कृतिक संगठनों को बनाना पड़ता है और पब्लिक इंस्टीट्यूशन को बचाना पड़ता है, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया और पब्लिक इंस्टीट्यूशन खतम होते चले गए। बिहार में शिक्षा के गर्त में जाने का एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि सामाजिक आंदोलनों के लिए जो एक अलग से जमीन तैयार होनी थी, उसमें बड़ा ठहराव आ गया। पिछले चालीस वर्षों के इतिहास को देखें तो हम पाते हैं कि शिक्षा का एक भी बड़ा केन्द्र नहीं खुल पाया जबकि पहले जो भी था, वह भी तहस-नहस हो गया।

लेकिन कर्पूरी ठाकुर के लोकतांत्रिक विजन को देखना हो तो इस तरह देखें कि जिस जाति के लोग गांव में दो घर से ज्यादा नहीं होता और किसी-किसी गांव में तो एक घर भी नहीं होता है, उस जाति का आदमी दो बार बिहार जैसे राज्य में मुख्यमंत्री बनता है! इस बात को अगर हम अलग नजरिए से समझना चाहें तो कह सकते हैं कि विभिन्न समुदायों को अपने साथ जोड़ने के लिए उन्होंने राजनीति और मुद्दे को कितनी गहराई तक साधा था! अगर बिहार सामाजिक रूप से सजग होता तो कर्पूरी ठाकुर और बड़े व्यक्तित्व के रुप में समाज में स्थापित हुए होते। फिर भी, जैसे-जैसे समाज सजग हो रहा है, कर्पूरी ठाकुर की अहमियत बढ़ती जा रही है!

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