शीर्षक:- अधूरी ज़िंदगी

शीर्षक:- अधूरी ज़िंदगी

जे टी न्यूज़

✍️गोविन्द कुमार

सोचता ही रहा हूं, निरंतर मैं
अपने ख़्वाबों और ख्यालों में
कि मंजिल मिल जाए
मेहनत करता हूं ,
सुराखें बना देता हूं
आसमां की ऊंचाइयों में
ख़्वाब मुकम्मल है ,
राहें आसान नहीं,
एक मंजिल मिलती नहीं
ख्वाब बहुत बढ़ गए,
सोचता हूं, सीढ़ियों पर चढ़ जाऊँ सीढ़ियों पर चढ़ता तो हूं
मगर सीढ़ियां का अंत
कहीं दिखता ही नहीं
क्या करूं थक जाता हूं, थक थक सा जाता हूं ।
चढ़ता हूं गिरता हूं
चढ़ते जाता हूं थकते जाता हूँ चढ़ते जाता हूं थकते जाता हूँ !
राहें आसान नहीं!
मंजिल चारों तरफ़ है ,
मगर पथ कठिन है
पथ कि सीढ़िया इतनी लम्बी
कि अंत कही दिखता नहीं
क्या करे कि न कोई
न सलाहकार है और
न कोई साहिल!

उम्मीद लिए जिधर जाता हूँ
खाली हाथ उधर से आता हूँ
क्या करें कि बेरोजगारी का
दंश झेल रहा हूँ !

सोचता सभी है
अपनी गरीबी को मिटाना
गरीबी का बोझ
बेबस कर देता है!
ख़ुद से खुद को पाना।

क्या बचपन भी दिन थे अल्लहड
मुझे कहा गया कि वो बीते बड़े मस्ती में
झूम झूम कर बाग-बगीचे में
खेला करता दोस्तों के साथ
मस्ती में लीन रहा करता!
नहीं कोई फ़िक्र
ना कुछ पाने चाहत
न ही उठने कि फ़िकर
न ही खाने कि फ़िकर
न ही नहाने कि फिक्र
और न ही कभी कहीं जाने का फ़िकर!

अब तो बस उम्मीद है
नौकरी की रिक्तियां आने की
कोचिंग में दोस्तों के साथ
ग्रुप डिस्कस करने में
फ्यूचर का प्लान बनाने में
जीवन को उज्जवल बनाने में!
बस इतनी ही चाहत बचा पाता हूं ।
क्या करू थक जाता हूं थक थक सा जाता हूं ।।

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