पुरूष प्रधान समाजों में भी अपनी हौशला रखी मजबूत :- वीणा

जेटी न्यूज

वीरपुर ( बेगुसराय )किसी ने सच ही कहा है कि परिस्थिति कितना भी विपरीत क्यों न हो, उसका डटकर मुकाबला करें। सुख दुःख जीवन के दो पहलू हैं।एक ना एक दिन सफलता झक मारकर आपके सामने झुक जाएगी। जिसका ताजा उदाहरण वीरपुर के फजिलपुर गाँव की है।
21वीं सदी में भी पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को उपेक्षित नजरों से देखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है। यह समाज की कड़वी सच्चाई है कि महिलाओं की जिंदगी आज भी घर के चहारदीवारी के अंदर कैद है और उनको घर के अंदर के काम करने से ही मतलब तक समझा जाता है। घर खाना बनाने के साथ साथ बच्चों के देख रेख और बड़े बुजुर्गों का ख्याल रखना ही उसके लिए सबसे बड़ी काम और उसी काम में उसकी जिंदगी बिताने में उसकी प्रसंशा होती है।

वहीं वीरपुर प्रखंड के फजिलपुर गाँव की बहू कुमारी वीणा आज महिलाओं के लिए ,महिलाओं में एक मिशाल बनकर सामने आई है। वीणा वर्ष 2007 में पति राजकुमार महतों की मौत के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। विगत 13 वर्षो से लगातार साइकिल सेप्रखंड के विभिन्न गांवों जैसे परबंदा, फजिलपुर, मुरादपुर, जगदर ,खरमौली एवं जिंदपुर में डाक पहुंचा रही है। वीणा अपनी नम आँखो में आँसू लिए अपनी आपबीती कहती है कि जब पति की मौत की खबर आई तो मेरे आंखों के सामने अंधेरा छा गया, लगा जैसे मेरी पूरी दुनिया ही उजड़ गई है। दो छोटे-छोटे बच्चों की भविष्य की चिंता मुझे दिन रात सताने लगी रात में सोने नहीं देती थी। पति डाक विभाग में कार्यरत थे, उनके मौत के बाद मुझे अनुकंपा पर वर्ष 2009 में डाक विभाग में छः गाँव में डाक पहुंचाने का जिम्मा मिला । काम बहुत मुश्किल था।

पति जब जीवित थे उस समय मैं घर में ही रहती थी घर से बाहर निकलने पर पावंदी थी। अब मेरे सामने घर को संभालने और डाक पहुँचाने की दोहरी चुनौती थी। मुझे किसी गाँव की भी जानकारी नहीं थी। प्रथम दिन जगदर की मीना देवी की पहल पर उनके पुत्र ने क्षेत्र के गांवों से मेरा परिचय कराया। तब जाकर मैं पैदल ही सभी गांवों में डाक पहुंचाने लगी। करीब एक साल तक हर रोज पैदल डाक पहुँचाकर जब शाम में घर लौटती थी तो बच्चे भूखे मेरा इंतजार कर रहे होते थे । उनके लिए खाना बनाना और खिलाकर फिर मैं सोती थी।

उस समय वीरपुर खरमौली को जोड़ने के लिए पुल भी नहीं था। खरमौली और ज़िंदपुर नाव द्वारा नदी पार कर डाक पहुँचाना पड़ता था। इच्छा होती थी साइकिल सीख लू। पर समाज क्या कहेगा ?इसका डर था । एक दिन किसी छात्र का परीक्षा का प्रवेश पत्र आया था। पहुंचाने में थोड़ा देर हो गया ।उन्होंने मुझे काफी डांटा -डपटा और इसकी शिकायत पोस्ट मास्टर साहब से कर दी। पोस्ट मास्टर साहब ने मुझे बुलाकर देरी का कारण पूछा। मेरे आँखो से आँसू निकलने लगे। उसी समय मैंने साइकिल सीखने का निश्चय की। अब मैं निर्णय कर चुकी थी समाज चाहे जो कुछ भी कहे, मुझे साइकिल चलाना है ।घर आकर अपने पुत्र की मदद से साइकिल सीखने की कोशिश की। लेकिन असफल रही।तब मैं 10 दिन की छुट्टी लेकर अपने नैहर चली गई । अपने भैया की मदद से साइकिल चलाना सीखी। सीखने के बाद भी छः महीनों तक समाज के डर से पैदल ही डाक पहुँचाती रही। 2010 में मेरे भैया जिन्होंने मुझे साइकिल चलाना सिखाया था ,मेरे गाँव फजिलपुर आकर मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि आज साइकिल से वीरपुर चलो। भैया आगे आगे और साइकिल चलाते पीछे पीछे मैं वीरपुर गई। अगले दिन से अब पैदल न चलके साइकिल द्वारा डाक पहुँचाने लगी। जब मैं साइकिल से चलती थी घर परिवार ,समाज और गाँव के लोग मुझे उपेक्षित नजरों से देखते और तरह तरह की बातें करते थे। मैंने इसकी कोई परवाह नहीं की, अपने कामों में लगी रही। अफसोस होता है !आज भी पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को हीन भावनाओं से क्यों देखता है?

महिलाओं को घर के चहारदीवारी में कैद कर आज भी क्यों रखा जा रहा है? समाज को संदेश देते हुए वीणा कहती हैं कि महिलाएं आज किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है । पुरुष प्रधान समाज अपनी मानसिकता को बदलें और महिलाओं का सम्मान करना सीखें। महिलाओं से अपील करते हुए वीणा कहती है कि जीवन के हर चुनौती का सामना करें। चाहे परिस्थिति कितना भी विपरीत क्यों न हो, उसका डटकर मुकाबला करें। सुख दुःख जीवन के दो पहलू हैं।एक ना एक दिन सफलता झक मारकर आपके सामने झुक जाएगी।

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