पंचायत चुनाव महज बना राजनीतिक अखाड़ा, जनता बंचित होती है अपने अधिकारों से।

जे टी न्यूज़
आपको बताते चले कि पंचायती राज को अस्तित्व में लाने का मुख्य कारण सत्ता में भागेदारी बनाने के मकसद से पंचायती राज का स्थापना हुआ था। 1993 में संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद पंचायती व्यवस्था का परिणाम काफी बेहतर तो नहीं मगर आशा जनक रहा है। पंचायती राज के स्थापना होने से पिछड़े और वंचित लोगों को सशक्त बनने में मदद मिली है। इससे सत्ता का विकेंद्रीकरण पर क्या प्रभाव पड़ा है और क्या सच में समाज के हर वर्ग को सत्ता में प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त हुआ है?

पंचयाती राज को संवैधानिक दर्जा मिलने का मकसद शक्ति का विकेंद्रीकरण कर के पंचायत और गाँव को मजबूत करना था। केन्द्र और राज्य सरकार शक्तियों को कम कर के स्थानीय राज को अधिकार देना का मकसद था। लोकतंत्र को पंचायत के स्तर पर मजबूत करना था। पंचायती राज का भी नाकरात्मक प्रभाव होने लगे लोग पैसे, दबंगगिरी और नशीली पदार्थों का उपयोग कर के चुनाव के महौल को तहस-नहस और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाते हैं। इसमें सियासी दलों का दखल अंदाजी से पंचायत चुनाव धीरे धीरे राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है। इसमें अशिक्षित महिलाएं चुनाव तो लड़ लेती हैं मगर अपना प्रतिनिधित्व और अपने अधिकारों का इस्तेमाल सुचारू रूप से नहीं कर पाती हैं। इससे समाज में कुप्रभाव का महौल बन रहा है। समाज में मुखिया पति, सरपंच पति और जिला परिषद पति जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके टिप्पणी की जा रही है। इस चुनाव में चुनावी हिंसा और सियासी दुश्मनी भी खूब देखने को मिलती है।


पंचायत चुनाव में भी अब लोकसभा और विधानसभा की तरह दूषित राजनीति की शुरुआत हो चुकी है। पंचायत चुनाव में प्रतिनिधि खुद आत्मनिर्भर नहीं होने के कारण सही फैसले लेने में सक्षम नही होते है। पंचायत चुनाव में तो राशि विकाश के लिए मिलती है लेकिन सरकार के द्वारा पंचायत के जीते हुए प्रतिनिधि को आत्मनिर्भर बनाने या प्रशिक्षण देने का प्रयास नहीं किया जाता है। पंचायत चुनाव में घूसखोरी और भ्रष्टाचार चरम सीमा को पार कर चुका है। प्रखंड का चक्कर भी लगाना पड़ता है। प्रखंड में पदाधिकारियों द्वारा लापरवाही बरतने से आम लोगों की अधिकार दबी रह जाती है और उनको लाभ मिलने में काफी समय का इंतजार करना पड़ता है। कोई काम तेजी से नहीं हो पाता है। कारण स्थानीय जगहों पर सांसदों और मंत्रियों का लगातार प्रभाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में पंचायत चुनाव लड़ना भी पैसों क खेल हो गया है जो कि गरीब और वंचित लोगों के इक्षा शक्ति से बाहर हो गया है। ग्राम पंचायते हमेशा से ही सांसदों और विधायकों पर निर्भर रहता है। इस से गांवों में स्वराज का सपना पूरा नही पायेगा।

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