(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *बादल सरोज* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे या लिंक भेजेंगे, तो खुशी होगी।)

(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *बादल सरोज* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे या लिंक भेजेंगे, तो खुशी होगी।)

*निर्माण की जगह ध्वंसों और हादसों का इतिहास? : भारत की वैचारिक परम्परा के निष्कासन और बहिष्करण की संघी परियोजना!!*
*(आलेख : बादल सरोज)*

मध्यप्रदेश में एमबीबीएस के छात्रों को अब आरएसएस संस्थापक हेडगेवार और जनसंघ के संस्थापक नेता पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार पढाए जाएंगे। चिकित्सा शिक्षामंत्री ने इस घोषणा के लिए तारीख सरकारी शिक्षक दिवस – 5 सितम्बर – की चुनी। बकौल उनके ये विचार एमबीबीएस के फाउंडेशन कोर्स में मेडिकल एथिक्स – नैतिक शिक्षा – के टॉपिक का हिस्सा होंगे। मंत्री का दावा है कि “इससे अच्छे डॉक्टर तैयार होंगे।” वैसे “अच्छे डॉक्टर्स तैयार करने” के मामले में मध्यप्रदेश भाजपा के राज में आने के बाद से पूरे प्राणपण के साथ जुटा हुआ है।

इसके लिए वह न जाने कितने व्यापमं कर चुका है। अभी भी – भले नाम बदल गया है – मगर हर सप्ताह कोई-न-कोई नया व्यापमं उजागर होता ही रहता है। भाजपा सरकार का अपने इन दोनों “कुल गुरुओं” को मेडिकल शिक्षा (कहते हैं कि किसी प्रदेश में इन्हे इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है।) में शामिल करना भी एक तरह का व्यापमं ही है।

इसलिये कि हेडगेवार डाक्साब ने बाकी जो कुछ किया होगा, सो किया होगा; लेकिन विचार न कभी किया, न दिया। उन्होंने सोच-विचार की सारी जिम्मेदारी डॉ. मुंजे को आउटसोर्स कर रक्खी थी। मुंजे साब भी बहुत क्रिएटिव आदमी थे, वे सीधे मुसोलिनी और हिटलर के पास पहुंच गए थे और एक से डिप्लोमा, दूसरे से डिग्री ले आये थे। वही उनके “विचार” और संगठन और यहां तक कि उसके गणवेश का आधार बना।

 

इटली में मुसोलिनी से मिलने और उसके फासिस्ट ट्रेनिंग शिविरों में कई दिन रहने के बाद लौटकर आये डॉ. मुंजे ने बताया कि उन्होंने मुसोलिनी के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए उससे कहा था कि ”हर एक महत्वाकांक्षी और विकासशील राष्ट्र को सैन्य पुनर्जागरण के लिए ऐसे फासीवादी संगठनों की जरूरत है।” इसी बैठक में मुंजे ने मुसोलिनी से कहा था कि “अब वे पूरे भारत में हिंदू धर्म का मानकीकरण करने के लिए हिंदू धर्म शास्त्र की पुनर्व्याख्या पर आधारित एक योजना के बारे में सोच रहे हैं।” इटली में मुसोलिनी के गुरुकुल से दीक्षित होने के बाद ही उन्होंने भारत लौटकर उन विचारों के आधार पर आरएसएस को ढाला था। उसकी ड्रेस और ड्रिल की समझ भी वे वहीँ से लेकर आये थे। ध्यान रहे कि ये वही मुसोलिनी थे, जिसने कहा था कि “फासिज्म को कार्पोरेटिज्म कहना ज्यादा सही होगा, क्योंकि यह सत्ता और कारपोरेट का एक दूसरे में विलय है।” लिहाजा मौजूदा काल में बनाई और लागू की जा रही नीतियों के मामले में मुसोलिनी के गुरुमंत्र की निरंतरता को ध्यान में रखे जाने से गुत्थी काफी सुलझती है। रहे पंडित जी दीनदयाल उपाध्याय, तो उनका एकात्म मानववाद क्या है? यह रहस्य का विषय है। इस सवाल का जवाब आज तक उनका प्रखर से प्रखरतम अनुयायी भी नहीं दे पाया। अब उनके कौन-से विचार पढ़ाये जाएंगे, यह भी एक रहस्य ही है।

इसलिए मूल समस्या यह नहीं है कि भाजपा-आरएसएस सरकारें अपने इन दोनों महापुरुषों को एमबीबीएस और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में शामिल कर रही हैं ; ज्यादा बड़ी समस्या यह है कि वे उनके बहाने चिकित्सा और अभियांत्रिकी के छात्रों को सीधे मेन सोर्स पढ़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं। ताज्जुब की बात नहीं होगी यदि 2024 तक आते-आते हिटलर की आत्मकथा “मीनकाम्फ” और मुसोलिनी की “मेरी आत्मकथा” और “फासिज्म का सिद्धान्त” भी हर तरह की शिक्षा में अनिवार्य कर दिया जाए। यह बात अलग है कि जहां के ये दोनों – मुसोलिनी और हिटलर – थे, वहां – इटली और जर्मनी में – इनका नाम लेना भी अपराध है और कभी-कभार इनका जिक्र भी यदि होता है, तो मनोचिकित्सा के कोर्स में रोगों की सूची में दर्ज विषय या इन राष्ट्रों के त्रासद अतीत के प्रतीक के रूप में होता है। इन्हें “भारत दैट इज इंडिया” में पढ़ाया जा सकता है।

मगर वे सिर्फ पाठ्यक्रमों में नया जोड़ ही नहीं रहे हैं। जो उनकी फासिस्टी करतूतों को आईना दिखा सकता है, उसके जहर के निष्प्रभावीकरण की ताब रखता है, उसे बेहद योजनाबद्ध तरीके से हटा भी रहे हैं। भारत के इतिहास के ग्रंथों को तैयार करने की महत्वाकांक्षी योजना में वे पहले ही पलीता लगा चुके थे। दुनिया भर में प्रतिष्ठा और सम्मान के साथ देखे जाने वाले इतिहासकारों आर एस शर्मा, डी एन झा, रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब की किताबों को कोर्स निकाला दे चुके थे। अब उन्होंने बाकी बचे-खुचों को भी निबटाना शुरू कर दिया है। इमरजेंसी में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को मार माफीनामे लिखने के बावजूद, जिस संपूर्ण क्रांति की पीठ पर सवार होकर जनसंघ (अब भाजपा) ने थोड़ी बहुत स्वीकार्यता पायी थी, उसके जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण को उन्हीं की स्मृति में स्थापित छपरा के जयप्रकाश विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के सिलेबस से निकाल बाहर कर दिया गया है। इस कोर्स-निकाले में जेपी अकेले नहीं है। उनके साथ गैर- कांग्रेसवाद के नारे के बहाने जनसंघ से गलबहियां करने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया भी हैं। वही लोहिया — खुद को जिनका “मानसपुत्र” बताने वाले नितीश कुमार उस प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, जहां यह सब हो रहा है। इसी विश्वविद्यालय ने जेपी के प्रिय एम एन रॉय और “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” कहने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को भी पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया है। इन सबकी जगह अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को पढ़ाया जाएगा।

भारत की वैचारिक परम्परा के निष्कासन और बहिष्करण का सिलसिला सिर्फ इतना ही नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने जानी-मानी लेखिका, साहित्य एकेडमी, ज्ञानपीठ औऱ पद्म विभूषण अवार्ड से सम्मानित महाश्वेता देवी की लघुकथा “द्रौपदी” को भी अंग्रेजी के सिलेबस से हटा दिया है। पुलिस बर्बरता की शिकार आदिवासी युवती की इस कहानी को 1999 से लगातार पढ़ाया जा रहा था। इसके साथ ही दो दलित महिला लेखिकाओं – बामा और सुखरथारिनी – की रचनाएं भी गायब कर दी गयी हैं। शोर मचने और कमेटी के 15 सदस्यों के विरोध करने पर, जिस कमेटी की सिफारिश पर यह सब हटाया गया है, उसके अध्यक्ष एम के पंडित ने जले पर नमक छिड़कने के अंदाज तर्क दिया है कि वे “मैं लेखकों की जाति नहीं जानता। मैं जातिवाद में विश्वास नहीं करता। मैं भारतीयों को अलग-अलग जातियों के रूप में नहीं देखता।” यह बात अलग है कि भाई खुद अपने आपको “पंडित जी” कहलाने में गौरव महसूस करता है। ऐसा नहीं है कि वे नये जोड़ने के बारे में कंजूसी कर रहे हैं। इन पंक्तियों के लिखते-लिखते खबर आयी है कि मध्यप्रदेश सरकार ने इंजीनियरिंग के कोर्स में महाभारत पढ़ाने का आदेश दिया है। अब इसे पढ़कर वे लाक्षागृह बनाना सीखेंगे या रातोंरात इंद्रप्रस्थ का निर्माण करेंगे, यह स्पष्टीकरण आना बाकी है।

यही सिलसिला बाकी जगहों पर भी जारी है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् ने आजादी के अमृत महोत्सव – 75 वीं जयन्ती – की श्रृंखला में जो पोस्टर्स जारी किया है उसमें भारत के पहले प्रधानमंत्री ही गायब हैं – जबकि माफीनामे के रिकॉर्ड और वजीफ़ाख़ोरी के दस्तावेजी प्रमाणों वाले सावरकर इसमें शामिल हैं।

विचार में घोर साम्प्रदायिक और व्यवहार में जाति श्रेष्ठता के दंभी हामी “महामना” पंडित मदन मोहन मालवीय इसमें मौजूद हैं। स्वतन्त्रता आंदोलन की विशिष्टता हिन्दू-मुस्लिम एकता, स्त्रियों की बढ़चढ़कर भागीदारी और इसका सर्वभारतीय स्वरुप है। मगर सरकारी पोस्टर में न कोई महिला है, ना ही मुसलमान, ना दक्षिण भारत का कोई सैनानी। लगता है पोस्टर मनुस्मृति में वर्णित आर्यावर्त के भौगौलिक विवरण के आधार पर तैयार किया गया है और इतिहास को गंगा-जमुना के बीच के हिंदी सवर्ण नेताओं तक समेट दिया गया है। दूसरी तरफ सजावट के नाम पर जलियांवाला बाग़ से ज़ुल्म की पहचानें मिटाई जा रही हैं – यह भुलाया जा रहा है कि ये शहादतें उस रैली में हुयी थीं, जो तेजबहादुर सप्रू और सैफुद्दीन किचलू की रिहाई के लिए हुयी थीं।

इतिहास से वही डरते हैं, जिनका या तो कोई इतिहास नहीं होता या होता भी है, तो कलुषित और कलंकित होता है। ये नया इतिहास भी नहीं रचते, इसलिए कि ये सृजन नहीं, विनाश करते हैं और इतिहास दुर्घटनाओं या ध्वंसों के नहीं, निर्माणों के होते हैं। इतिहास छल कपट के नहीं, आगे की तरफ बढ़ने, बदलाव करने की जद्दोजहद के होते हैं। वर्तमान इन्हीं जद्दोजहदों और संघर्ष का है। इनसे उभरती उजास और गर्माहट ही रचेगी इतिहास। मौजूदा हुक्मरानों का वही होगा, जो कवि मुकुट बिहारी सरोज कह गए हैं :
“जिनके पाँव पराये हैं जो मन के पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे लेकिन इतिहास नहीं। ”

*(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक तथा अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

Related Articles

Back to top button