गीत

गीत
जे टी न्यूज


शहर छोड़ कर किसी गांव में,
बस जाने को मन करता है।।

इधर रात का यह अंधियारा,
पग-पग पर रोमांच परोसे।
इस बस्ती का सोना जगना,
दिखता सबकुछ राम भरोसे।।

सन्नाटों का राग सुना तो,
‌ भूली मुझे मल्हार भैरवी।
निशा सुना कर अपनी लोरी,
है सोने की करे पैरवी ।।

अपना कौन कौन बेगाना,
सब कुछ है जाना पहचाना।
हरे भरे महके मौसम को,
कुतर-कुतर कर मन चरता है।।
शहर छोड़ कर किसी गांव में,
बस जाने को मन करता है।।१।।

जंगल-खेत प्रगति ने लीला,
कांकरीट है उसका चोला।
वसनहीन हो गई सभ्यता,
समझ न पाता कुछ मन भोला।।

राजनीति के दांवपेंच में,
भाईचारा है चपेट में।
नेता के मुंह राम नाम है,
पता नहीं क्या मगर पेट में।।

लाठी-डंडा पुलिस जेल हे,
अंधों के हाथो गुलेल है।
संवेदन को राज रोग है,
घर के भीतर मन डरताहै।।
शहर छोड़ कर किसी गांव में,
बस जाने को मन करता है।।२।।

अंध भक्त हैं गुंडे भी हैं,
उनका ही शासन चलता है।
न्याय नहीं मिलता गरीब को,
शासन से राशन मिलता है।।

प्रजातंत्र की सांस चल रही,
‌सिर्फ वोट की मारा मारी।
खुल्लम खुल्ला वोट बिक रहा,
यह कैसी फैली बीमारी।।

कुर्सी – कुर्सी भ्रष्टाचारी,
बेवश जनता की लाचारी।
नीति चढ़े जब भी सूली पर,
जीते जी यह मन मरता है।।
शहर छोड़ कर किसी गांव में,
बस जाने को मन करता है।।३।।

कु.पूजा दुबे सागर, मध्य प्रदेश

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