प्रत्यक्ष प्रजातंत्र प्रणाली हीं भारत और भारतीयों को जीवनदान दे सकता है डॉ. धर्मेन्द्र कुमार यादव

प्रत्यक्ष प्रजातंत्र प्रणाली हीं भारत और भारतीयों को जीवनदान दे सकता है डॉ. धर्मेन्द्र कुमार यादव

जे टी न्यूज, मधुबनी: अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन लोकतंत्र को “लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए सरकार” के रूप में परिभाषित किया था जहाँ ‘लोगों’ का मतलब जनता से है. लेकिन आज की हालात भिन्न है. रोबर्ट विच ने लोकतंत्र को सभी सरकारों में सबसे घटिया माना था. एच. एल. मेंच्कें ने कहा था कि ‘केवल एक अमीर और सुरक्षित देश हीं लोकतंत्र को बर्दास्त कर सकता है’. जबकि विश्व के महान दार्शनिक अरस्तु ने इसे गरीब और अयोग्य लोगों का शासन कहा है.

रूस के महान नेता जोसेफ़ इस्टालिन एक बार अपने साथ संसद में एक मुर्गा लेकर गए और सबके सामने मुर्गे का एक एक पंख नोचने लगे. मुर्गा दर्द से तड़पता रहा. मगर एक एक करके उन्होंने सारे पंख नोच दिया. फिर जेब से कुछ अन्न के दाने निकालकर मुर्गे की तरफ फेंकना शुरू किये और आगे चलने लगे. मुर्गा दाना खाता हुआ उनके पीछे पीछे चलने लगा. वो बराबर दाना फेंकते रहे, मुर्गा बराबर मुंह में दाना डालता हुआ पीछे पीछे चलता रहा. आख़िरकार वो मुर्गा उनके के पैरों में आ खड़ा हुआ. इस्टालिन स्पीकर की तरफ देखा और बोला “लोकतान्त्रिक देशों की जनता इस तरह मुर्गे की तरह होती है”. इसमें कोई शक नहीं कि आज अस्सी करोड़ भारतीय जनता की हालत पांच किलो अनाज पर टिक गयी है. सामन्ती पूंजीवाद को मजबूत करने के चक्कर में लोकतंत्र का जनाजा निकाला जा रहा है और भारतीयों को एक नयी गुलामी की ओर ले जाने की कोशिश ने उन्हें (जनता को) लोकसभा चुनाव 2024 के द्वार पर खड़ा कर दिया है.

रूस में समाजवाद को मजबूत करने के कई कदम उठाये गए थे लेकिन पूंजीपतियों ने चक्रव्यूह कर उसे सफल होने नहीं दिया क्योंकि अर्थव्यवस्था राजव्यवस्था की हमेशा धुरी रही है. भारत में तो लोकतंत्र लागु होते हीं इस पर शनि की दृष्टि पड़ गयी थी. तब से हीं देश में राजतन्त्र और जमींदारी व्यवस्था लाने की कोशिश हो रही है. फ़िलहाल भारत का लोकतंत्र पूरी तरह से पूंजीपतियों के कब्जे में है और सरकार उनका सीईओ बन कर सभी राष्ट्रिय संसाधनों को एक एक कर निजी हाथों में सौंप रही है. भविष्य क्या होगा कोई नहीं जानता लेकिन पिछले दस सालों में देश छोड़ने वाले भारतीय करोड़पतियों की जिस तरह बाढ़ आई है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भविष्य अंधकारमय होने वाला है और हम सैकड़ों साल पीछे जा रहे है. तो क्या हम अपने आने वाले पीढ़ियों को अंधकार में धकेल दें या कोई और उपाय किया जाय?

देश के पारंपरिक राजतन्त्र परिवार के पारंपरिक वर्गों ने भारतीय लोकतंत्र को फेल करने की कोशिश तो आजादी के बाद से हीं शुरू कर दी थी. भला हो स्व. इंदिरा गाँधी जी का जिन्होंने इस पर कुछ हद तक लगाम लगायी थी. जब नकारात्मक प्रवृति खासकर धर्म के अनुयायी लोग सत्ता में आते हैं तो सबसे पहले हुक्मरान जनता का सब कुछ लुट कर उन्हें अपाहिज कर देता है और बाद में थोड़ी सी खुराक देकर उनका मसीहा बन जाता है. आज भारतीय जनता ऐसे हुक्मरानों के चंगुल में फंसा हुआ है जो राष्ट्रवाद के नाम पर भारतीयों का पंख एक एक कर कुतर रहा है. एक तरफ राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी हाथों में सौंप रहे हैं दूसरी तरफ जनता के अधिकारों को सीमित किया जा रहा है. किसान आन्दोलन, ड्राईवर आन्दोलन, नागरिक बिल पर आपाधापी, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, आदि से गैर मुसलमानों को लाने की नीतियाँ. एकदम भारतीय जनता को गुमराह कर रखा है. जिस राम राज्य की बात की जाती है वो नब्बे फीसदी जनता के दमन और लोकतंत्र की लाश पर हीं बनेगा.

 

सकारात्मक सोच के साथ तो लोकतंत्र का मतलब अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी परिभाषा हीं है कि “लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन है”. लेकिन क्या कभी देश में ऐसी स्थिति बनी कि जनता स्वयं को देश का मालिक कह सके? आज सच में लोकतंत्र खतरे में है क्योंकि भारत की ज्यादा आबादी के अनपढ़ और राजनीति से अनभिज्ञ होने के कारण प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था में या नीति निर्माण में इनकी कोई भी प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है. कहने को तो सुझाव मंगवाए जाते हैं सर्वे किया जाता है और कुछ आंकड़े पेश भी कर दिया जाता है लेकिन यह सत्य से कोसों दूर होता है और उसका एकमात्र कारण होता है जनता को अँधेरे में रख कर नीतियाँ बनाना. कहने का तात्पर्य है कि वर्तमान लोकतंत्र में प्रत्यक्ष रूप से जनता की भागीदारी होती हीं नहीं है क्योंकि हमारे देश में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है.

 

शब्द ‘अप्रत्यक्ष लोकतंत्र’ काफी पुराना है लेकिन आम जनता के नजर में नया हो सकता है. लोकतंत्र मुख्यतः दो प्रकार के होते है: प्रत्यक्ष लोकतंत्र और अप्रत्यक्ष लोकतंत्र. भारत में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है.

 

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को प्रतिनिधित्व लोकतंत्र (Representative Democracy) भी कहते है जिसमें मतदाता सिर्फ मतदान करता है. बाकि देश को चलाने वाली सभी नीतियाँ जनता नहीं बल्कि उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि तय करते हैं जो कि समबन्धित राजनितिक दल के इशारों पर कार्य करते हैं. अगर उनका पार्टी उनके समाज के खिलाफ भी काम करते हैं तो वो प्रतिनिधि मूकदर्शक बने रहते हैं. जैसे किसान, मजदुर, उनके ऊपर शोषण, उनका दलित, पिछड़े आरक्षण की चोरी पर भाजपा कांग्रेस के दलित, पिछड़े, आदिवासी सांसदों और विधायकों का मौन रहना और सवर्ण के दस फीसदी आरक्षण पर सवर्ण और दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक के सभी सांसदों विधायकों का मौन रहना. देश के नब्बे फीसदी से ज्यादा आबादी तक देश के विकास का हिस्सा नहीं पहुँच पाना इसी की देन है. सरकारें भी बुद्धिजीवियों के इशारे पर कार्य करती है और इन वर्गों में नब्बे फीसदी की आबादी की सहभागिता लगभग नगण्य रही है या फिर जो है भी वो सिर्फ मूकदर्शक रहा है.

 

 

 

प्रत्यक्ष लोकतंत्र को भागीदारी लोकतंत्र (Participatory Democracy) भी कहते है क्योंकि इसमें लगभग हर नीति बनाने में नागरिक का प्रत्यक्ष योगदान होता है. इसका कुछ हद तक स्विट्ज़रलैंड में प्रयोग होता है. इसमें जनता सिर्फ वोट देने का अधिकारी हीं नहीं बल्कि देश को कैसे चलाना है किस कानून और निति के अनुसार चलाना है, में भी भागीदारी होती है. प्रत्यक्ष लोकतंत्र में नागरिक के पास ज्यादा अधिकार होता है. जैसे केंद्र सरकार ने पिछले दस साल में मनमाना तरीके से कानून बनाया है जैसे नोटबंदी, किसान कालाकानून, ड्राईवर कानून, जी.एस.टी. आदि जो आम जनता के खिलाफ है, ये प्रत्यक्ष भागीदारी लोकतंत्र में संभव नहीं था. प्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता, मतदाता, नागरिक वास्तव में मालिक होता है जबकि अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में मात्र वोट देने वाला मतदाता या यूँ बोले मानसिक गुलाम. अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में राजनीति एक परसेप्शन का खेल बन जाता है जबकि प्रत्यक्ष लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और राजनेताओं को प्रत्यक्ष रूप से अपना कार्य जनता को दिखाना होगा, उसे हिसाब देना होगा. वर्तमान सरकार ने एक पी.एम. केयर फण्ड बनाया है और इसे आर.टी.आई. से मुक्त रखा है. है न हैरानी की बात कि देश की जनता उस फण्ड पर सवाल नहीं कर सकता है.

 

भागीदारी लोकतंत्र में जनता, मतदाता और नागरिक को यह अधिकार होता है कि वो किसी भी कानून को खुली चुनौती दे सकता है किसी भी फण्ड के बारे में जानकारी तो मांग हीं सकता है जो रक्षा या सुरक्षा से जुड़े मुद्दे न हो तो. और इसके लिए उसे किसी भी लम्बी प्रक्रिया से गुजरनी नही होगी. पिछले 120 साल में करीब 240 मुद्दों पर स्विट्ज़रलैंड में जनता ने अपना फैसला सुनाया और जो तक़रीबन नब्बे फीसदी जनविरोधी कानून थे उसे नकार दिया और मुश्किल से दस फीसदी कानून को पास होने दिया जो सभी नागरिक के पक्ष में थे. आज जो सामान नागरिक संहिता की बात करता है, हालाँकि इतनी जल्दी बिना उसे सार्वजनिक प्लेटफ़ॉर्म पर आये कुछ कहना ठीक नहीं होगा लेकिन उसमें उसका कुटिल चाल जरुर छुपा हुआ होगा जिसमें धार्मिक और जातीय चालबाजी की चासनी मिली होगी. सबसे बड़ा शिकार आरक्षण होगा. जिसे अगर जनता के फैसलों पर छोड़ दिया जाय तो नब्बे फीसदी नागरिक नकार देगा. एक वक्त था जब एक कानून के कारण अधिकांश मुसलमान कौम सड़कों पर था. इस कानून के कारण इतना दहशत था कि मर्द कौमें डर के कारण धरने में शामिल नहीं हो रहे थे और औरतें बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. अगर प्रत्यक्ष लोकतंत्र होता तो शायद वह कानून हीं नहीं बनाया जाता.

 

बहुत बड़ी जनसँख्या का बहाना बनाकर इसे ख़ारिज किया जा सकता है लेकिन अगर साफ नियत हो तो अब इन्टरनेट का जमाना है देश का अधिकांश आबादी इन्टरनेट से जुड़ चूका है हमें इलेक्ट्रॉनिक प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Electronic Direct Democracry: e – direct democracry) की बात करनी चाहिए, जिसमें सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकता है अपनी मांगों को सरकार तक पहुंचा सकता है. देश की दो परम्परागत राष्ट्रीय दल ई-गवर्नेंस (e-governance) की खूब डींगे हांकता है लेकिन आम नागरिक को शामिल करने में इनकी भूमिका शून्य है. चुनाव ई.वी.एम. से हो या बैलेट पेपर से हो, धांधली दोनों में होती है, मतदाताओं के नाम काटना आम बात है, जो उन्हें वोट नहीं करेगा उन्हें चिन्हित कर नाम काट देंगे. मतगणना में बेईमानी होती है और मैं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हूँ. 1990 से पहले उत्तर भारत में कितने दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को वोट देने को मिलता था? ये तो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जी की देन हैं कि सुदूर इलाके में बसने वाले शोषित वंचित वर्ग के लोग आज वोट दे भी पाते हैं. ऐसे शोषितों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए समाजवाद के रास्ते शिबू सोरेन, मायावती, रामविलास पासवान, कांशीराम, नितीश कुमार, शरद यादव, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद कुशवाहा, विश्वनाथ प्रताप सिंह, राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, जार्ज फर्नाडीस, अर्जुन सिंह आदि प्रणेताओं का भी काफी योगदान है.

 

चुनाव लोकतंत्र की रीढ़ होती है. प्रत्यक्ष लोकतंत्र की विशेषता ऐसी है कि कुछ चुनावों में तो स्विट्ज़रलैंड में मतदाता सूची की जरुरत हीं नहीं पड़ती है सभी नागरिक को बैलेट पेपर उनके हाथों में थमा दिया जाता है और नागरिक अपना मत देकर उसे पोस्ट कर देते हैं. कुछ मामलों में ये भारत में भी होता है. लेकिन इसकी व्यवस्था शासक वर्गों के पक्ष में ज्यादा फायदेमंद है जो लोकतंत्र को मिटाने पर तुले हुए हैं. अमेरिका के कुछ हिस्से में (New England) में कुछ क्षेत्रीय मामलों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की व्यवस्था लागु है. भारत में भी ई.वी.एम. पर उठ रहे अविश्वास ने लोकतंत्र की बुनियाद को हिला रखा है जिसे उसमें से निकलने वाली पर्ची को गिन कर दूर किया जा सकता है.

 

जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गाँधी जी ने लोकतंत्र को समाजवाद में बदलने का कोशिश किया. इंदिरा गाँधी जी ने तो समाजवाद शब्द संविधान में शामिल करवा दी, राजतन्त्र जो लोकतंत्र की आड़ में पनप रहा था उसे ख़त्म करने के लिए कानून बनाये. पारंपरिक शासकों को यह पसंद नहीं आया. साजिश कर उनकी हत्या करवाई गयी. राजीव गाँधी जी को मंदिर और सॉफ्ट हिन्दुतत्व के नाम पर गुमराह करवाया और उनकी भी जान चली गयी. न राजीव जी को गुमराह करवाया जाता, न देश में हिन्दू मुस्लिम दंगा होता जिसकी परिणती आज देख रहे हैं. अगर इंदिरा गाँधी जिन्दा होती और राजीव गाँधी जी को गुमराह नहीं किया जाता तो आज शायद समाजवाद के लिए लड़ाई की जरुरत हीं नही होती और न फासीवाद का स्तित्व होता. अतः अब समाजवादियों को भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र या प्रत्यक्ष समाजवाद (Direct Socialism) की सोचनी चाहिए.

 

 

 

मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जी के कई भाषणों से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों हीं देश में प्रत्यक्ष लोकतंत्र (समाजवाद) के पक्ष में थे. दोनों ने हमेशा कहा है कि देश की तरक्की और खुशहाली का रास्ता गाँव की पगडंडियों से होकर गुजरता है. दोनों स्मार्ट गाँव की बात करते हैं. प्रत्यक्ष समाजवाद के लिए हर वर्ग की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक जनगणना जरुरी होगी. जब तक देश के सभी वर्गों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक न्याय नहीं मिल जाता है, उन्हें उनकी जनसँख्या के अनुसार अधिकार नहीं मिल जाता है, लोकतंत्र अधुरा के साथ अप्रत्यक्ष हीं रहेगा और उसे पूरा सिर्फ प्रत्यक्ष लोकतंत्र (समाजवाद) हीं कर सकता है.

 

लोकतंत्र और समाजवाद की विचारधारा के लिए राजनीति करने और लड़ने वाले राहुल गाँधी, तेजस्वी प्रसाद यादव, अखिलेश यादव, एम. के. स्टालिन, आदि नेताओं के लिए यह एक चुनौती है जिसे उन्हें सहर्ष स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान उपमुख्यमंत्री बिहार श्री तेजस्वी प्रसाद यादव और मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार की सरकार ने जातीय जनगणना करवा कर आरक्षण का दायरा बढ़ा कर एक अच्छा कदम उठाया है लेकिन अभी जो बिहार में उठा पटक हो रहा है वो नब्बे फीसदी जनता के खिलाफ है.

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