अब नहीं सुनाई देती ढोलक के थाप पर होली गीत

अब नहीं सुनाई देती ढोलक के थाप पर होली गीत

जे टी न्यूज ,दावथ (रोहतास) बदलते परिवेश के साथ सदाबहार पुराने परंपरागत होली गीतों का लोप होता जा रहा है। होली शुरू होते ही गांव में गलियां, चौराहे गुलजार हो जाते थे। ढोलक की थाप पर मजीरा, झांझ के साथ कर्णप्रिय गीत त्योहार के महीनेभर पहले से आमद करा देते थे। यह गीत नसीहत भरे व प्राकृतिक वातावरण को समेटे मर्मस्पर्शी और झंकार पैदा करने वाले होते थे। पूरे गांव के लोग एक जगह बैठकर शाम को सिल-बट्टे की खनक के साथ भांग का सेवन करके नसीहत व मिठास भरे पुरातन गीतों को गाते व सुनते थे। सभी महिलाएं, पुरुष व बच्चे एक स्थान पर जुटकर गीत का आनंद उठाते थे, लेकिन अब बदलते समय के साथ धूम-धड़ाके वाले कानफोड़ू अश्लील गीतों के आगे सुमधुर आवाज वाले पुराने गीत गुम होते जा रहे हैं। कभी जनमानस के जेहन में स्थान बनाने वाले फाल्गुनी ऊंटों पर बैठकर गायक द्वारा गाए जाने वाले प्रियतमा तो अब लुप्त हो गए हैं। फागुन की मिठास लिए फगुआ, बेलवईया, चैता के गीत गाने वाले की भी अब कमी हो गई है। अब वह पुराने गीत व गायक दोनों का लोप होता जा रहा है। अब आधुनिकता का पुट लिए अश्लील गीत उनका स्थान ले ले रहे हैं। वर्ग विशेष के सार्वजनिक उत्सव के नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत जैसे धोबिया, कहरवा, मल्हार आदि का भी उठान होता जा रहा है। पुराने गीतों की धार्मिकता भाव वाले गीत नहीं सुनाई पड़ते, गीतों के गायक भी अब कम ही बचे हैं।

इस संबंध में बुजुर्ग 102 वर्षीय मंगनी तिवारी ने बताया कि पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अब वह पुराने गीत खत्म होते जा रहे हैं। होली के एक महीने पहले से ही शाम को गायक आते व गीत गाते तो वहां पर पूरा गांव इकट्ठा होकर सुनता था। सभी के बीच आपस में प्रेम रहता था, लेकिन वह सब गुजरे जमाने की बात हो गई है। पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव अधिक होने के कारण परंपरा खत्म होने लगी है। जैसे आज बिरज में होली रे रसिया, अवध में होली खेले रघुवीरा, की गूंज उठती थी तो पैर अपने आप थिरकने को मजबूर हो जाते थे।

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