मोदी और उनके कुनबे को वाम से इतना डर क्यों लगता है? (आलेख : बादल सरोज)

मोदी और उनके कुनबे को वाम से इतना डर क्यों लगता है?
(आलेख : बादल सरोज)

जे टी न्यूज़
जैसे-जैसे मतदान की तारीखें करीब आ रही हैं, जैसे-जैसे पाँव के नीचे की जमीन खिसकने का अहसास बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे सत्ता पार्टी की घबराहट बौखलाहट से सन्निपात में बदलती जाती दिखने लगी है। अब तो यह इसके एकमात्र प्रचारक नरेंद्र मोदी की धड़ाधड़ हो रही आम सभाओं में उनके बिखरे, उखड़े सुर और बिगड़े बोलों में यह लगातार बढ़ती गति में उजागर होने लगा है। उनके ज्यादातर भाषणों में एक ही प्रलाप और एक से आत्मालाप का दोहराव हो रहा है – जहां थोड़ा-सा अलगाव है, वह इस कदर अनर्गल है कि दोहराव से भी बदतर है ।

उत्तरप्रदेश के सहारनपुर और उसके बाद राजस्थान के अजमेर में हुयी सभा में दिया उनका भाषण ऐसे अनेक उदाहरणों में एक उदाहरण है। यहाँ बोलते हुए मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस – जो जिस उत्तरप्रदेश में वे बोल रहे थे, उस प्रदेश में मुख्य राजनीतिक शक्ति नहीं है – को कोसते हुए उन्होंने हिन्दू–मुस्लिम के अपने विषाक्त आख्यान के साथ यह भी आरोप जड़ दिया कि अब उस पर वामपंथी पूरी तरह से हावी हो चुके हैं। ये वही मोदी थे, जो आज से ठीक दो साल पहले अपनी चहेती न्यूज़ एजेंसी ए एन आई से बोलते कह रहे थे कि “अब वे (कम्युनिस्ट) कहीं नजर ही नहीं आते, कहीं सत्ता में नहीं हैं, एक केरल के कोने में बैठे हैं।“ इतने के बाद भी अपनी खुन्नस निकालने से नहीं चूके और “एक खतरनाक विचारधारा” कहकर भड़ास निकाली थी। ऐसी ही भड़ास वे सहारनपुर में निकालते दिखाई दिए। जोरदार बात यह है कि यह प्रलाप वे उस इलाके में कर रहे थे, जो भारत के शानदार स्वतन्त्रता संग्राम और उसमें कम्युनिस्टों की उतनी ही चमकदार भूमिका और उसके जरिये आजादी की लड़ाई को एक नया जोश, दिशा, तेवर और उभार देने के गवाह हैं। सहारनपुर और उसके नजदीक का मेरठ 1857 के आजादी के उस पहले संग्राम की भूमि है, जिस लड़ाई ने जो सिलसिला शुरू किया था, वह आखिरकार अपने मकसद को हासिल करके ही पूरा हुआ। सहारनपुर इसी मेरठ का हिस्सा था, जिसमें 1929 से 1933 तक देश भर से गिरफ्तार करके लाये गए 31 कम्युनिस्ट नेताओं पर “अंग्रेजों के राज को उखाड़ फेंकने की साजिश रचने” का मुकदमा चलाया गया था और उन्हें लम्बी-लम्बी सजाएं दी गयी थीं। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान इन देशभक्त कम्युनिस्टों ने अदालत में जो बयान दिए थे, उन बयानों ने समूचे देश में एक लहर पैदा की थी, जो अन्य ऐसे मामलों के साथ महज 14 वर्ष में भारत को आजादी का सूरज दिखाने में कामयाब हो गयी थी।

ऐसी जमीन पर खड़े होकर देश की आजादी के बेहतरीन लड़ाके कम्युनिस्टों के खिलाफ प्रलाप मोदी के ही बस का है। सरासर निर्लज्जता के साथ ऐसा वे ही कर सकते हैं। एक तो इसलिए कि यह वह लड़ाई थी, जिसमे मोदी और उनके कुनबे ने नाखून तक भी नहीं कटाए थे, अलबत्ता अंग्रेज हुकूमत के तलवे जरूर सहलाए थे। दूसरे इसलिए कि यहाँ से उभरा और देश भर की जगार में बदला पहला स्वतंत्रता संग्राम उस हिन्दू-मुसलमान अवाम की एकता और हिन्दुस्तान के निर्माण की कमाल मिसाल है। यह इतनी विराट थी कि खुद मोदी के कुनबे के आराध्य सावरकर ने, जेल से डरकर माफीवीर बनने से पहले लिखी, अपनी किताब “इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857” में न केवल इसकी गौरवगाथा गाई, बहादुर शाह जफ़र की तारीफ़ में कसीदे काढ़े और उनको हिन्दुस्तान की समूची जनता का “निर्वाचित और स्वीकार्य” नेता बताया। जफ़र के शेर “गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की / तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की“ के साथ इस किताब को पूरा किया। सावरकर ने इस जंग में मुस्लिम लड़ाकों की बहादुरी और कुर्बानी की मुक्त कंठ से तारीफ़ करते हुए विदेशी गुलामी से मुक्ति के लिए हिन्दू और मुसलमान भाईयों की इसी तरह की एकता को एक जरूरी शर्त भी बताया था। हिन्दुस्तान की पहचान इस एकता को तोड़ना तब अंग्रेजों का और आज मोदी जी की भाजपा और उनके आर एस एस का एकमात्र लक्ष्य है। ये कम्युनिस्ट हैं, जो अवाम की इस एकता के मुखर हिमायती हैं, इसलिए मोदी को कम्युनिस्टों से भय लगता है।

वैसे भी यह सब जानने के लिए थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना भी होता है, जिसका इधर कोई रिवाज ही नहीं है। पढाई-लिखाई से खुली अदावत के रिश्ते जरूर हैं। मोदी जी के वर्तमान गुरु – जिन्हें उन्होंने स्वयं अपने गुरुपद पर आसीन किया है वे – भैया जी भिड़े कह भी चुके हैं कि “इस देश का शिक्षित समाज देश का सबसे बड़ा दुश्मन है।“ यह एक और वजह है, जिसके चलते एन्टायर पोलिटिकल साइंस में एम ए डिग्रीधारी मोदी जी कम्युनिस्ट विचारधारा को खतरनाक मानते हैं और लाल झंडे को देखकर बिदक जाते हैं।

सहारनपुर और अजमेर में वामपंथ फोबिया की वजह यह है कि वामपंथ एक ऐसा दर्पण है जो मुंह चुराने और श्रृंगार करने के लाख जतनो के बाद भी आईना दिखाकर राजा के नग्नत्व को सामने ला ही देता है। वह जनता की आकांक्षाओं की ऐसी मुखर अभिव्यक्ति है, जो जनता के सवालों को दबाने, उसे किसी पुराने खिलौने से बहलाने, चन्दा मामा को जमीन पर उतारने के भुलावों, धर्म सम्प्रदाय के राजनीतिक दुरुपयोग के सम्मोहन से अवाम को बाहर लाने की ताकत रखता है और मुनाफे की दूषित गटर की बदबूदार गैस से फुलाए गए गुब्बारे में पिन चुभोने का साहस रखता है। उन्हें पता है कि वाम के पास उम्मीद की रोशनी की वह किरण है, जिसमें सारे कुहासे को चीरने और धुंध को छांटने का माद्दा है। वह एक ऐसा उत्प्रेरक है, जो अपनी दिखने वाली शक्ति से कहीं ज्यादा असर रखता है, नींबू की तरह अपनी चंद बूंदों से सारे दूध का दही जमाने का कौशल जानता है।

मोदी जी सही पकडे हैं। मोटे तौर पर इस वक़्त देश का एजेंडा वही है, जिसे अब तक सिर्फ वाम का एजेंडा माना जाता रहा था। नब्बे के दशक की शुरुआत में यह कम्युनिस्ट थे, जिन्होंने नवउदारीकरण के धतूरे के बीज को रोपने के समय ही उसके उन खतरनाक नतीजों का पूर्वानुमान लगा लिया था, जिनके खिलाफ आज देश का सारा विपक्ष और खासकर इंडिया एकजुट दिख रहा है। कॉर्पोरेट और दरबारी पूँजीवाद के खिलाफ आज सत्ता वर्गों के ज्यादातर दल और नेता जिस मुखरता के साथ बोल रहे हैं, वैसी मुखरता से सिर्फ वामपंथ – उसमें भी बिना पल भर के लिए भी मुगालते में आये, अबाध निरंतरता के साथ सीपीएम – ही बोलता रहा। मोदी जी की पार्टी तो तब भी उन नीतियों को अपनी नीतियाँ बता रही थी और उनके चोरी कर लिए जाने का शोर मचा रही थी। खेती-किसानी को कारपोरेट पूंजी से तबाह होने से बचाने, मेहनतकश जनता के जीवन की प्राणवायु का नकदीकरण कर उसे पूँजी की काल कोठरियों में जमा कर देने की नीतियों के विरुद्ध गुजरे 35 साल में ज्यादातर समय तक सिर्फ वाम लड़ा। आदिवासियों के वनाधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी के अधिकार और महामारी बनती बेरोजगारी के उपचार के उपायों सहित पुरानी पेंशन योजना सहित श्रमिक-कर्मचारियों के हित वाले कानूनों की बहाली के लिए संघर्ष वामपंथ की अगुआई में हुए। साहित्य, कला और संस्कृति से लेकर प्रेस मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए व्यापकतम लामबंदियाँ हुईं। तब भी और आज भी भारत के संघीय गणराज्य की बनावट और धर्मनिरपेक्षता की हिमायत में बिना हिचक सबसे दृढ़ता के साथ वाम ही है, जो खड़ा रहा ; धर्म को राजनीति के साथ गड्डमड्ड करने की हमेशा मुखालफत की ; राजनीतिक इरादे से घंटा बजाने, त्रिपुंड लगाने और जनेऊ दिखाने का कहीं न पहुंचाने वाली भूलभुलैया का शॉर्टकट नहीं चुना। देश में लोकतंत्र की रक्षा और उसके विस्तार की जद्दोजहद में वाम हमेशा अगुआ रहा। आज जिस अघोषित इमरजेंसी से देश गुजर रहा है, उसके प्रोटोटाइप संस्करण 75-77 के आपात्काल में जब मोदी जी का आर एस एस और जनसंघ माफियों के आंसुओं में देश डुबो रहा था, तब यह सीपीएम की अगुआई वाला वामपंथ ही था, जिसने उसके आने की धमक 1972 में ही भांप ली थी, हजारों शहादतें देकर उसका मुकाबला किया था और आखिर में एकदलीय तानाशाही के मंसूबों और ढाँचे दोनों को कालातीत बना देने में अहम् भूमिका निबाही थी। वाम के इसी रिकॉर्ड से उससे भी बदतर तानाशाही थोपने के नापाक इरादे वालों को यदि डर लगता है, तो सही लगता है, लगना भी चाहिए।

मोदी सही पकडे हैं कि हिन्दू मुसलमान करने की उनकी सारी कोशिशों, आभासीय और उन्मादी माहौल बनाकर लोगों का विवेक हर लेने की उनकी आपराधिक तिकड़मों को बार-बार कमजोर और बेअसर करके, राजनीतिक विमर्श को धरातल पर लाने का काम वाम ने किया है। यह वाम ही है, जिसने निर्विकल्पता के दावे के झीने परदे को चीरकर वैकल्पिक नीतियों को पेश किया, अपने गतिविधियों, अभियानों, आन्दोलनों से “विकल्प संभव है” का अहसास बहुमत जनता के मन में जमाया है। इस अहसास को एतिहासिक संघर्षों में उतारा। इसके लिए संसद या विधानसभाओं में अपनी तादाद घटने-बढ़ने की परवाह किये बिना उसने देश और उसकी जनता को बचाने की अलख जगाई। मंदसौर गोलीकांड के बाद से देश भर में उभरा किसान आन्दोलन, नवउदार नीतियों के खिलाफ अब तक हुयी दो दर्जन से अधिक देशव्यापी औद्योगिक, और कोई एक सैकडा से अधिक उद्योग विभागवार हड़तालें , विश्वविद्यालयों में जूझते-भिड़ते छात्र और अध्यापक, इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन सबमें बीसियों की करोड़ की प्रत्यक्ष और उससे अधिक की अपरोक्ष भागीदारी उस व्याप्ति का आकार है, जिसे जोड़ने, इकट्ठा करने और मैदान में उतारने की क्षमता और कौशल और इसे हासिल करने के लिए बेशुमार कुर्बानियां देने का चमकीला योगदान सिर्फ वाम के पास है।

सबसे बढ़कर और विरोधियों तक के मन में आदर जताने वाली कम्युनिस्टों की खूबी और खासियत है उनकी ईमानदारी, सचमुच की राजनीतिक शुचिता, देश, अवाम और विचारधारा के प्रति अक्षुण्ण समर्पण और प्रतिबद्धता!! सहारनपुर की इसी सभा और इसके बाद की बाकी सभाओं में गाल बजाते हुए मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक के बाद एक झूठा दावा ठोंके जा रहे थे। उन्होंने फरमाया कि “भ्रष्टाचारी गरीब के सपनों को तोड़ते हैं, आपको लूटते हैं, आपके अधिकारों को लूटते हैं। आपको आगे बढ़ने से रोकते हैं। अगर आपका बेटा या बेटी नौकरी के लिए योग्य है। लेकिन भ्रष्टाचार करके किसी और को नौकरी दे दी जाए, तो आपके बेटे-बेटी का भविष्य क्या होगा?“ यह दावा वे प्रधानमंत्री कर रहे थे, जिनकी खुद की पार्टी व्यापम जैसे घोटालों के कीर्तिमान कायम कर चुकी है, उनके शासित हर प्रदेश में पटवारी से लेकर पुलिस, आंगनबाडी से लेकर स्कूल मास्टर तक की भर्तियों में घोटाले ही घोटाले हो रहे हैं। जो खुद राफेल से इलेक्टोरल बांड तक की यात्रा पूरी कर कांडों के विश्वगुरु का खिताब अर्जित कर चुके हैं। वे उस वाम को कोस रहे थे, जिसकी अगुआ सीपीएम ने कभी किसी कारपोरेट से सीधे, आड़े या बांड के जरिये एक रुपया नहीं लिया। जिसने सुप्रीम कोर्ट जाकर इस महाघोटाले का भंडाफोड़ किया। जिसके किसी नेता का नाम किसी की डायरी में कभी नहीं दिखा। जिसकी चौथाई, चौथाई सदी तक चली सरकारों में कोई घपला, घोटाला, काण्ड नहीं हुआ। उनकी खीज यह है कि कारपोरेट के दिए पैसे से दूसरी पार्टियों के सांसदों, विधायकों, नेताओं को मंडी की साग-भाजी की तरह खरीदते ठगों के हाथ कोई वामपंथी नहीं लगा। उनकी ईडी – सीबीआई और आईटी की तिकड़ी भी वामपंथ में कोई टारगेट नहीं ढूंढ पाई!!

मोदी मुगालते में हैं। वे वामपंथ को अपने चश्मे से देखते हुए उसके हिसाब से आंकलन कर प्रमुदित हो रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि दुनिया में – विशेषकर भारत में – जो भी सकारात्मक है, जो भी मानवीय और मानव सभ्यता के लिए मूल्यवान है, उसके पीछे वाम — दार्शनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वाम — है। भारतीय दर्शन परम्परा के षडदर्शन के आधे से अधिक जीवंत और प्रासंगिक – हमेशा और सदा-सदैव उत्कृष्ट – हिस्से का प्रदाता, वाहक और संवाहक वामपंथ है। जिन्दगी को बेहतर से और बेहतर बनाने का काम करने वाला और मनुष्य को सामाजिक रूप से उपयोगी बनाने का सलीका और शऊर सिखाने वाला वाम है। उसे अलग-थलग करने के मुंगेरीलाल के सपने देखने वाले मोदी पहले तानाशाह नहीं हैं – इनसे पहले ये शेखचिल्ली ख्वाब जिन-जिन ने देखे, वे या तो इतिहास के कूड़ेदान में दाखिल किये जा चुके हैं या एक दु:स्वप्न और सबक की तरह याद किये जाते हैं।

स्ट्रीट लाइट्स की रोशनी से उन्हें ही डर लगता है, जिन्हें रात की स्याही में सेंधमारी करनी होती है। दस साल से लगातार चल रही ठगी और बटमारी को देश की जनता पहचान रही है, बदलाव के लिए उत्सुक और आतुर धरा का कंपन मौजूदा हुक्मरानों को थरथरा रहा है – उनकी कंपकंपी और बढ़ाना है, तो इन रोशनियों को मशाल में तब्दील करना होगा। बहीखातों के हिसाब को मुकम्मिल करने की तारीख 31 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान से उठी हुंकार इस बार इस हिसाब-किताब के ठीक तरह से नक्की होने की आश्वस्ति देती है।

Related Articles

Check Also
Close
Back to top button